5. Isostasy / भूसंतुलन /समस्थिति
5. Isostasy
भूसंतुलन /समस्थिति
भूसंतुलन भूगोल की एक ऐसी संकल्पना है जो भूपटल के विभिन्न स्तंभों के मध्य पाये जाने वाले संतुलन को व्याख्या करता है। भूसंतुलन का सामान्य अर्थ “परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी के ऊपर उभरे हुये क्षेत्र (जैसे-पर्वत, पठार, मैदान) एवं नीचे स्थित क्षेत्रों (सागर, झील) में भौतिक एवं यांत्रिक स्थिरता भूसंतुलन कहलाता है।”
भूसंतुलन आंग्ल भाषा में ‘Isostasy या Equilibrium’ कहलाता है। Isostasy शब्द ग्रीक भाषा के Isostasius से बना है जिसका तात्पर्य समस्थिति होता है। आइसोस्टैसी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1889 ई० में अमेरिकी भूवैज्ञानिक C.F. डटन ने किया था। इन्होंने कहा था कि समस्थिति के कारण ही पर्वत, पठार, मैदान और समुद्र साथ-साथ स्थित है। बहिर्जात बल पर्वतों से मिट्टी काट-काट कर समुद्र एवं मैदान में निक्षेपित करते रहते हैं। इसीलिए मैदान एवं समुद्र तली का भार अधिक तथा पर्वतों के भार कम होते है। भार में कमी या अधिकता के कारण भूगर्भ के भूपटल पर दबाव समान रूप से नहीं पड़ता है। समस्थिति इसी दबाव के विभिन्नता को संतुलन बनाये रखने में मदद करता है।
डटन ने बताया कि जिस रेखा के सहारे भूपटलीय संतुलन कायम रहता है उसे ‘समदबाव तल’ (Level of Uniform Pressure) अथवा ‘समतोल तल’ (Isotatic Level) या ‘क्षतिपूर्ति तल’ (Level of Compensation) कहते है।
ऑर्थर होम्स महोदय ने भूसंतुलन की व्याख्या करते हुए कहा है कि “संतुलन की वह दशा जो भूपटल पर विभिन्न ऊँचाई वाले पर्वत, पठार, मैदान अथवा सागरीय नितल के मध्य पायी जाती है, भूसंतुलन कहलाता है।”
भूसंतुलन सिद्धांत का बुनियाद
भूकम्पीय तरंगो के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि पृथ्वी के विभिन्न भागों के घनत्व भिन्न-भिन्न है। इनकी पुष्टि भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा भी किया गया है। 1859 ई० में गंगा सिंधु मैदान के मध्य में अक्षांश ज्ञात करते समय दो विधियों को प्रयोग में लाया गया:-
(l) साहुल विधि
(ll) त्रिभुजीकरण विधि
यह अक्षांशीय मापन का कार्य कल्याण एवं कल्याणपुर नामक स्थान पर किया जा रहा था। इन दोनों स्थानों पर उपरोक्त दोनों विधियों द्वारा आये परिणाम में भारी अंतर था। यह अंतर 5.236 सेकंड बताया गया। इस अंतर का कारण बताते हुए विद्वानों ने बताया कि साहुल को हिमालय पर्वत अपनी ओर आकर्षित कर रही है लेकिन पुनः यह प्रश्न उठाया गया कि अगर हिमालय साहुल को अपनी ओर आकर्षित कर रही है तो हिमालय जितना विशाल है उस दृष्टि से आकर्षण और अधिक होना चाहिए तथा अंतर 15 सेकेंड से भी अधिक होना चाहिए। कालांतर में इसी जटिल तथ्यों की व्याख्या भूसंतुलन से करने का प्रयास किया गया। बताया गया कि हिमालय के नीचे स्थित चट्टानों के घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से भी कम है। जबकि समुद्र नितल का घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से अधिक है। यही कारण है कि दोनों के बीच संतुलन की स्थिति कायम है। भूसंतुलन को स्पष्ट करने हेतु अनेक मत प्रतिपादित किये गये है:-
(1) एयरी का मत
(2) प्रौट का मत
(3) हिस्कानेन का मत
(4) जौली का मत
(1) एयरी का मत
1859 ई० में एयरी ने अपना मत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार “भूपटल के प्रत्येक स्तम्भ का घनत्व समान है, जो भाग जितना ऊँचा है वह उसी अनुपात में भूगर्भ में घुसा हुआ है। अर्थात जो भाग अधिक ऊंचा है उसका अधिक भाग और जो भाग कम ऊँचा है उसका कम ही भाग भूगर्भ में घुसा हुआ है।”
एयरी महोदय ने पृथ्वी के विभिन्न भू-स्तंभों की तुलना जल में तैरते हुए हिमशीलाखंडों से किया है। उन्होंने अपने मत का व्याख्या करने हेतु आर्कमिडीज के सिद्धान्तों का सहारा लिया है। अर्कमिडीज के अनुसार “कोई भी तैरती हुई वस्तु अपनी मात्रा के समतुल्य द्रव्य को नीचे से हटा देती है”। हिम के संबंध में कहा कि “हिम जब पानी के ऊपर तैर रहा होता है तो उसका 1/9 भाग जल के ऊपर तथा शेष 8/9 भाग जल में डूबा रहता है।”
धरातल के प्रत्येक भाग के लिए उसका 8 गुणा भाग धरातल के नीचे धंसा रहता है। इसे सिद्ध करने के लिए एयरी ने एक प्रयोग के माध्यम से प्रदर्शित किया है। एयरी ने भूपटल के विभिन्न भागों की तुलना लौह धातु के छोटे-बड़े टुकड़ों से किया है। उन्होंने बताया कि जब लोहे के विभिन्न ऊँचाई वाले टुकड़े को द्रव में डुबोया जाता है तो जिस लोहे के टुकड़े की ऊँचाई अधिक होता है उसका उतना अधिक भाग द्रव में डूबा रहता है और जो लोहा का टुकड़ा कम ऊँचा रहता है उसका उतना ही कम भाग द्रव में डूबा रहता है।
आलोचना
अगर एयरी के मत को सही मान लिया जाय तो इनके अनुसार जो भाग जितना ऊँचा होगा उसका उतना ही भाग धरातल के अंदर घुसा हुआ होगा। जैसे -अगर हिमालय की ऊँचाई को आधार बनाया जाय तो 2 लाख 70 हजार फीट गहरा जड़ होना चाहिए लेकिन दूसरी ओर यह भी ज्ञात है कि धरातल के नीचे जाने पर प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1°C तापमान बढ़ जाती है। इस प्रकार हिमालय की इतनी गहरी जड़ धरातल के अंदर अति उच्च तापमान के कारण यथावत नहीं रह सकती। अतः इनका विचार भ्रामक है।
एयरी के मत का दूसरा आलोचना यह है कि पृथ्वी के सभी भू-स्तंभों का औसत घनत्व एक समान है जबकि भूकम्पीय तरंगो के अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि पृथ्वी के विभिन्न स्तम्भों का घनत्व अलग-अलग है।
निष्कर्ष:–
एयरी के द्वारा भूसंतुलन के दिशा में किया गया यह प्रथम प्रयास था। उनके मत को “Uniform Density with Varying Depthness” (एक समान घनत्व के साथ बदलता हुआ गहराई) नामक सिद्धांत से भी जानते है। दूसरी एयरी के मत से यह भी स्पष्ट हुआ कि पहाड़ों के जड़ें होते है। इस तरह एयरी के विचार में कुछ खामियों के बावजूद विशेष महत्व रखता है।
प्रौट के मत
प्रौट महोदय ने अपना विचार Royan Geography of Landform (1859 ई०) में प्रस्तुत किया था। उन्होंने कल्याण एवं कल्याणपुर के बीच साहुल एवं त्रिभुजीकरण विधि से किये गए मापन के परिणाम में आये अंतर के संबंध में विचार प्रकट करते हुए कहा कि पृथ्वी के सभी भू-स्तंभो का घनत्व एक समान नहीं है बल्कि अलग-अलग है। जैसे- पर्वतीय चट्टानों के घनत्व पठारी चट्टानों के घनत्व से कम है। पठारी चट्टानों का घनत्व मैदानी चट्टानों के घनत्व से कम है और मैदानी चट्टानों के घनत्व समुद्री भूपटल के घनत्व से कम है।
प्रौट महोदय ने बताया कि पृथ्वी का सभी भू-स्तंभ एक क्षतिपूर्ति रेखा के सहारे एक-दूसरे के परिपेक्ष्य में संतुलित है। उन्होंने ऊँचाई और घनत्व के बीच व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध बताया अर्थात पृथ्वी के ऊपर स्थित भू-स्तंभ का घनत्व भले ही अलग-अलग हो लेकिन सभी भू-स्तंभ एक समान गहराई के साथ भूपृष्ठ में धँसे हुए है। इसे स्पष्ट करने के लिए उन्होंने निम्नलिखित प्रयोग के माध्यम से पुष्टि करने का प्रयास किया है:-
प्रौट अपने मत (Varying Density With Uniform Depth) को उपरोक्त चित्र के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि पृथ्वी के विभिन्न भू-स्तंभ के घनत्व अलग-अलग है और चित्रानुसार ही एक क्षतिपूर्ति रेखा के सहारे सभी भू-स्तंभ संतुलित है।
आलोचना
बहुत से विद्वानों ने प्रौट के विचारों का आलोचना करते हुए कहा कि इनका मत एयरी के मत का ही संशोधित रूप है। कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि भूपटल के विभिन्न भू-स्तंभ उस तरह से नहीं है जैसा कि विभिन्न धातुओं का उदाहरण देकर प्रौट ने बताया है। फिर भी इन आलोचनाओं के बावजूद क्षतिपूर्ति रेखा और विभिन्न घनत्व के निर्मित भू-स्तंभ भूसंतुलन संकल्पना की सराहनीय कदम है।
हिस्कानेन का मत
1933 ई० में भूसंतुलन के संबंध में हिस्कानेन अपना अवधारणा प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने एयरी तथा प्रौट के विचारों को संगठित रूप से प्रदर्शित किया। हिस्कानेन ने बताया कि समुद्री भूपटल की चट्टानों का घनत्व ऊँचे उठे हुए भूभाग से अधिक होता है। इन्होंने यह भी अनुमान लगाया कि भूपटल के प्रत्येक स्तंभों में भी अलग-अलग गहराई पर घनत्व में परिवर्तन होता रहता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्तम्भों का घनत्व एवं उनकी लंबाई भी भिन्न-भिन्न होती है। इस अनुमान के आधार पर हिस्कानेन ने पुनः बताया कि अधिक घनत्व वाले भूस्तम्भ का लंबाई कम होगा और कम घनत्व वाले भूस्तम्भ की लंबाई अधिक होगी तथा भिन्न-भिन्न गहराई पर भूस्तम्भों का घनत्व भी भिन्न-भिन्न होगी। लेकिन एक भू-स्तम्भ के नीचे जाने पर घनत्व बढ़ता जाएगा।
इस तरह हिस्कानेन के मत से पर्वतों के जड़ की व्याख्या होती ही है साथ ही भू-स्तम्भों के विभिन्न भागों में घनत्व की विभिन्नता का भी समाधान प्रस्तुत करता है।
जौली का मत
1925 ई०में जौली महोदय ने भूसंतुलन सिद्धान्त का प्रतिपादन कर यह स्पस्ट किया कि क्षतिपूर्ति तल की गहराई 100 KM है। जौली के अनुसार भूपटल के ऊपरी भाग का घनत्व 2.7 है। इसके नीचे 16 KM गहरी पट्टी है। जिसमें पदार्थों के घनत्व में विभिन्नता पायी जाती है। इसका कारण औसत घनत्व 3 है। इसी 16 KM पट्टी के ऊपर कम घनत्व के पदार्थ पाये जाते है जिस प्रकार बर्फ पानी में तैरता हुआ अपने वजन के बराबर पानी हटाता है। ठीक उसी प्रकार महाद्वीपीय एवं महासागरीय भूपटल सीमा के ऊपर तैर रहे है।
ये दोनों भूपटल अपने अपने वजन के अनुरूप भूपटल के नीचे स्थित सीमा के पदार्थों को विस्थापित करते है और एक-दूसरे के परिपेक्ष्य में संतुलित रहते है।
भूसंतुलन का सिद्धांत कुछ संदर्भों में सही प्रतीत होता है। लेकिन कुछ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं जो भूसंतुलन सिद्धात के आधार पर व्याख्या नहीं किया जाता है। ऐसे में इस सिद्धांत पर प्रश्न चिन्ह खड़े किए जाते है। फिर भी पृथ्वी के विभिन्न भू-स्तम्भों के मध्य पाया जाने वाला संतुलन का व्याख्या करने में यह सिद्धांत सक्षम है।
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