6. Internal Structure of Indian Cities / भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना
6. Internal Structure of Indian Cities
(भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना)
प्रश्न प्रारूप
Q.भारत के प्राचीन, मध्ययुगीन तथा ब्रिटिश नगरों से विशिष्ट उदाहरण देते हुए उसके आंतरिक संरचना के विकास का परीक्षण कीजिए।
Q. भारतीय नगरों की आन्तरिक संरचना से आप क्या समझते है?
Q. नगरों की आन्तरिक संरचना से आप क्या समझते है?
नगरों की आंतरिक संरचना का तात्पर्य नगर की उस व्यवस्था से है जिसमें नगरों की विन्यास प्रणाली और नगरों के कार्यिक प्रारूप का अध्ययन किया जाता है। किसी भी नगर का विकास किसी न किसी केन्द्रीय(चौराहा) स्थल पर होता है तथा नगरों के आन्तरिक संरचना की एक निश्चित प्रवृत्ति होती है। इन्हीं प्रवृतियों को कई भूगोलवेताओं ने सैद्धांतीकरण करने का प्रयास किया है। इनमें बर्गेस, हायड, उल्मान, हेरीस तथा गैरीसन जैसे भूगोलवेताओं का नाम उल्लेखनीय है। इन भूगोलवेताओं ने भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना का अध्ययन कर विकसित देशों के नगरों की आन्तरिक संरचना का अध्ययन कर सैद्धांतीकरण करने का प्रयास किया था।
भारतीय नगरों के आंतरिक संरचना को प्रभावित करने वाले कारक
भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना पर निम्नलिखित कारकों का व्यापक प्रभाव पड़ा है।
(1) धार्मिक कार्य-
धार्मिक कार्यों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। जैसे- वाराणसी, गया, मथुरा, मदुरई इत्यादि। धार्मिक स्थल से प्रत्येक लोग जुड़े रहना चाहते हैं। इसलिए ऐसे नगरों में संकरी और अनियोजित सड़क प्रणाली विकास हुआ है। भारत के अधिकांश प्राचीनकालीन नगर इसी प्रकार के उदा० प्रस्तुत करते हैं।
(2) धर्म तथा प्रशासन-
मध्यकाल में नगरों की आंतरिक संरचना पर धर्म एवं प्रशासन दोनों का प्रभाव देखा जा सकता है। जैसे- फतेरपुर सिकरी, आगरा का किला, दिल्ली का लाल किला, जौनपुर, विजयनगर, इत्यादि नगरों पर प्रशासनिक प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
(4) ग्रामीण-नगरीय स्थानान्तरण-
भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना पर ग्रामीण नगरीण जनसंख्या स्थानान्तरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसके चलते नगरों में जनसंख्या विस्फोट हुआ है जिसके चलते गंदी बस्ती का विकास तेजी से हो रहा है।
(5) राजनीतिक व प्रशासनिक निर्णय-
भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना पर राजनैतिक एवं प्रशासनिक निर्णय का भी प्रभाव देखा जा सकता है। जैसे- स्वतंत्रता के बाद नगरों के विकास के लिए “मास्टर प्लान बनाये गये। इसके लागू होने के कारण ही नगरों के बाहरी क्षेत्रों में नियोजित संरचना दिखाई देती है।
(6) सामाजिक एवं सांस्कृकृतिक कारक-
भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारकों का भी प्रभाव देखा जाता है। इन कारकों के कारण सामाजिक विलगाव पर आधारित अधिवासीय क्षेत्र देखने को मिलता है। जैसे- उत्तर भारत के प्रत्येक नगर में बंगालियों का एक अलग मुहल्ला मिलता है।
(7) द्वितीयक व तृतीयक आर्थिक गतिविधियाँ-
भारतीय नगरों पर द्वितीय एवं तृतीयक आर्थिक गतिविधियों का भी स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। आजादी के बाद भारत में तेजी से हो रहे औद्योगिक विकास के कारण औद्योगिक नगरों का विकास हुआ है। जैसे- बोकारो, गांधीनगर, ईटानगर, भुवनेश्वर, राउरकेला, दिसपुर इत्यादि।
(8) ग्रामीण संस्कृति का प्रभाव-
भारतीय नगरों का विकास प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों के लिए हुआ है और ग्रामीण क्षेत्र नगरों का सेवा किया करते है। ग्रामीण लोग नगरों में आकर ग्रामीण परिवेश के आधार पर ही आन्तरिक संरचना विकसित करते हैं।
भारतीय नगरों की आन्तरिक संरचना की विशेषता
उपरोक्त कारकों के प्रभाव से भारतीय नगरों में निम्नलिखित विशेषताएं दिखाई देती है:-
(1) विकसित देशों में प्रत्येक नगर के मध्य CBD (Central Business District) दिखाई देता है और यह क्षेत्र अट्टालिकाओं का क्षेत्र होता है। यहाँ वाणिज्य, व्यापार थोक मूल्य, खुदरा मूल्य पर आधारित दुकानें होती हैं। रात में CBD खाली हो जाता है। यद्यपि भारत में CBD का विकास हुआ है। तथापि यह अट्टालिकाओं का क्षेत्र नहीं होता है तथा निचले तल्ले पर व्यापार और ऊपरी मंजिल पर अधिवास के रूप में प्रयोग किया जाता है।
(2) विकसित देशों के नगर में नगर के केन्द्र से ज्यों-2 बाहर की ओर निकलते हैं त्यों-2 मकानों की ऊँचाई में कमी आते जाती है। लेकिन भारतीय नगरों में ऐसी कोई प्रकृति नहीं पायी जाती है।
(3) भारतीय नगरों में अधिवासीय क्षेत्र सामान्यत: मिश्रित रूप में पायी जाती है। अर्थात यहाँ सभी आय वर्ग के लोग साथ-2 अधिवासित होते हैं।
(5) यहाँ के नगरों में अधिक आयु वाले मकान देखने को मिलते और उनमें भी मकान निम्न स्तरीय होता।
(6) भारतीय नगरों में सघन जनसंख्या देखने को मिलती है।
(7) भारतीय नगरों में कार्यों की विशिष्टता के आधार पर नगरीय बस्तियाँ कम ही दिखाई देती है।
भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना का भूगोलवेताओ द्वारा अध्ययन
भारतीय नगरों की आन्तरिक संरचना का कई भूगोलवेताओं ने अध्ययन किया है जिनमें तीन का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है:-
(1) गैरीसन का अध्ययन
(2) अशोकदत्ता का अध्ययन
(3) डॉ. कुसुमलता का अध्ययन
(1) गैरीसन का अध्ययन
गैरीसन एक अमेरिकी भूगोलवेता थे जिन्होंने 1962ई० में कोलकाता नगर के आन्तरिक संरचना का अध्ययन किया और उन्होंने “संयुक्त वृद्धि का सिद्धांत” प्रतिपादित किया। उन्होंने बताया कि एक ही नगर में सकेन्द्रीय वलय पेटी या संकेन्द्रीय वलय प्रतिरूप, खण्डीय प्रतिरूप देखने को मिलता है। गैरीसन ने कहा कि वैसा नगर जिसका विकास लम्बी अवधि से हो रहा हो वहाँ तीनों प्रकार के प्रतिरूप मिलते हैं। उन्हेंने कहा कि कोलकाता महानगर में सबसे पहले सकेंद्रीय पेटियों का विकास हुआ और अंत में बहुनाभिक पेटी का विकास हुआ।
गैरीसन ने बताया कोलकाता में 1887ई० तक सकेन्द्रीय विकास की प्रवृति थी। 1887ई०-1947ई० के बीच सकेन्द्रीय वलय पेटी और खण्डीय प्रतिरूप के विकास की प्रवृति थी और स्वतंत्रता के बाद बहुनाभिक विकास की प्रवृति है।
गैरीसन के अध्ययन को आधार मानते हुए कानपुर, वाराणसी, बंगलौर एवं नगरीय जनसंख्या विस्फोट वाले नगरों का जब अध्ययन किया गया तो पाया गया कि उपरोक्त सभी नगरों का विकास गैरीसन के सिद्धांत के अनुरूप हुआ है। लेकिन गैरीसन का मॉडल भारत के छोटे नगरों पर लागू नहीं होता है, इसलिए अन्य अध्ययन आवश्यक था।
(2) अशोकदता का अध्ययन
A.K. एक्रोन विश्वविद्यालय, USA में प्रो० थे। उन्होंने भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना का अध्ययन कर 1974ई० में शोध-पत्र प्रस्तुत किया। उनके अनुसार भारतीय नगरों की आन्तरिक संरचना का निम्नलिखित प्रतिरूप दिखाई देता है।
(1) कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई जैसे ब्रिटिशकालीन महानगरों में पश्चिमी देशों के समान ही नगर के केन्द्र में CBD का विकास हुआ है। लेकिन साथ-2 अधिवासीय क्षेत्र का भी विकास हुआ है।
(2) भारत में ब्रिटिशकाल के पूर्व जितने भी नगर विकसित हुए हैं वे सभी अनियोजित प्रकार के हैं।
(3) भारतीय नगरों में अधिवासीय क्षेत्र विलगाव पर आधारित है। भारतीय नगरों में यह विलगाव भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर देखा जा सकता है।
(3) डॉ. कुसुमलता का अध्ययन
डॉ. कुसुमलता ने 1968ई० में ही भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि भारतीय नगरों के आन्तरिक संरचना का तीन प्रतिरूप देखने को मिलता है।
(i) अनियोजित प्रतिरूप
(ii) अनियोजित सह नियोजित प्रतिरूप
(iii) नियोजित प्रतिरूप
(i) अनियोजित प्रतिरूप वाले नगर-
डॉ० कुसुमलता के अनुसार संरचनात्मक विकास के आधार पर अनियोजित नगर दो प्रकार के हैं। प्रथम प्रकार में वैसे नगरों को शामिल करते हैं, जो अति प्राचीन है लेकिन, वर्तमान समय में विकसित होकर बहुत बड़े हो चुके हैं। जैसे- वाराणसी नगर इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। यहाँ पर नगर का विकास मंदिर के चारों ओर सबसे पहले अनियोजित तरीके से हुआ और आज भी उसका विकास अनियोजित क्रम में जारी है।
भारत में दूसरे प्रकार के अनियोजित नगर वह है जो हाल के वर्षों में जनसंख्या विस्फोट और कार्यिक संरचना में आये परिवर्तन से हुआ है। उपरोक्त दोनों प्रकार के अनियोजित नगर के केन्द्र में सघन जनसंख्या देखी जा सकती है और वहाँ मिश्रित कार्यों की प्रवृति होती है।
(ii) अनियोजित सह नियोजित नगर-
इस प्रतिरूप का विकास औपनिवेशिक काल में हुआ जैसे-पुरानी नगरीय बस्ती पहले से ही अनियोजित बस्ती थी। लेकिन उसके सटे ब्रिटिश प्रशासकों ने नियोजित बस्ती का विकास किया। ऐसे बस्ती आयताकार विन्यास प्रणाली पर आधारित थीं। ऐसे नियोजित नगरों में सिविल लाइन, सैनिक छावनी तथा प्रशासनिक क्षेत्र का विकास किया गया। पुराने नगरों के नजदीक नियोजित नगर बसाने का प्रमुख कारण अनुकूल बसाव स्थान था। उदा०-(पटना और दानापुर, राँची और बामकुम्प, कैट, दिल्ली और दिल्ली कैंट, आगरा और आगरा कैंट आदि।
(iii) नियोजित प्रतिरूप-
भारत में पूर्ण नियोजित नगर का अभाव है। फिर भी कई ऐसे नगर हैं जिनका विकास नियोजित तरीक से किया जाता है। जैसे – जमशेदपुर, चण्डीगढ़, गाँधी नगर, भुवनेश्वर, ईटानगर, येहलांका, बंगलोर, दिसपुर इत्यादि।
चण्डीगढ़ आयताकार विन्यासप्रणाली पर आधारित एक नियोजित नगर है जिसके केन्द्र में सेक्टर-17 है जिसमें CBD विकास हुआ है। अधिवासीय क्षेत्रों का विकास आय के आधार पर किया गया है। आजादी के पूर्व ब्रिटिश काल में मकड़े जाली प्रतिरूप पर नई दिल्ली को नियोजित नगर के रूप में विकसित किया गया था। जिसके केन्द्र में कनॉट पैलेस है। ब्रिटिश काल के पूर्व जयपुर को राजा जयसिंह ने नियोजित नगर के रूप में विकसित किया था।
निष्कर्ष:-
इस तरह ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत में अनियोजित, नियोजित तथा अनियोजित सह नियोजित आन्तरिक संरचना नगरों में देखी जाती है।
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