7. Internal Structure of Cities
(नगरों की आन्तरिक संरचना)
नगरों की आन्तरिक संरचना का तात्पर्य नगर के आन्तरिक भागों में विकसित भौतिक तथा सांस्कृति स्वरूप से है। भूगोल यह मानता है कि नगर एक जीवित प्राणी के समान है, जो सदैव विकास तथा विस्तार की प्रवृति रखता है। इसी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप नगरों के आन्तरिक संरचना का विकास होता है। इसी संदर्भ में कुछ भूगोलवेताओं का मानना है कि नगरों की आन्तरिक संरचना की संकल्पना एक गत्यात्मक पहलू है जो मुख्यतः तीन कारकों से प्रभावित होती है:-
(1) भौतिक कारक
(2) मानवीय / सांस्कृतिक कारक
(3) नियोजन और प्रशासनिक पहलू
नगरों के आन्तरिक संरचना नगर के अन्दर भूमि के उपयोग किये जाने के प्रतिरूप से है। भूगोलवेताओं ने कहा है कि नगरों का विकास केन्द्रीय स्थल पर होता है और सभी नगर द्वितीयक एवं तृतीयक कार्यों को सम्पन्न करते हैं। लेकिन सभी नगर एक समान द्वितीयक एवं तृतीयक कार्यों को सम्पन्न नहीं करते हैं। ये असमानता ही नगरों के आन्तरिक संरचना में विषमता उत्पन्न करते हैं। नगरों के आन्तरिक संरचना में उत्पन्न असमानता के सैद्धांतीकरण का कार्य किया है। इसके लिए चार निम्नलिखित सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं:-
(1) सकेन्द्रीय वलय पेटी का सिद्धत (Concentric Zone Theory)- बर्गेस (1927 ई0)
(2) खण्ड सिद्धांत- हॉयट (1939 ई0)
(3) बहुनाभिक सिद्धांत- हैरिस तथा उल्मैन (1945 ई0)
(4) संयुक्त वृद्धि का सिद्धांत- गैरिसन (1962 ई0)
(1) सकेन्द्रीय वलय सिद्धांत
सकेन्द्रीय वलय सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिकी समाजशास्त्री बर्गेस ने (1927 ई0) में शिकागो नगर का अध्ययन करने के बाद प्रस्तुत किया था। उन्होंने अपने सिद्धांत में कहा था कि नगरों की आन्तरिक संरचना सकेन्द्रीय वलय पेटी के समान होते हैं, जिसे नीचे के मॉडल में देखा जा सकता है।
INDEX
1 = केन्द्रीय बाजार क्षेत्र Central Business District (CBD) – केंद्रीय व्यापार जिला
2 = संक्रमण पेटी – अधिवास & व्यापार का कार्य साथ-साथ
3 = श्रमिकों के अधिवासीय क्षेत्र पेटी
4 = मध्यम एवं उच्च आय वर्ग के अधिवासीच पेटी
5 = अभिगमन के क्षेत्र
बर्गेस ने दिये गये मॉडल के अनुसार ही नगरों के आन्तरिक संरचना विकसित होने की संभावना विकसित की है। उन्होंने प्रत्येक पेटी की विशेषता निम्नलिखित प्रकार से बताया है।
(1) CBD (Central Business District)⇒
इसे केन्द्रीय बाजार या केन्द्रीय व्यापार जिला से सम्बोधित करते है। CBD शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मरफी महोदय ने किया था। GBD वह क्षेत्र है जो नगर के केन्द्र में होता है। जमीन और मकान का किराया अधिक होता है। भूमि के चप्पे-चप्पे प्रयोग व्पायार के रूप में किया जाता है। मकानें बहुमंजिले होते हैं। दिन में भीड़-भाड़ू लेकिन रात में शुन्य -शान का क्षेत्र होता है। रात में स्ट्रीट लाईट चौकीदार कुछ विश्विप्त लोग (पागल) और नगर निगम की सफाई की गाड़ियाँ दिखाई देती हैं। इस क्षेत्र को शिकागो में Loop, न्यूयॉर्क में Up and down Town तथा पीटरसबर्ग में ‘गोल्डेन टेम्पल’ के नाम से जानते हैं।
(2) संक्रमण पेटी⇒
यह पेटी CBD के चारों ओर विकसित होता है। यह वह क्षेत्र है जहाँ पर व्यापार एवं अधिवास का कार्य साथ-साथ किया जाता है। अनियोजन इसकी एक सामान्य विशेषता है।
(3) श्रमिक या निम्न आय वर्ग की पेटी⇒
यह तीसरी पेटी है जो संक्रमण पेटी के चारों ओर विकसित होती है। श्रमिक वर्ग के लोग तीसरी पेटी में निवास करते हैं क्योंकि यहाँ पर एक ओर अधिवासीय खर्च कम पड़ता है और दूसरी तरफ केन्द्रीय बस्ती तक पहुँचने में भाड़ा और समय कम लगता है।
(4) मध्यम और उच्च आय वर्ग की पेटी⇒
इसका विकास चौथी पेटी के रूप में होता है क्योंकि यहाँ पर बसाव के लिए अधिक भूमि उपलब्ध होता है स्वच्छ और खुला वातावरण होता है। इनके पास परिवहन क्षमता अधिक होता है। इसलिए वे सार्वजनिक और निजी परिवहन का सफलतापूर्वक उपयोग कर लेते हैं।
(5) अभिगमन की पेटी⇒
यह पाँचवाँ और अंतिम पेटी है। यहाँ दैनिक अभिगमन करने वाले लोग रहते हैं। कहीं-2 पर उच्च श्रेणी के रिहायसी मकान दिखाई देते हैं। सर्वत्र निर्माण का कार्य दिखाई देता है। बीच-बीच में दुग्ध व्यवसाय या सब्जी व्यवसाय का व्यापार करने वाले लोग दिखाई देते है।
बर्गेस महोदय ने बताया है कि अगर नगरों का तेजी से बिस्तार हो रहा हो तो चार अन्य पेटियाँ भी मिल सकती है। पुन: 5वाँ पेटी (अभिगमन की पेटी), 9वाँ पेटी में चला जाता है। चार सांभावित पेटी को शामिल कर लिये जाने के बाद क्रमश: निम्नलिखित 9 पेटियों का विकास होता है:-
(1) CBD
(2) संक्रमण पेटी
(3) श्रमिकों की पेटी
(4) मध्यम और उच्च वर्ग की पेटी
(5) भारी उद्योग की पेटी
(6) अधिवासीय पेटी
(7) सीमान्त बाजार
(8) औद्योगिक उपनगरीय क्षेत्र
(9) अभिगमन की पेटी
उपरोक्त 9वीं पेटियों का विकास शिकागो नगर के अन्दर हुआ है।
आलोचना
(1) बर्गेस ने जिस ज्यामितीय नियम के आधार पर संकेन्द्रीय वलय पेटी के विकास की संभवना व्यक्त किया है वह संभव नहीं है क्योंकि नगर के अन्दर से गुजरने वाला सड़क नदी, पुल इत्यादि नगर की आन्तरिक संरचना को प्रभावित कर देते हैं।
(2) नगरों की आन्तरिक संरचना पर भौतिक कारकों का भी प्रभाव पड़ता है जिसकी चर्चा बर्गेस ने नहीं किया है।
(3) एक ही नगर को आधार मानकर पूरे विश्व के नगरों की आन्तरिक संरचना का अध्ययन किसी भी दृष्टिकोण में औचित्य दिखाई नहीं पड़ता।
(4) विकासशील देशों के CBD में अधिवास का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता है, पुनः पूर्वी यूरोप के नगर के केन्द्र सांस्कृतिक जमघट के केन्द्र होते हैं।
(5) इस सिद्धांत के सबसे बड़े आलोचक हॉयट महोदय हुए जिन्होंने बताया कि नगरों की आन्तरिक संरचना का विकास सकेन्द्रीय पेटी के रूप में न होकर खण्डीय होता है।
(6) डिक्सन महोदय में पेरिस का अध्ययन करते हुए बताया कि उसकी संरचना संकेन्द्रीय नहीं हैं बल्कि तारा द्वारा प्रतिरूप में हुआ है।
निष्कर्ष-
उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद यह सिद्धांत नगरों की आन्तरिक संरचना का अध्ययन एवं सैद्धान्तीकरण करने का प्रथम प्रयास था जिसकी सराहना मुक्त्त रूप से सभी भूगोलवेताओं ने किया है।
2. खण्ड सिद्धान्त (Sector Theory):
इसका प्रतिपादित अमेरिकी समाजशास्त्री होयट महोदय द्वारा 1939 ई. में किया गया था। इसका अध्ययन 142 अमेरिकी नगरों पर आधारित था।
मान्यताएँ :
होयट का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि-
(i) नगरों की संरचनात्मक फैलाव में केन्द्रीय बाजार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
(ii) सभी कार्यों की प्रकृति होती है कि वे केन्द्रीय बाजार तक सहज पहुँच रखते हो। अतः केन्द्रीय बाजार से निकलने वाले मुख्य पथ के किनारे विभिन्न प्रकार के कार्यों का फैलाव होने लगता है।
(iii) नगर के मध्य वाणिज्य तथा व्यापार के कार्य होते है और यह वृत्ताकार प्रवृत्ति में होता है।
(iv) नगरों का विकास एक वृत्त के रूप में होता है जिसके आन्तरिक भाग संकेन्द्रीय पेटी के रूप में नहीं बल्कि कई खण्डों में विकसित होते है।
होयट के अनुसार नगर में पांच प्रकार के खण्ड देखने को मिलते हैं।
1. केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र
2. थोक पैमाने पर हल्के विनिर्माण उद्योग
3. निम्न श्रेणी रिहाइशी क्षेत्र
4. मध्यम श्रेणी रिहाइशी क्षेत्र
5. उच्च श्रेणी रिहाइशी क्षेत्र
होयट के अनुसार सड़क मार्ग के किनारे उच्च आय वर्ग की बस्ती होता है। इसके किनारे मध्यम आय वर्ग की बस्ती विकसित होती है और दो मध्यम आय वर्ग के बीच एक उच्च आय वर्ग की खण्ड विकसित होती है। होयट के अनुसार उच्च आय वर्ग के बस्ती का विकास निम्नलिखित तीन प्रवृत्तियों के अनुसार होती है:-
(i) नगर लम्बवत् रूप (Vertical Expansion) से बढ़ सकता है। एक परिवार वाले मकान एक से अधिक परिवार वाले मकानों में परिवर्तित हो जाते हैं।
(ii) मकान खाली पड़े प्लाटों पर भी बनने लगते हैं। इस प्रकार बस्तियों के बीच में खाली हुआ भाग मकानों से घिर जाता है।
(iii) जब नगर पर जनसंख्या का दबाव पड़ता है तब मकान नगरीय सीमा को धक्का देकर बाहर की ओर बढ़ जाते हैं। इस प्रकार का विस्तार अपकेन्द्रीय विस्तार कहलाता है। अपकेन्द्रीय विस्तार के भी तीन रूप होते हैं-
(a) ध्रुवीय विकास
(b) एकाकी बस्तियां और
(c) एकाकी बस्तियों का मिलाप।
होयट महोदय ने हल्के उद्योगों की स्थापना करें। पुन: होयट कहा है कि सभी पेटियों का बाहर फैलाव भी होता है। अर्थात् जनसंख्या जैसे-जैसे बढ़ेगी पेटी भी बाहर की ओर फैलता जाएगा। इतना ही नहीं नवीन खण्डों का भी निर्माण होता है। जैसे- यदि किसी नगर में बृहद् उद्योग की स्थापना होगी तो उसके लिए एक खण्ड विकसित होंगे जो दूसरे या तीस खण्ड के ऊपर होगी। चौथे खण्ड के ऊपर अधिवासीय उपनगर विकसित होगा जिसमें मध्य व उच्च वर्ग के लोग होंगे। पांचवे खण्ड के ऊपर अधिवासित खण्ड, स्वास्थ्य, शिक्षा खण्ड विकसित होंगे।
आलोचनाएँ
(i) यह सिद्धांत महानगरों के लिए उपयोगी नहीं हैं बल्कि छोटे एवं मध्यम आकार के औद्योगिक नगरों पर लागु होता है।
(ii) वर्तमान नगर नियोजन में उच्चवर्गीय अधिवासीय क्षेत्र को उच्च वर्ग से दूर रखा जाता है।
(iii) इस सिद्धान्त के विश्लेषण से स्पष्ट है कि नगर का मुख्य कार्य अधिवास है जबकि ऐसा नहीं है।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है भारतीय नगरों में पूर्णरूपेण खण्डीय विकास की प्रवृत्ति नहीं है लेकिन औपनिवेशिक काल में कुछ नगरों में खण्डीय प्रवृत्ति भी ऐसा इसलिए कि वे लोग भारतीयों के साथ मिश्रित नहीं होना चाहते थे। वाराणसी में खण्डीय प्रवृत्ति विकसित हुई थी। इस प्रकार ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्तमान में इस सिद्धांत की उपयोगिता नहीं के बराबर है।
3. बहुनाभिक सिद्धान्त (Muittiple Nuclei Theory) :
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 1945 ई. में हैरिस तथा उल्मैन महोदय ने किया है। ये दोनों भूगोलवेत्ता थे जिन्होंने भौगोलिक सन्दर्भ में नगरों के आन्तरिक संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसके निर्धारण में नगर के अधिवासीय कार्यों के अलावे उसके आर्थिक कार्य और परिवहन मार्गों के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है। बहुनाभिक सिद्धांत के अनुसार, किसी नगर का विकास केवल एक ही केन्द्र पर नहीं बल्कि कई केन्द्रों पर होता है।
मान्यताएँ :
हैरिस तथा उल्मैन द्वारा विकसित मॉडल निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
(1) यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि नगर के प्रत्येक कार्यों का विकास निजी स्थानीय गुणां के कारण निकसित होती है। वह दूसरे पर आधारित नहीं होता है। चूंकि प्रत्येक कार्य के अपने आगे बढ़ने की शक्ति होती है, इसलिए प्रत्येक कार्य एक नाभिक केन्द्र का निर्माण करता है और इसी आधार पर उसे बहुनाभिक सिद्धांत कहा गया है।
(2) कुछ नगरीय क्षेत्रों का विकास विशिष्ट सुविधाओं के आधार पर होता है। जैसे- भारी उद्योग का विकास रेल परिवहन सुविधा के कारण होता है।
(3) कई कार्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। अत: उसका विकास एक-दुसरे के अगल-बगल में होता है। जैसे-अधिकांश वाणिज्यिक बैंक,का विकास CBD में होता है।
(4) कई नगरीय कार्य एक दूसरे के कार्य से विलगाव रखते है अर्थात् एक-दूसरे के अगल-बगल विकसित नहीं होते। जैसे- उच्च आय वर्ग की बस्ती और औद्योगिक बस्ती, उच्च आय वर्गीय बस्ती और गन्दी बस्ती अगल-बगल में विकसित नहीं होते हैं।
(5) कुछ ऐसे भी कार्य होते है जो अधिक आर्थिक लगान नहीं दे सकते है: अतः उनका विकास नगर के बाह्य क्षेत्रों में कम किराए के मकान पर होता है। जैसे – विश्वविद्यालय, हॉस्पीटल, प्रशासनिक।
उपरोक्त मान्यताओं के आधार पर निम्न मानचित्र दिया गया है-
1. केन्द्रीय व्यापारिक केन्द्र
2. थोक पैमाने पर हल्के निर्माण उद्योग
3. निम्न श्रेणी रिहाइशी क्षेत्र
4. मध्यम श्रेणी रिहाइशी क्षेत्र
5. उच्च श्रेणी रिहाइशी क्षेत्र
6. भारी निर्माण उद्योग
7. भारी व्यापारिक पेटी
8. रिहाइशी उपनगर
9. औद्योगिक उपनगर
10. अभिगमनकर्ताओं की पेटी
आलोचनाएँ:
(i) यह सिद्धान्त सिर्फ महानगरों पर ही लागू होता है, छोटे नगरों के लिए उपयोगी नहीं है।
(ii) यह सिद्धान फैलाव के नियमों पर आधारित नहीं है। बल्कि वस्तुस्थिति का अधिक विश्लेषण करता है।
नोट: रिहाइशी = आवास
(iii) यह मूलतः पश्चिमी देशों के लिए उपयोगी है।
(iv) सिद्धान्त सभी प्रकार के कार्यों के मध्य नाभीय चरित्र की अपेक्षा रखता है जो यथार्थ में सभी क्षेत्र में संभव नहीं है।
(v) भारत जैसे देशों में बहुनाभिक सिद्धांत में वृद्धि की प्रवृत्ति तो है फिर भी यहां सकेन्द्रीय वलय प्रवृत्ति अधिक सशक्त है। नियोजित दिल्ली तथा स्वतंत्रता के बाद विकसित कलकत्ता में बहुनाभिक प्रवृति देखने को मिलता है।
(vi) हैरिस तथा उल्मेन ने यह भी बताया कि नगरीय कार्यिक केन्द्रों में परिवर्तन भी होता है। जैसे –
(1) पुराने उपांत अधिवासीय क्षेत्र का परिवर्तन उपनगरीय बस्ती में होता है।
(2) पुराने औद्योगिक बस्ती का परिवर्तन निम्न आय वर्ग औद्योगिक श्रमिकों के अधिवास क्षेत्र में हो जाता है।
(3) पुराने कम आय वर्ग के क्षेत्र या तो गंदी बस्ती में बदल जाते हैं या हल्के उद्योग वाले क्षेत्र हो जाते हैं।
4. संयुक्त वृद्धि सिद्धान्त (Fused Growth Theory):
इसका प्रतिपादन अमेरिकी भूगोलवेत्ता गैरिसन में 1962 ई. में कलकत्ता महानगर के सन्दर्भ में किया। गैरिसन के अनुसार ‘विकासशील देशों के महानगरों की तुलना में विकसित देशों की संरचनात्मक प्रवृत्ति भिन्न होती है। विकासशील देशों में प्रारम्भिक नगरीय विकास संकेन्द्रीय था, औपनिवेशिक युग में यह खण्डीय हो गया तथा 1900 के बाद अर्थात् नगरीय विस्फोट के बाद बहुनाभिक हो गया है।
मान्यताएँ :
गैरिसन का मत है कि नगरों के विकास में संकेन्द्रीय वलय प्रतिरूप खण्ड प्रतिरूप और बहुनाभिक प्रतिरूप तीनों एक दूसरे से नितान्त पृथक नहीं होते हैं बल्कि प्रत्येक मॉडल में शेष दो मंडलों का रूप भी कुछ-न-कुछ अंशों में देखने को मिलता है। इस प्रकार कोई भी एक नगर तीनों प्रकार का मिश्रित प्रतिरूप रखता है तथा उसमें उद्योगों और रिहाइशी केन्द्रों के पृथक-पृथक सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी खण्ड स्थापित हो जाते हैं।
आलोचना:-
(1) यह सिद्धान्त पूर्व के तीन सिद्धान्तों की उपयोगिता को लागू करते हैं।
(2) इसका संरचनात्मक स्वरूप जनसंख्या दबाव का परिणाम है। इससे स्पष्ट है कि अगर ये दबाव न होते तो इस प्रकार की संरचना का निकास नहीं हो।
(3) यह सिद्धांत नगर के अनियोजित चरित्र को स्पष्ट करता है। इसमें विकास की वैज्ञानिकता का अभाव है।
(4) यह छोटे नगरों की संरचना को स्पष्ट नहीं करता है फिर भी विकासशील देशों के महानगरों की आन्तरिक संरचना की अत्यंत ही उपयोगी व्याख्या करता जवत (करांची आदि शहरों के लिए अत्यंत ही उपयोगी व्याख्या करता है।
निष्कर्ष:-
ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि कोई भी सिद्धांत पूर्णरूप से मान्यता नहीं रखता है। प्रत्येक सिद्धांतो की कुछ सीमाएं हैं तथा प्रत्येक सिद्धांत कुछ विशेष परिस्थितियों में ही उपयोगी प्रतीत होता है। वस्तुतः सभी सिद्धान्तों के अनुरूप उदाहरण मिलते है। यही कारण है कि नगरों की आन्तरिक संरचना के लिए कोई भी सर्वमान्य सिद्धान्त विकसित नहीं जा सकता है फिर भी विकसित देशों के नियोजित नगरों पर प्रथम दो सिद्धांत बहुत हद तक लागू होते है। विकसित देशों के महानगरों पर तीसरे सिद्धांत की भी उपयोगिता है जबकि विकासशील देशों के महानगरों में चौथे सिद्धांत की उपयोगिता प्रतीत होती है।
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