32. Cyclone and Anticyclone
32. Cyclone and Anticyclone
चक्रवात (Cyclone)
चक्रवात को आँग्ल भाषा में Cyclone कहते है। “Cyclone” शब्द यूनानी भाषा से लिया गया है। जिसका शाब्दिक अर्थ है- सर्प की कुंडली। इस शब्द का प्रयोग जलवायु विज्ञान में प्रथम बार पिडिंगटन महोदय ने किया था।
चक्रवात उस वायुमण्डलीय परिस्थिति को कहते हैं जिसमें हवाएँ एक निम्न वायुदाब केन्द्र के चारों ओर घूमने की प्रवृत्ति रखती है। चक्रवात में ज्यों ही किसी स्थान पर निम्न वायुदाब केन्द्र का निर्माण होता है त्यों ही उच्च वायुदाब केन्द्र से हवाएँ निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर दौड़ने लगती है। उच्च वायुदाब केन्द्र से आने वाली हवाओं का मुख्य उद्देश्य निम्न वायुदाब केन्द्र को समाप्त करना होता है। लेकिन निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर दौड़ने वाली हवाएँ पृथ्वी की घूर्णन गति के प्रभाव में आकार उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई के विपरीत (Anticlock wise) और दक्षिण गोलार्द्ध में घड़ी की सुई की दिशा (Clock wise) में घुमने लगती हैं।
प्रतिचक्रवात (Anti Cyclone)
चक्रवात का उल्टा प्रतिचक्रवात होता है। प्रतिचक्रवात के केन्द्र में एक अपना वायुदाब केन्द्र का निर्माण होता और हवाएँ केन्द्र से बाहर की ओर निकलने की प्रवृति रखती है। उत्तरी गोलार्द्ध में प्रतिचक्रवात Clock wise और दक्षिणी गोलार्द्ध में Anticlock wise घुमने की प्रवृति रखती है।
चक्रवात और प्रतिचक्रवात में अंतर
1. चक्रवात की स्थिति में निम्न वायुदाब केन्द्र और प्रतिचक्रवात की स्थिति में उच्च वायुदाब केन्द्र का निर्माण होता है।
2. चक्रवात में हवा बाहर से केन्द्र की ओर आने की प्रवृत्ति रखती है जबकि प्रतिचक्रवात में केन्द्र से बाहर की ओर जाने की प्रवृत्ति रखती है।
3. चक्रवात की स्थिति में परिवर्तन के फलस्वरूप बादल, वर्षण एवं तेज हवाएं जैसी मौसमी परिस्थतियाँ उत्पन्न होती हैं। वहीं प्रतिचक्रवात की स्थिति में मौसम साफ होने की प्रवृति रखती है।
4. चक्रवात के केन्द्र में हवाएँ नीचे से ऊपर की ओर उठने की प्रवृति रखती है जबकि प्रतिचक्रवात में हवाएँ ऊपर से नीचे की ओर बैठने की प्रवृति रखती है।
5. जिस स्थान पर चक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होती है। ठीक उसके ऊपर प्रतिचक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होती है। अत: स्पष्ट है कि चक्रवात और प्रतिचक्रवात जलवायु विज्ञान की दो अलग-2 धारणाएँ है।
चक्रवात का वर्गीकरण
विशेषताओं एवं भौगोलिक स्थिति के आधार पर चक्रवात को दो भागों में बाँटते हैं:-
(1) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclone)
(2) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cylone)
1. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclone)-
पृथ्वी के दोनों गोलार्द्धों में 8º से 20° अक्षांशों के बीच या उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में किसी निम्न वायुदाब केन्द्र के चारों ओर तेज गति से घुमते हुए वायु से उत्पन्न मौसमी परिस्थितियों को उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं।
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात की विशेषताएँ
(1) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति तथा विकास सागरीय सतह से प्राय: प्रारंभ होती है। इसकी उत्पत्ति हेतु सागर एवं स्थल का मिलन बिन्दु आदर्श परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं।
(2) इसमें एक निम्न वायुदाब केन्द्र के चारों ओर हवाएँ घूमती है।
(3) इसमें वायु की औसत गति 100 Km/h होती है।
(4) इसमें समदाब रेखाएँ प्रायः गोलाकार होती है।
(5) इसमें दाब प्रवणता तीव्र होती है।
(6) चक्रवात की तीव्रता दाब प्रवणता पर निर्भर करती है। जब दाब प्रवणता कम होती है तो वायुमण्डलीय अवदाब का निर्माण होता है।
(7) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात का विस्तार अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र पर होता है।
(8) प्राय: उष्ण कटिबंधीय चक्रवात पूरब से पश्चिम दिशा की ओर गमन करता है।
(9) इसमें अति अल्प समय में तीव्र गति से एवं अधिक मात्रा में वर्षा होती है।
(10) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के केन्द्र को चक्रवात का आँख (चक्षु) कहा जाता है।
(11) यह शीत ऋतु की उपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में अधिक उत्पन्न होता है।
(12) चक्रवात में गर्म एवं आर्द्र हवाएँ ऊपर की ओर उठकर संघनन क्रिया के माध्यम से बादल का निर्माण करती है। संघनन क्रिया के द्वारा परित्यक्त गुप्त उष्मा के द्वारा चक्रवात शक्ति ग्रहण करता है।
(13) यह समुद्र से आर्द्रता को स्थल की ओर लाने में मदद करता है।
(14) चक्रवात के कारण बड़े पैमाने पर जान एवं माल की हानि होती है।
उष्णकटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्नि दोनों गोलार्द्ध में 8º से 20° अक्षांश के बीच होता है। लेकिन इन्हीं अक्षांशों के बीच द० अटलांटिक महासागर में चक्रवात उत्पन्न नहीं होता है क्योंकि इस क्षेत्र में चक्रवात उत्पन्न करने हेतु स्थलीय भूभाग का अभाव है।
8º से 20° अक्षांश के बीच दोनों गोलार्द्धों में तापीय विषुवत रेखा के सहारे दोनों गोलार्द्धों से आने वाली वाणिज्यिक हवा आपस में मिलती है। जब दोनों गोलार्द्धों से आने वाली वाणिज्यिक हवा का तापमान एक समान होता है तो वैसी परिस्थिति में आपस में केवल मिलने की प्रवृति रखते हैं अर्थात् चक्रवात की आँख का विकास नहीं होता है।
8º से 20° अक्षांश के बीच जल एवं स्थल का वितरण काफी अनियमित है। वाणिज्यिक हवाएँ जब स्थलीय भाग से गुजरती हैं तो उसे स्थलीय वायु राशि और समुद्र के ऊपर से गुजरने वाली हवा को समुद्री वायुराशि कहते हैं। जिन स्थानों पर स्थलीय वायुराशि और समुद्री वायुराशि मिलती है वहाँ पर बला आघूर्ण के कारण हवाएँ घुमने लगती हैं और चक्रवात को जन्म देती हैं।
समुद्री वायुराशि काफी गर्म एवं आर्द्रता से युक्त होती है। जिससे स्वत: समुद्री सतह पर निम्न वायुदाब केन्द्र का विकास होता है। जबकि इसके तुलना में स्थलीय भाग पर उच्च वायुदाब केन्द्र का विकास होता है।
तटीय भागों में स्थलीय एवं समुद्री वायुराशि प्राय: मिलने की प्रवृत्ति रखते हैं। प्रारंभ में वाताग्र की स्थिति उत्पन्न करते हैं। लेकिन बला आघुर्ण के कारण वाताग्र ही चक्रवात के आँख के रूप में तब्दील कर जाता है। फलत: उच्च वायुदाब क्षेत्र से आने वाली हवाएँ आँख को समाप्त करने के लिए दौड़ पड़ती है। लेकिन आँख के केंद्र में पहुँचने के पहले ही हवाएं पृथ्वी की घूर्णन गति के प्रभाव में आ जाती है और ऊपर की ओर प्रक्षेपित कर दिए जाते है।
उष्ण एवं आर्द्र हवाएँ उपर जाकर संघनित होती है। जिससे वर्षण का कार्य प्रारंभ हो जाता है। सम्पूर्ण उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति को नीचे के मानचित्र से समझा जा सकता है।
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात की संरचना
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की संरचना चक्रीय होती है। जववायु विज्ञानवेताओं ने इसकी संरचना का अध्ययन क्षैतिज एवं लम्बवत रूप से करते हैं।
(A) क्षैतिज अध्ययन/ संरचना
क्षैतिज रूप से उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कई वलय में विभक्त होता है। सामान्य रूप से एक विकसित उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में कुल 6 रिंग होते हैं। जैसे-
प्रथम रिंग (वलय)⇒
यह चक्रवात का केन्द्र बिन्दु होता है। इसे चक्रवात की आँख कहते हैं। इसका व्यास 5 से 50 Km तक हो सकता है। आकार में यह लगभग वृत के समान होता है। वायुदाब अति न्यून होता है। वायु गर्म होकर ऊपर जाने की प्रवृत्ति रखती है। ठीक इसके ऊपर बादल का निर्माण नहीं होता है क्योंकि उष्ण एवं आर्द्र वायु जब गर्म होकर ऊपर उठती है तो केन्द्र के मध्य भाग में ठंडी एवं शुष्क व नीचे की ओर बैठने की प्रवृत्ति रखती है।
द्वितीय रिंग⇒
यह चक्रवात के चारों ओर स्थित होता है। इसे आँख की दीवाल (Eye Wal) कहते हैं। इसकी चौड़ाई 10 से 20 Km तक होता है। इस रिंग में हवा तेजी से ऊपर की ओर उठती है और आकाश में Cumulo nimbus cloud का निर्माण करती है और इस द्वितीय रिंग में भारी वर्षा होती है।
तृतीय रिंग⇒
इसे स्पाइरल बैण्ड या वर्षा बैण्ड कहा जाता है। द्वतीय रिंग में गरज के साथ भारी वर्षा होती है।
चौथा रिंग⇒
इसे Annular Band कहते हैं। चौथा रिंग में सघन बादल छाये रहते हैं। लेकिन वर्षा बहुत कम होती है। इस रिंग में तापमान उच्च और आर्द्रता निम्न होती है।
पांचवां रिंग⇒
इसे Outer Convective Band कहते हैं। इसमें बादल बहुत कम पाये जाते है। वर्षा नगण्य होती है।
छठा रिंग⇒
यह उष्ण चक्रवात का सबसे बाहरी हिस्सा है। इस रिंग में हवाएँ क्षैतिज रूप से केन्द्र की ओर चलती है। लेकिन इसमें अन्य मौसमी परिस्थितियाँ सामान्य रहती है। छठा रिंग को Outer Band कहते हैं।
1. चक्रवात का आंख (Eye of Cyclone) – अति न्यून वायुदाब
2. चक्रवात का दीवाल (Eye Wall)- क्यूम्लो निम्बस बादल का निर्माण तथा भारी वर्षा
3. वर्षा बैण्ड (Rain Band)- गरज के साथ भारी वर्षा
4. एनुलर बैण्ड (Annular Band)- सघन बादल
5. Outer Convective Band- बहुत कम बादल, नगण्य वर्षा
6. Outer Band- उष्ण चक्रवात का बाहरी हिस्सा
(B) लम्बवत संरचना
मौसम वैज्ञानिकों ने लम्बवत रूप से उष्ण कटिबंधीय चक्रवात को तीन परत में विभक्त करते हैं-
I. In-flow layer⇒
यह चक्रवात का सबसे निचली परत है। इसकी मोटाई घरातल से 3Km ऊँचाई तक होता है। इसमें हवाएँ क्षैतिज रूप से चक्रवात के आँख की ओर अग्रसारित होती है।
II. Middle layer⇒
यह चक्रवात का सबसे प्रमुख हिस्सा है। इसकी मोटाई 3 से 7 Km तक होती है। इसमें हवाएँ ऊपर की ओर उठने की प्रवृति रखती है। साथ ही चक्रीय रूप से घुमते हुए चक्रवात के केन्द्र तक पहुँचने का प्रयास करती है।
III. Out flow layer⇒
यह चक्रवात का सबसे ऊपरी परत है। इसका विस्तार 7 km से ऊपर होता है। इस Layer के मध्य में उच्च वायुदाब केन्द्र होता है तथा हवाएं बाहर की ओर निकलने की प्रवृति रखती है। दूसरे शब्दों में इस Layer में प्रतिचक्रवात की स्थिति होती है।
2. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात
मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले चक्रवात को शीतोष्ण चक्रवात कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति का मुख्य आधार उपध्रुवीय निम्न वायु भार का क्षेत्र होता है क्योंकि इस निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर ध्रुवीय वायु और पछुवा वायु चलने की प्रवृति रखती है। ध्रुवों की ओर से आने वाली वायु प्राय: ठण्डी, भारी, और शुष्क होती है। जबकि पछुआ हवा गर्म, हल्की और आर्द्रता से युक्त होती है। विपरीत दिशाओं से आने वाली तथा अलग-2 भौतिक विशेषता रखने वाली वायु जब आपस में मिलने का प्रयास करती है तो मिश्रण शीघ्र संभव नहीं हो पाता है। इन दो वायु के अग्र भाग मिलकर एक संक्रमण की स्थिति उत्पन्न करते हैं। संक्रमण का यह क्षेत्र ही वाताग्र (Front) कहलाता है।
दूसरे शब्दों में ध्रुवीय हवा और पछुआ हवा के अग्र भाग आपस में मिलकर जिस संक्रमण पेटी का निर्माण करते हैं, उस पेटी को वाताग्र कहते है। इसकी चौड़ाई सामान्यतः 5-7 Km तक होती है। कभी-2 इसकी चौड़ाई 2-75 Km तक होती है। धरातल से इसकी ऊँचाई 1½- 2 Km तक होती है और लम्बाई 750 Km तक हो सकती हैं। वाताग्र धरातल के साथ एक निश्चित कोण पर झुका होता है।
ध्रुवीय हवा (ठंडी, शुष्क, भारी)
पछुआ हवा (गर्म, आर्द्र, हल्की)
वाताग्र (ल०- 750 किमी०, ऊँ०-1.5 किमी०, चौ०-5-7 किमी०)
शीतोष्ण चक्रवात की उत्पत्ति प्रारंभ होना Fronto-genesis (वाताग्र जनन की अवस्था) कहलाता है। जबकि चक्रवात का अन्त/ विनाश Frontolisis (वाताग्र समापन की अवस्था) कहलाता है।
वाताग्र निर्माण के बाद या संक्रमण स्थिति बनने के बाद वायु में चक्रीय प्रवाह की प्रक्रिया प्रारंभ होती हैं। इसका मुख्य कारण ठण्डी वायु का गर्म वायु राशि क्षेत्र में प्रवेश करना है। जब ठण्डी वायुराशि, गर्म वायुराशि के क्षेत्र में प्रवेश करती है तो ग्रहीय नियमों के अनुरूप प्रवाहित नहीं हो पाती हैं क्योंकि प्रवाहित वायु का लक्ष्य कोई अक्षांशीय निम्न बायुदाब की पेटी न होकर आस-पास की गर्म वायु का केन्द्र होता है।
अत: प्रविष्ट करने वाली वायु गर्म वायु की दिशा में प्रवाहित होने लगती है और ठण्डी वायु अपना ग्रहीय प्रवाह को छोड़ देती है। प्रवाह का यह विचलन अंततः चक्रीय रूप धारण कर लेती है। इसे चित्र के माध्यम से भी समझा जा सकता है।
कई मौसम वैज्ञानिकों ने शीतोष्ण चक्रवात की उत्पत्ति का अध्ययन किया है। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य स्वीडीश मौसम वैज्ञानिक जैकोट्स और जर्केंस का है। इन्होंने चक्रवात उत्पत्ति के संबंध में ध्रुवीय वाताग्र सिद्धांत प्रस्तुत किया है। इस सिद्धांत के अनुसार शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति 6 अवस्थाओं में होती है:-
प्रथम अवस्था – प्रारंभिक अवस्था/ वाताग्र जनन की अवस्था
द्वितीय अवस्था – चक्रीय परिसंचरण की प्रारंभ की अवस्था
तृतीय अवस्था – उष्ण खण्ड निर्माण की अवस्था
चतुर्थ अवस्था – शीत वाताग्र के तीव्र अग्रसारी होने की अवस्था
पाँचवा अवस्था – संरोध निर्माण या अधिविष्ट वाताग्र की अवस्था
छठा अवस्था – समापन की अवस्था
(1) प्रारंभिक अवस्था (Fronto genesis)/ वाताग्र जनन की अवस्था
प्रारंभिक अवस्था में ध्रुवीय और पछुआ वायु का अग्र भाग मिलकर एक संक्रमण पेटी या स्थिर वाताग्र का निर्माण करती है जिसकी चौड़ाई 5-7 किमी०, ऊँचाई 1.5-2 किमी० और लम्बाई 750 किमी० या उससे अधिक होती है।
स्थिर वाताग्र के निर्माण के लिए अति अनुकूल क्षेत्र उत्तरी अटलांटिक महासागर का मध्य अक्षांशीय क्षेत्र है। सामान्यत: वाताग्र का निर्माण उपध्रुवीय निम्न वायुदाब क्षेत्र के सहारे होता है। लेकिन, स्थल और समुद्र के असमान वितरण के कारण वाताग्र सीधा न होकर लहरदार होता है या थोड़ा सा मुड़ा होता है। जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में समुद्री सतह के अधिकता के कारण लहरदार स्थिर वाताग्र का निर्माण नहीं होता।
(2) चक्रीय परिसंचरण की प्रारंभिक अवस्था
इस अवस्था में ग्रहीय वायु (ध्रुवीय वायु) अपने मार्ग से विचलित होती है जिसके परिणामस्वरूप स्थिर वाताग्र का कुछ भाग दक्षिण की ओर अग्रसारित हो जाती है। जिस स्थान पर स्थिर वाताग्र ठण्डी / ध्रुवीय वायु के कारण जुड़ जाती है। उस भाग को शीत वाताग्र और शेष भाग को उष्ण वाताग्र कहते हैं। गर्म वाताग्र के सहारे मंद ढाल बनाते हुए गर्म वायु स्वतः ठंडी वायु के ऊपर उठने की प्रवृति रखती है। जबकि शीत वाताग्र में तीव्र ढाल के सहारे शीत वायु चक्रीय प्रवाह की प्रवृति खती है।
(3) उष्ण खण्ड निर्माण की अवस्था
इस अवस्था में ठण्डी वायु और भी अधिक निम्न अक्षांश की ओर खिसकते हुए चक्रीय प्रवाह लेने की प्रवृति रखती है जिसके कारण शीत वायु गर्म वायु के वृहत क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित कर लेती है। इतना ही नहीं शीत वाताग्र के अग्रसारित हो जाने से पछुवा हवा का सम्पर्क अपने स्रोत क्षेत्र से खत्म हो जाता है जिसके कारण गर्म वायु एक खण्ड के रूप से बचा रह जाता है जिसे उष्ण खण्ड के नाम से जानते हैं।
(4) शीत वाताग्र के तीव्र अग्रसारी होने की अवस्था
इस अवस्था में शीत वाताग्र और आगे बढ़ता है। इस अवस्था में शीत वाताग्र के लगातार आगे बढ़ने के कारण पछुवा हवा का सम्पर्क अपने स्रोत्र क्षेत्र से पूर्णतः कट जाता है। इतना ही नहीं बल्कि गर्म हवा एक संकरे प्रदेश में सिकुड़कर रह जाता है तथा शीत वाताग्र को पछुआ हवा और ठण्डी ध्रुवीय हवा दोनों मिलकर दबाव लगाना प्रारंभ कर देती है जिसके कारण शीत वाताग्र तेजी से अग्रसारित होने लगता है।
दूसरी ओर जिस स्थान पर स्थिर वाताग्र मुड़ा था उस स्थान पर शीत सीमाग्र और गर्म सीमाग्र के मिलने से आवर्त की स्थिति उत्पन्न होती है। इस अपर्त के चारों ओर गर्म एवं ठण्डी वायु का मिश्रित चक्रीय प्रवाह देखने को मिलता है।
(5) संरोध निर्माण या अधिविष्ट वाताग्र की अवस्था
इस अवस्था में शीत वाताग्र और उष्ण वाताग्र आपस में मिलने की प्रवृति रखती है। लेकिन मिलने की प्रक्रिया वाताग्र के केन्द्र से शुरू होती है। गर्म वाताग्र और शीत वाताग्र मिलकर संरोध वाताग्र (Occluded front) का निर्माण करती है। संरोध वाताग्र एक ऐसा वाताग्र है जिसमें उष्ण एवं शीत दोनों प्रकार की वायु पायी जाती हैं। संरोध वाताग्र दो प्रकार का होता है:-
(i) शीत संरोध वाताग्र
(ii) गर्म संरोध वाताग्र
शीत संरोध वाताग्र वह स्थिति है जिसमें गर्म वाताग्र समाप्त हो जाता है और शीत वाताग्र गर्म वाताग्र के आगे अवस्थित ठण्डी वायु के क्षेत्र में प्रविष्ट कर जाती है।
उष्ण संरोध वाताग्र वह हैं जहाँ पर वाताग्र का प्रभाव क्षेत्र वाताग्र के केन्द्र प्रभाव में एक छोटे से केन्द्र में रह जाता है।
(6) समापन की अवस्था (Frontolisis)
समापन की अवस्था को Frontolisis की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में उष्ण वाताग्र एवं शीत वाताग्र आपस में पूर्णतः मिल जाते हैं। ध्रुवीय वायु और पछुवा हवा पृथ्वी की घुर्णन गति के प्रभाव में आकर ग्रहीय मार्ग अपना लेती है और चक्रवात की समाप्ति हो जाती है।
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की मौसमी दशाएँ एवं वाताग्र के प्रकार
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात में विभिन्न प्रकार के मौसमी दशाओं का विवेचना निर्मित होने वाले चारों वाताग्र के आधार पर करते हैं। प्रत्येक वाताग्र की अलग-2 विशेषताएँ होती हैं। मौसमी विशेषताओं के आधार पर ही वाताग्र को चार भागों में बाँटते हैं।
(1) स्थिर वाताग्र (Stationary Front)
(2) उष्ण वाताग्र (Warm Front)
(3) शीत वाताग्र (Cold Front)
(4) संरोध/अधिविष्ट वाताग्र (Occluded Front)
(1) स्थिर वाताग्र
शीतोष्ण चक्रवात उत्पन्न होने के पहले आसमान साफ होता है। ध्रुवीय और पछुआ वायु अपने-2 प्रचलित मार्ग से चलने की प्रवृति रखते हैं। ज्यों ही पछुआ वायु और ध्रुवीय वायु एक-दूसरे के विपरीत दिशाओं से आकर मिलती है तो स्थिर वाताग्र का निर्माण करती है। स्थिर वाताग्र में वायु स्थिर रहती है। वर्षा नहीं होती है। लेकिन आसमान धुंधला होने लगता है।
(2) उष्ण वाताग्र
उष्ण वाताग्र की स्थिति में भी वायु स्थिर बनी रहती है क्योंकि गर्म पछुवा वायु ठण्डी ध्रुवीय वायु के क्षेत्र में प्रविष्ट करने का प्रयास करती है। लेकिन गर्म वायु प्रविष्ट नहीं कर पाती है। फलत: गर्म वायु मंद ढाल के सहारे ठण्डी वायु के ऊपर धीरे-2 चढ़ने की प्रवृत्ति रखती है जिससे बहुस्तरीय बादलों का निर्माण होता है। जैसे:- उपर से नीचे आने पर क्रमशः Cirrus, Cirro stratus, Alto stratus और Cumulus नामक बादल का निर्माण करती है। इस प्रकार के बादलों से धीरे-धीरे लम्बी अवधि तक वर्षण का कार्य होती है। वर्षा का प्रभाव क्षेत्र भी विस्तृत होता है।
(3) शीत वाताग्र (Cold front)
शीत वाताग्र की स्थिति में ठण्डी वायुराशि गर्म वायुराशि के क्षेत्र में प्रविष्ट करती है जिसके कारण वाताग्र तीव्र ढाल का निर्माण करती है। तीव्र ढाल के सहारे गर्म वायु राशि उपर उठकर संतृप्त हो जाती है और ऊपर से नीचे क्रमशः तीन प्रकार के बादलों का निर्माण करती है। जैसे-
(i) स्तरी बादल (Cirro Stratus)
(ii) कपासी वर्षी बादल (Cumulo Nimbus)
(iii) वर्षा स्तरी बादल (Nimbo Stratus)
शीत वाताग्र वाले क्षेत्र में अति अल्प समय में भारी वर्षा रिकॉर्ड किया जाता है। शीत वाताग्र का प्रभाव क्षेत्र काफी छोटे क्षेत्रों में होता है। जबकि उस स्थान से शीत वाताग्र गुजर जाता है तो अचानक वर्षा रुक जाती है। शीतलहरी चलने लगती है। तापमान में भारी गिरावट आती है। वायुदाब बढ़ जाती है और मौसम कष्टकर हो जाता है।
(4) संरोध/अधिविष्ट वाताग्र (Occluded Front)
संरोध वाताग्र में कई प्रकार के बादलों का निर्माण होता है। लेकिन इसमें वर्षा तीव्र होती है। संरोध के कारण शीतोष्ण चक्रवात में अंतिम रूप से वर्षा होती है। जब उष्ण वाताग्र और शीत वाताग्र पूर्णतः आपस में मिलते हैं तो उष्ण खण्ड भी समाप्त हो जाता है। ध्रुवीय वायु और पछुआ वायु पुन: ग्रहीय मार्ग को अपना लेते हैं। आकाश साफ हो जाता है।
ध्रुवीय वायु और पछुआ वायु अपने-2 क्षेत्र में रहकर उप-ध्रुवीय भागों में कोरियालिस प्रभाव के कारण ऊपर उठने लगती है। जिससे मौसम पूर्णतः सामान्य हो जाता है। पुनः जब ध्रुवीय वायु पछुवा वायु के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का प्रयास करती है तो पुन: नई चक्रवात का निर्माण प्रारंभ होता है।