9. Volcano / ज्वालामुखी
9. Volcano / ज्वालामुखी
Volcano / ज्वालामुखी
क्रिया का तात्पर्य विभिन्न प्रकार के प्रक्रियाओं से है। ज्वालामुखी उदगार में निकलने वाला पदार्थ भुपटल के ऊपर निकलने का प्रयास करता है या निकल जाता है पुनः निकलकर अनेक प्रकार के स्थलाकृतियों को जन्म देता है। इस सम्पूर्ण परिघटना को ही ज्वालामुखी क्रिया (Volcanism) कहा जाता है।
ज्वालामुखी क्रिया शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वारसेस्टर महोदय ने किया था। उन्होनें ज्वालामुखी क्रिया को परिभाषित करते हुए कहा कि “ज्वालामुखी क्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है कि जिसमे गर्म पदार्थ की धरातल के तरफ या धरातल के ऊपर आने वाली सभी प्रक्रिया को शामिल किया जाता है।”
परिभाषा से स्पष्ट होता है कि ज्वालामुखी क्रिया दो प्रकार का होता है। प्रथम आन्तरिक ज्वालामुखी की क्रिया दूसरा बाह्य ज्वालामुखी की क्रिया।
★ आन्तरिक ज्वालामुखी क्रिया में गर्म पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर धरातल के नीचे ही ठोस होने की प्रवृत्ति रखता है जबकि बाह्य ज्वालामुखी क्रिया में गर्म पदार्थ धरातल के ऊपर प्रकट होकर अनेक स्थलाकृतियां को जन्म देता है। इस तरह स्पष्ट होता है कि ज्वालामुखी क्रिया एक व्यापक शब्द है जिसमे अनेक क्रियाएं शामिल है।
★ ज्वालामुखी क्रिया में निकलने वाला पदार्थ- ज्वालामुखी उदगार के दौरान निकलने वाला पदार्थ को तीन श्रेणी में विभाजित करते है:-
• गैस तथा जलवाष्प
• विखण्डित पदार्थ
• लावा पदार्थ
सर्वप्रथम जब ज्वालामुखी का उदगार होता है तो गैस एवं जलवाष्प धरातल को तोड़कर सबसे पहले तेजी से बाहर निकलते है। इसमें जलवाष्प की मात्रा सर्वाधिक होती है। सम्पूर्ण गैस का 60 से 90 प्रतिशत भाग जलवाष्प का होता है। वाष्प के अलावा कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड, जैसे गैस भी मौजूद रहते है।
विखण्डित पदार्थ में बारीक धूलकण से लेकर बड़े बड़े चट्टानी टुकड़ों को शामिल किया जाता है । इसका मुख्य स्रोत भूपटलीय चट्टान होता है। जब गैस निलकना मंद पड़ता है तो ये विखण्डित चट्टाने धरातल पर पुनः वापस आने लगते है जिससे ऐसा लगता है कि अकाश से बम्ब बरसाए जा रहे है।
ज्वालामुखी उदगार के दौरान अकाश से नीचे गिरने वाले बड़े-बड़े चट्टानी टुकड़ों को “ज्वालामुखी बम्ब” कहा जाता है। इसका व्यास कुछ इंच से लेकर कुछ फ़ीट तक होता है। जब विखण्डित चट्टानों के आकार मटर के दाना या अखरोट के आकार का होता है तो उसे ‘लैपिली’ कहते है। और जब विखण्डित चट्टानों के आकार अत्यंत बारीक होता है तो उसे ज्वालामुखी राख एवं धूलकण कहते है। जब ज्वालामुखी बम का आकार त्रिकोण के समान होता है तो उसे ब्रेसिया कहा जाता है।
ज्वालामुखी उद्गार के दौरान सबसे अंत में लावा या मैग्मा पदार्थ बाहर निकलता है। लावा पदार्थ का स्रोत दुर्बलमण्डल में मिलने वाला मैग्मा चैम्बर या ‘बेनी ऑफ जोन’ होता है। ये लावा दो प्रकार के होते है। प्रथम अम्लीय लावा द्वितीय क्षारीय लावा। अम्लीय लावा का रंग पीला भार में हल्का लेकिन गाढ़ा होता है। अर्थात इसमें सिलिका की मात्रा अधिक होती है। जिसके कारण अति उच्च तापमान पर पिघलता है।
क्षारीय लावा का रंग गहरा तथा काला होता है। सिलिका की मात्रा कम होने के कारण शीघ्र पिघलने की क्षमता रखता है यह पतला और शीघ्र जमकर ठोस रूप धारण करने वाला होता है।
जब लावा पदार्थ पानी के अंदर जमकर ठोस हो जाता है तो उसे ‘टफ(Tuff)’ कहते है और जब धरातल के ऊपर लावा पदार्थ का आकर ठोस होता है तथा उसमें छोटा छिद्र हो जाता है तो उसे ‘प्यूमिस(Pumiss)’ कहते है।
ज्वालामुखी उदगार के कारण
ज्वालामुखी उदगार के चार कारण है–
1) भूगर्भ में ताप का अधिक होना,
2) अत्यधिक ताप तथा दबाव के कारण लावा की उत्पति
3) गैस तथा वाष्प की उत्पति,
4) लावा पदार्थ का ऊपर की ओर आना।
1. भूगर्भ में ताप की वृद्धि– भूपटल के नीचे की ओर जाने पर प्रति 32 मीटर पर 1℃ तापमान बढ़ जाता है । इस प्रकार पृथ्वी के आन्तरिक भाग का तापमान अत्यधिक होना चाहिए। तापमान के बढ़ोतरी पृथ्वी के आन्तरिक भागों में रेडियोसक्रिय पदार्थों के उपस्थिति को बतलाया जाता है।
पृथ्वी के अंदर तापमान बढ़ने से चट्टानें पिघल जाती है और पिघलकर हल्की हो जाती है। यही पिघला हुआ पदार्थ धरातल को तोड़कर बाहर निकलता है या भूपटल के नीचे ही ठंडा हो जाता है तो ज्वालामुखी उत्पन्न होता है।2. अत्यधिक ताप एवं दबाव के कारण लावा की उत्पति– पृथ्वी धरातल से ज्यों-ज्यों पृथ्वी के केन्द्र की ओर जाते है त्यों-त्यों पृथ्वी के दबाव में बढ़ोतरी होती जाती है । ज्यों-ज्यों दबाव बढ़ता है त्यों-त्यों तापमान में बढ़ोतरी होती जाती है । इसी तापमान की बढ़ोतरी से चट्टानें पिघलकर मैग्मा पदार्थ का निर्माण करती है। यह मैग्मा पदार्थ जब अपने स्रोत क्षेत्र से बाहर आने का प्रयास करता है तो ज्वालामुखी का उदगार होता है।
3. गैस तथा वाष्प की उत्पति– ज्वालामुखी उदगार के समय कई तरह की गैस एवं जलवाष्प निकलती है। ज्वालामुखी गैसों की उत्पति के विषय में उनेेेक मत प्रचलित है। जैसे-जब भूमिगत जल रिसकर पृथ्वी के दुर्बलमण्डल में पहुंच जाते है तो अत्यधिक ताप के कारण बड़े पैमाने पर गैस तथा जलवाष्प निर्माण होता है।
दूसरे मत के अनुसार वर्षा जल जब संरोधी चट्टानों के सहारे धरातल के अंदर पहुंचते है तो भी बड़े पैमाने पर गैस एवं जलवाष्प का निर्माण होता है । भूपटल के नीचे निर्मित ये जलवाष्प एवं गैस ही भूकम्पीय उदगार को जन्म देते है।
4. लावा पदार्थ का ऊपर की ओर अग्रसर होना– पृथ्वी के अंदर स्थित दुर्बलमण्डल में मैग्मा पदार्थ स्थायी रूप से मौजूद है। दुर्बलमण्डल के चारों ओर स्थलमण्डल अवस्थित है। जब स्थलमण्डल में पर्वत निर्माणकारी भूसंचलन या भूकंप या किसी कारण वश स्थलमण्डल कमजोर पड़ता है तो स्वत: मैग्मा पदार्थ धरातल से बाहर निकलने का प्रयास करते है और ज्वालामुखी उदगार को जन्म देते है।
★प्लेटविवर्तनिकी सिद्धान्त ज्वालामुखी उदगार की व्याख्या करने वाला सबसे सटीक संकल्पना है। इस संकल्पना के अनुसार पृथ्वी अनेक प्लेटों से निर्मित है।
★ये प्लेट संवहन तरंगों के कारण हमेशा गतिशील रहते है। इन प्लेटों में तीन प्रकार के सीमा का निर्माण होता है :-
I. निर्माणकारी सीमा या अपसरण सीमा
II. विनाशकारी या अभिसरण सीमा
III. संरक्षी सीमा
ज्वालामुखी वितरण के माध्यम से स्पष्ट हुआ कि विश्व के अधिकांश ज्वालामुखी के प्रमाण इन्हीं सीमाओं के सहारे मिलते है। अपसरण सीमा में उठते हुए संवहन तरंग के कारण दो प्लेटें एक दूसरे से दूर खिसकती है जिससे लम्बे दरार का निर्माण होता है। इन दरारों से मैग्मा चैंबर का लावा पदार्थ बाहर निकलता है और ज्वालामुखी उदगार को जन्म देता है। मध्य अटलांटिक कटक के सहारे इसी प्रक्रिया से ज्वालामुखी का उदगार हो रहा है।
विनाशात्मक सीमा का निर्माण नीचे गिरते हुए संवहन तरंगों के कारण होता है । प्रशान्त महासागर के चारों ओर इस प्रकार का सीमा का निर्माण हुआ है । विनाशात्मक सीमा के सहारे अधिक घनत्व वाले महासागरीय प्लेट कम घनत्व वाले महाद्विपीय प्लेट के अंदर प्रविष्ट करने की प्रवृति रखते है।
महासागरीय प्लेट का नीचे की ओर प्रक्षेपित भाग पिघलकर “बेनी ऑफ जोन” का निर्माण करते है । बेनी ऑफ जोन का ही मैग्मा पदार्थ धरातल से ऊपर आकर ज्वालामुखी उदगार को जन्म देता है।
कभी-कभी संरक्षी सीमा के सहारे भी ज्वालामुखी का उदगार होता है जैसे जापान के होंशुद्वीप के सहारे दो महासागरीय प्लेट आपस में रगड़ खा रहे है। एक प्लेट जापान सागर प्लेट कहलाता है तो दूसरा प्लेट प्रशान्त महासागरीय प्लेट कहलाता है।
प्रशान्त महासागरीय प्लेट का सापेक्षिक घनत्व अधिक होने के कारण जापान सागर प्लेट के नीचे प्रक्षेपित हो गया है। और होन्शु द्वीप के नीचे ‘बेनी ऑफ जोन’ का निर्माण कर लिया।
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★ यहां जापान सागर प्लेट स्थिर है जबकि प्रशांत प्लेट ही गतिशील है।
★ इस तरह ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि प्लेट टेक्टोनिक संकल्पना ज्वालामुखी उदगार का व्याख्या करने वाला सबसे सटीक मत है।
ज्वालामुखी क्रिया का प्रकार
ज्वालामुखी क्रिया दो प्रकार का होता है।
A. केंद्रीय उदगार वाले ज्वालामुखी क्रिया :-
इस प्रकार के उदगार में भूपटल में एक सँकरा छिद्र का निर्माण होता है और इन्ही छिद्रों के सहारे ज्वालामुखी पदार्थ बाहर की ओर निकलते है । मुख का व्यास कुछ 100 फीट से अधिक नहीं होता है।
मुख का आकार लगभग गोल होता है। जिससे गैस, लावा एवं विखण्डित पदार्थ अत्यधिक भयंकर विस्फोट के साथ बाहर निकलते हैं तथा आकाश में काफी ऊँचाई तक पहुंच जाते हैं। ऐसे उदगार को ही केंद्रीय ज्वालामुखी उदगार कहते है। इस प्रकार का उदगार काफी विनाशकारी होता है। उदगार के समय भयंकर भूकम्प आती है। केन्द्रीय ज्वालामुखी उदगार को भी चार भागों में बांटा गया है:-
1. हवाईतुल्य ज्वालामुखी उदगार
2. स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी उदगार
3. वोल्केनियन तुल्य ज्वालामुखी उदगार
4. पिलियन तुल्य या विसुवियस ज्वालामुखी उदगार
1. हवाई तुल्य ज्वालामुखी उद्गार-
इस प्रकार का ज्वालामुखी का उद्गार काफी शांत तरीके से होता है। क्योंकि इसमें निकलने वाला मैग्मा पदार्थ काफी पतला तथा गैसों की मात्रा कम होती है। इस कारण विस्फोट तीव्र नहीं होता है । इसमें निकलने वाला विखण्डित पदार्थ नगण्य होता है।
उद्गार के समय लावा के छोटे-छोटे लाल पिंड गैसों के साथ ऊपर उछाल दिए जाते है जिसे हवाई द्वीप के निवासी “अग्नि देवी पिलीकेश राशि” कहते है। इस तरह का उद्गार खासकर हवाई द्वीप पर देखने को मिलता है इसीलिए इसे हवाईयन प्रकार का ज्वालामुखी कहते है।
2. स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी उद्गार– हवाईयन के तुलना में ये ज्यादा विस्फोटक होता है। तरल लावा पदार्थ एवं अन्य विखण्डित पदार्थ उसके तुलना में अधिक निकलते है। उदगार के समय यह विखण्डित पदार्थ काफी ऊँचाई पर चले जाते है और जाकर पुनः क्रेटरमें गिरते रहते है। इस प्रकार का उदगार इटली के लिपारी द्वीप पर स्थित स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी में पाया जाता है। इसीलिए इसे स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी उदगार कहते है।
3. वोल्केनियन ज्वालामुखी उदगार– इस प्रकार का उदगार काफी भयंकर एवं विस्फोटक होता है। इससे निकलने वाला लावा काफी चिपचिपा एवं लसदार होता है। जिसके कारण दो उदगार के बीच यह ज्वालामुखी छिद्र पर जमकर ढक देता है। जिसके कारण ज्वालामुखी नली में बड़ी मात्रा में गैस एवं जलवाष्प जमा हो जाते है जब विस्फोट होता है तो काफी तीव्रता के साथ बाहर निकलते है। ये गैस बाहर निकलने के बाद आसमान में फूलगोभी के समान दल का निर्माण करते है। इसका नामाकरण लीपारी द्वीप पर स्थित वोल्केनो पर्वत के नाम पर किया गया है।
4. पीलियन तुल्य ज्वालामुखी उदगार- यह उदगार सबसे अधिक विस्फोटक एवं भयंकर होता है । इसमें निकलने वाला लावा सबसे अधिक चिपचिपा एवं लसदार होता है। विस्फोट के समय काफी तीव्रता से आवाज उत्पन्न होता है।
8 May,1902 ई० को वेस्टइंडीज में स्थित पिल्ली ज्वालामुखी के भयंकर विस्फोट के आधार पर इसे पीलियन ज्वालामुखी उदगार कहते है। 1883 में हुआ क्राकातोआ विस्फोट (जावा और सुमात्रा द्वीप के बीच में) पीलीयन प्रकार का विस्फोट था। यह अब तक का सबसे भयंकर ज्वालामुखी विस्फोट का उदाहरण है।
कुछ विद्वान विसुवियस तुल्य ज्वालामुखी उदगार का भी उल्लेख कहते है। इस प्रकार के उदगार का पहला अध्ययन पिलनी(इटली) ने किया था। इसलिए इसे पिलनियन प्रकार का ज्वालामुखी उद्गार भी कहते थे। यह भी काफी विस्फोटक होता है। लेकिन इसमें लावा पदार्थ काफी ऊँचाई तक पहुंच जाते है। और ज्वालामुखी बादल का आकार गोलाकार हो जाता है।
![Volcano](https://1.bp.blogspot.com/-O61rMSrH-Q4/YM35wLDaDPI/AAAAAAAAFuM/MTJLf7NLEpcSqKRkRDZzR1LDyLb2t7iwwCLcBGAsYHQ/s16000/IMG_20210619_192346.jpg)
(B) दरारी उदभेदन वाले ज्वालामुखी– जब ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान गैस की मात्रा कम और लावा की मात्रा अधिक होती है तो भूपटल में दरार का विकास होता है। और उससे लावा निकलकर ठोस होने की प्रवित्ति रखती है। निकलने वाला लावा प्रायः क्षारीय (Basic) प्रकार का होता है। कोलम्बिया का पठार (USA), दक्कन का पठार दरारी उदगार के प्रमुख उदाहरण है।
ज्वालामुखी स्थलाकृति
ज्वालामुखी क्रिया से मुख्यत: दो प्रकार के स्थलाकृति का निर्माण होता है।
1. आन्तरिक ज्वालामुखी स्थलाकृति और
2. बाह्य ज्वालामुखी स्थलाकृति।
1. आन्तरिक ज्वालामुखी स्थलाकृति- जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर भूपटल के नीचे ही ठंडा होने की प्रवृति रखता है, तब उससे आन्तरिक ज्वालामुखी स्थलाकृति का निर्माण होता है। जैसे–
जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर लम्बत ठोस होता है तो डाइक, क्षैतिज ठोस होता है तो सिल, जब उत्तल दर्पण के समान ठोस होता है तो लैकोलिथ, जब अवतल दर्पण के समान ठोस होता है तो लोपोलिथ, जब तरंग के समान ठोस होता है तो फैकोलिथ स्थलाकृति का निर्माण होता है।
इसी तरह जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर एक गुम्बद के समान ठोस हो जाते है तो उससे बैथोलिथ का निर्माण होता है।
2. बाह्य स्थलाकृति– जब गर्म पदार्थ भूपटल को तोड़कर बाहर निकलती है तो निम्नलिखित स्थलाकृति का निर्माण करते है:-
I. क्रैटर एवं कोल्डेरा- वैसा ज्वालामुखी छिद्र जिसका व्यास कम हो तथा समय-समय पर लावा निकलता रहता हो उसे क्रैटर कहते है, लेकिन जिस ज्वालामुखी के छिद्र का व्यास बहुत अधिक हो तथा लावा निकलना बंद हो गया हो तो उसे कोल्डेरा कहते है।
अमेरिका का ओरेगन झील और भारत का लुनार झील क्रैटर का उदाहरण है जबकि किलिमंजारो पर्वत के ऊपर तथा भारत के पुष्कर झील कोल्डेरा का उदाहरण है।
II. सोल्फतारा और धुँआरा– जब ज्वालामुखी उदगार के बाद लावा निकलना बन्द हो जाता है तो लम्बे समय तक गैस एवं जलवाष्प निकलते रहते है तो उसे धुँआरा कहते है लेकिन जिस धुँआरे में गंधक की मात्रा अधिक होती है तो उसे सोल्फतारा कहते है।
अलास्का के कटमई ज्वालामुखी के पास 10000 (दस हजार) धुँआरों की घाटी, न्यूजीलैण्ड के प्लेनेटी के खाड़ी में व्हाइट टापू का धुँआरा, ईरान में कोह सुल्तान का धुँआरा का विकास हुआ है।
III. गीजर– यह एक ऐसी ज्वालामुखी स्थलाकृति है जिसमें भिन्न-भिन्न समयांतराल पर गर्म जलवाष्प फव्वारे के रूप में बाहर निकलते है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण USA के वायोमिंग राज्य में स्थित ओल्डफेथफुल गीजर है । इसी तरह आइसलैंड के द ग्रेट गीसिर और न्यूजीलैंड के वायमान्यू गीजर प्रसिद्ध है।
IV. गर्म जल के सोते– यह एक ऐसी ज्वालामुखीय स्थलाकृति है, जिसके मुख से गर्म पानी बाहर निकलता रहता है। जैसे- राजगीर का सूर्य कुंड, नानक कुंड, हजारीबाग का सूर्य कुंड, सीताकुंड और मुंगेर का सीताकुंड प्रसिद्व है।
V. ज्वालामुखी पठार एवं मैदान– दरारी ज्वालामुखी उदगार के समय पर्याप्त मात्रा में क्षारीय लावा धरातल पर प्रकट होकर ठंडा हो जाते है और पठार जैसी स्थलाकृति का निर्माण करते है । भारत का दक्कन का पठार, USA का कोलम्बिया का पठार, इथोपिया का पठार और अनातोलिया का पठार इसका उदाहरण है।
VI. ज्वालामुखी पर्वत– जब केंद्रीय ज्वालामुखी उदगार होती है तो उससे पर्याप्त मात्रा में अम्लीय लावा बाहर की ओर निकलती है जो काफी गाढ़ा होता है। इनके जमाव से निर्मित पर्वतीय स्थलाकृति को ज्वालामुखी पर्वत कहते है। ज्वालामुखी पर्वत तीन प्रकार का होता है।
1. सक्रीय/जीवित ज्वालामुखी पर्वत-
वैसा ज्वालामुखी पर्वत जिसके क्रेटर से वर्त्तमान समय में भी मलवा बाहर निकल रहा हो। विश्व में कुल 500 जीवित ज्वालामुखी पर्वत है। जैसे– इटली का एटना, स्ट्रोम्बोली इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। “स्ट्रोम्बोली को भूमध्यसागर का प्रकाश स्तम्भ” कहते है।
2. शांत ज्वालामुखी पर्वत-
जब ज्वालामुखी का उदगार पूर्णतया समाप्त हो गया हो या भविष्य में भी उदगार की कोई संभावना न हो, उसे शांत या मृत ज्वालामुखी कहते है। जैसे– इरान का कोह-सुल्तान, म्यंनमार का माउंट पोपो मृत ज्वालामुखी के उदाहरण है।
3. प्रसुप्त ज्वालामुखी पर्वत-
वैसा ज्वालामुखी पर्वत जिनके क्रेटर से वर्तमान समय में लावा का उत्सर्जन नहीं हो रहा हो लेकिन भविष्य में लावा का उत्सर्जन की पूरी संभावना हो, उसे प्रसुप्त ज्वालामुखी पर्वत कहते है। जैसे- इटली का विसुवियस, जावा व सुमात्रा के मध्य क्राकाटोवा, इक्वेडोर का चिम्बरजों और चिली का एकांकागुआ इत्यादि।
VII. शंकु– केन्द्रीय ज्वालामुखी उदगार के दौरान निकले विखण्डित पदार्थों के निक्षेपण से शंकु का निर्माण होता है। शंकु कई प्रकार का होता है। जैसे:-
1. सिंडर शंकु
जैसे – म्यांमार का प्यूमा शंकु
2. मिश्रित शंकु
![Volcano](https://1.bp.blogspot.com/-XEDMyjwq-uQ/YM37NUPRZbI/AAAAAAAAFuo/sQMPQ1buaQEegNQLHa51SkL_E5UJcpJzgCLcBGAsYHQ/s16000/IMG_20210619_192239.jpg)
जैसे- जापान का फ्यूजियामा
3. सैटेलाइट शंकु
![सैटेलाइट शंकु Volcano](https://1.bp.blogspot.com/-f82QxlmiRW8/YM37mP_CTII/AAAAAAAAFuw/FSp-BzUjVAsKfhaqp2fUDTdNMZc1J315wCLcBGAsYHQ/s16000/IMG_20210619_192155.jpg)
विश्व में ज्वालामुखी का वितरण
विश्व में ज्वालामुखी वितरण का एक निश्चित क्रम है जिसे नीचे की शीर्षक में चर्चा की जा रही है।
1. परिप्रशान्त मेखला के सहारे मिलने वाला ज्वालामुखी–
यह मेखला प्रशांत महासागर के सहारे चारों ओर स्थित है, इसे “प्रशांत अग्निवलय” के नाम से भी जानते है। विश्व में सर्वाधिक ज्वालामुखी इसी क्षेत्र में मिलते है। जैसे जापान का फ्यूजियामा, फिलीपींस का माउंट टाल, USA का माउंट सस्ता, इक्वेडोर का कोटोपैक्सी और चिम्बरजो, अर्जेंटीना का एकांकागुआ, कनाडा का माउंट रेनजल इत्यादि।
विश्व के अधिकांश ऊँचे ज्वालामुखी पर्वत एवं चोटियाँ इसी मेखला के सहारे मिलती है।
2. मध्य महाद्विपीय पेटी:-
इस पेटी का विस्तार पूर्व में प्रशांत महासागर से लेकर पश्चिम में अटलांटिक महासागर के केनारी द्वीप तक हुआ है। यह हिमालय और आल्पस पर्वत से होकर गुजरती है। यह प्लेट अभिसरण का क्षेत्र है। हिमालय क्षेत्र में बाहरी ज्वालामुखी का प्रमाण मिलने की पूरी-पूरी संभावना है। जबकि इसी पेटी में स्थित भूमध्यसागरीय क्षेत्र में अनेक जीवित एवं प्रसुप्त ज्वालामुखी का प्रमाण मिलता है। जैसे- इटली का विसुवियस, स्ट्राम्बोली, एटना, एल्बुर्ज, ईरान का कोह-सुल्तान इत्यादि।
3. मध्य अटलांटिक कटक पेटी:
यह पेटी अटलांटिक महासागर के मध्य भाग में उत्तर से दक्षिण दिशा से होकर गुजरती है। यह प्लेट अपसरण का क्षेत्र है। यहाँ पर लम्बे दरार का निर्माण हुआ है। जिससे बैसाल्टिक लावा बाहर निकलता है और ठंडा होकर मध्य अटलांटिक कटक को जन्म दिया है। जैसे- आइसलैंड का माउंट हेकला, माउंट लोकी, सक्रिय ज्वालामुखी है, जो मध्य अटलांटिक पेटी में ही पड़ते है।
4. अन्य क्षेत्र:-
विश्व के कई ऐसे छोटे-छोटे क्षेत्र है जहाँ पर ज्वालामुखी उदगार का प्रमाण मिलता है। जैसे- अफ्रीका के पूर्वी भाग में निर्मित महान भ्रंश घाटी के सहारे तंजानिया का किलिमंजारो, केन्या का माउंट केनिया पर्वत मिलते है। इसी तरह क्रिटैशियस काल में हुए लावा उदगार से दक्कन के पठार पर ज्वालामुखी का प्रमाण मिलता है तथा अंडमान एवं निकोबार में बैरन (सक्रिय) एवं नरकोंडम (प्रसुप्त) द्वीप ज्वालामुखी के ही उदहारण है।
अतः उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि विश्व के अधिकांश ज्वालामुखी के क्षेत्र प्लेट के किनारे पर अवस्थित है।
मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखी का प्रभाव:
मानवीय क्रियाकलापों को ज्वालामुखी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित करता है।
1. मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखी का सकारात्मक प्रभाव:
मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखियों के सकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं:-
⇒ ज्वालामुखी से बहुत सारे नए भू-आकृतियों का निर्माण होता है। जैसे- क्रेटर और काल्डेरा झीलें, लावा मैदान, गेसर, ज्वालामुखीय पठार और ज्वालामुखी पर्वत।
⇒ यह दुर्बलमंडल (Asthenosphere) से सतह पर सोना, लोहा, निकेल और मैग्नीशियम जैसे मूल्यवान तत्व को पृथ्वी के सतह पर लाता है। उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में जोहान्सबर्ग का सोना और कनाडा में सडबरी का निकेल निक्षेप ज्वालामुखी निक्षेपण के उदाहरण हैं।
⇒ आग्नेय शैल लावा के ठंडा होने के बाद बनता है, जिसका उपयोग निर्माण जैसी विभिन्न गतिविधियों के लिए किया जाता है।
⇒ ज्वालामुखी हमें उपजाऊ भूमि प्रदान करते हैं। ज्वालामुखी की धूल और राख का जमाव भूमि को उपजाऊ बनाता है। उदाहरण के लिए, दक्कन ट्रैप की काली मिट्टी और जावा द्वीपों की उपजाऊ भूमि ज्वालामुखी द्वारा बनाई गई है।
⇒ यह सुंदर दृश्य भी बनाता है और जिससे यह पर्यटकों को आकर्षित करता है।
⇒ यह पृथ्वी के आंतरिक भाग के बारे में भी बहुत सारी जानकारी प्रदान करता है।
⇒ यह टेक्टोनिक प्लेट सीमाओं और प्लेटों की गति की स्थिति के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
⇒ यह भूतापीय ऊर्जा का एक संभावित स्रोत भी है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, इटली और जापान जैसे कई देश भूतापीय ऊर्जा का उत्पादन कर रहे हैं।
2. मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखी का नकारात्मक प्रभाव:
मनुष्य पर ज्वालामुखी के नकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं:-
⇒ ज्वालामुखी की धूल और गैसें वातावरण को अपारदर्शी बना देती हैं जिससे वायु परिवहन मुश्किल हो जाता है, श्वसन रोग बढ़ जाता है और सूर्यातप को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से भी रोकता है अर्थात यह पृथ्वी को ठंण्डा करता है।
⇒ ज्वालामुखी विस्फोट के बाद क्षेत्र में लावा का जमाव होने से वहाँ की जमीन को सरंध्र बनाती है जिससे क्षेत्र में पानी की कमी हो जाती है।
⇒ ज्वालामुखियों के अचानक फटने से मानव बस्ती, मानव जीवन और उसकी संपत्ति को काफी नुकसान होता है। उदाहरण के लिए, माउंट वेसुवियस (जो एक ज्वालामुखी विस्फोट से बना है) ने 78 ई० में इटली में पोम्पेई शहर को नष्ट कर दिया।
⇒ जब समुद्र में ज्वालामुखियों का विस्फोट होता है तो यह आसपास के जल को गर्म कर देता है जिससे की वहाँ के जलीय जीवों पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
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- 16. पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृति/शुष्क स्थलाकृति/Arid Topography
- 17. कार्स्ट स्थलाकृति /Karst Topography
- 18. समुद्र तटीय स्थलाकृति/Coastal Topography
- 19. अनुप्रयुक्त भू-आकृति विज्ञान/Applied Geomorphology