Unique Geography Notes हिंदी में

Unique Geography Notes in Hindi (भूगोल नोट्स) वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के उन छात्रों और अध्ययन प्रेमियों को काफी मदद मिलेगी, जिन्हें भूगोल के बारे में जानकारी और ज्ञान इकट्ठा करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस वेबसाइट पर नियमित रूप से सभी प्रकार के नोट्स लगातार विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित करने का काम जारी है।

Environmental Geography (पर्यावरण भूगोल)

15. Describe the gases causing green house effect (हरित गृह प्रवाह को बढ़ाने वाली गैसों का वर्णन)

15. Describe the gases causing green house effect

(हरित गृह प्रवाह को बढ़ाने वाली गैसों का वर्णन)



      कार्बन डाइ ऑक्साइड के अलावा जल वाष्प, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन और ओजोन अन्य गैसें हैं जो धरती का तापमान बढ़ा रही हैं। इनमें वायुमण्डल में अत्यधिक जीवाश्म ईंधन के दहन से निरंतर कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। पिछले वर्षों में हुए औद्योगीकरण के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा 25 प्रतिशत तक बढ़ गयी है। एक मोटे अनुमान के अनुसार एक ही वर्ष में 1.8 टन तक कार्बन डाइ ऑक्साइड वायुमण्डल में बढ़ जाती है। अतः आज के औद्योगिक युग में अनुमानतः कार्बन डाइ ऑक्साइड विगत युगों से दुगुनी मात्रा में निकल रही है। प्रत्येक वर्ष 4 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड विलुप्त हो जाती है।

      एक प्रतिवेदन के अनुसार इस समय प्रतिवर्ष 5.7 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड पेट्रोल और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों को जलाने से वायुमण्डल में पहुँच रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष दो अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड उष्णकटिबन्धीय वनों के विनाश के कारण वायुमण्डल में पहुँच रही है। इस प्रकार उद्योग और आधुनिक परिवहन के साधनों में ईंधन के दहन के द्वारा 5.7 अरब टन अर्थात् 600 करोड़ टन (6 अरब टन) कार्बन डाइ ऑक्साइड प्रतिवर्ष वायुमण्डल में छोड़ी जाती है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मृदा जुताई द्वारा उत्पन्न कार्बन डाइ-ऑक्साइड, 200 करोड़ टन वायुमण्डल में प्रतिवर्ष निकलती है।

       इस प्रकार कुल 7.7 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड में सिर्फ 3.8 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड ही वायुमण्डल में बची रहती है। शेष करीब 4 टन कार्बन डाइ ऑक्साइड हर वर्ष गायब हो जाती है। इसे लापता कार्बन डाइक्साइड कहते हैं। प्रतिवेदन के अनुसार ऐसा न होने पर वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा एकाएक कई गुना बढ़ जायेगी और ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि होने से धरती का तापमान अचानक बढ़ जायेगा। इस आशंका के मद्देनजर वैज्ञानिक लापता कार्बन डाइ ऑक्साइड का पता लगाने के काम में पूरे जोर-शोर से जुटे हैं।

      वैज्ञानिकों के एक वर्ग का अनुमान है कि आधी कार्बन डाइ ऑक्साइड समुद्रों द्वारा अवशोषित हो जाती है तथा आधी वनस्पतियों द्वारा अवशोषित होने पर भी लगभग 3 अरब टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड प्रतिवर्ष वायुमण्डल में जमा हो रही है। कार्बन डाइ-ऑक्साइड की यह मात्रा ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न कर समस्त पृथ्वी को निरंतर गर्म कर रही है। भविष्य में प्रत्येक दशक में तापमान में औसतन 0.3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी और परिणामस्वरूप अगले 300 वर्षों में यदि इसी तरह प्रकृति बनी रही तो तापमान 10 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाने का अनुमान है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2025 में पृथ्वी का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा और सन् 2050 में 2.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होगा।

     सन् 2100 में 5.5 डिग्री तथा सन् 2300 में पृथ्वी का तापमान 10 डिग्री सेल्सियस अधिक हो जायेगा। आज वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड 0.03 प्रतिशत से बढ़कर 0.05 प्रतिशत तक पायी जा रही है। आधुनिक परिवहन के साधन, उद्योग, घटते वन और बढ़ते नगरों से पिछले सौ वर्षों में 36,000 करोड़ टन कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्पन्न की है और इससे अधिक आज उत्पन्न की जा रही है। चीन कार्बन डाइ ऑक्साइड के उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान रखता है। विश्व में सन् 1960 से 1990 के बीच ज्वलनशील ईंधन ने वायुमण्डल में लगभग 14 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड की वृद्धि कर दी है। इससे तापमान में सन् 1960 से 0.5 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वृद्धि हुई है। जबकि पूर्व वर्षों में कई सदियों से यह मात्रा लगभग एक-सी रही है और सन्तुलन कायम रहा है। यद्यपि वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की 0.03 प्रतिशत मात्रा पृथ्वी में ऊर्जा सन्तुलन जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के लिये आवश्यक हैं वनस्पतियों की वृद्धि और विकास के लिए यह वांछनीय है। लेकिन इसकी निरंतर वृद्धि से भविष्य में घातक परिणाम सामने आ सकते हैं जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन करने की क्षमता रखते हैं। हर वर्ष 110 अरब टन कार्बन डाइ-ऑक्साइड धरती से होने वाली तमाम जैविक प्रक्रियाओं द्वारा वायुमण्डल में पहुँचती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार, उद्योगों, मोटर वाहनों, घरेलू उपयोग आदि की ऊर्जा की आवश्यकता के लिये जलाये गये कोयले या पेट्रोल (जीवाश्म ईंधनों) से हर वर्ष 5.7 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड वायुमण्डल में पहुँच रही है। इसके अलावा हर वर्ष दो अरब टन से भी ज्यादा कार्बन डाइ ऑक्साइड धरती के कहे जाने वाले उष्ण कटिबन्धीय जंगलों के विनाश से (खेती के लिए/ आग जलाकर साफ किये जाने के कारण) वायुमण्डल में पहुँच रही है।

       कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्पन्न करने वाली अनेक प्रक्रियाएँ हैं। इनमें मुख्य हैं ईंधन का दहन, कार्बनिक पदार्थों का विघटन, पेड़-पौधों और जन्तुओं के शरीर में भोजन के कारण और अन्य अप्राकृतिक विधियों से भी कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पादन होता है। विभिन्न उद्योग जो कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन पर आश्रित हैं। वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा के लिए जिम्मेदार हैं। वनों के जलने और नष्ट होने से यह बढ़ी और औद्योगीकरण के पूर्व में वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा 290 पी. पी. एम. (पार्टस पर मिलियन) या 0.029 प्रतिशत थी। विगत वर्षों में 0.003 प्रतिशत से बढ़कर आज यह 0.38 प्रतिशत हो गयी है। इस प्रकार इसमें लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है।

      कार्बन डाइ ऑक्साइड की वृद्धि यदि इसी दर से पृथ्वी पर होती रही तो आने वाले सौ वर्षों में इसका असर या स्तर औद्योगीकरण के पहले के स्तर से दुगुना हो जायेगा। इस तथ्य का ठीक-ठीक अनुमान लगाये जाने पर विद्वानों में मतभेद है, फिर भी भविष्यवाणी की जा सकती है कि सन् 2030 में सार्वत्रिक माध्यताप (Global Mean Temperature) सन् 1980 की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा। यह भी अनुमान लगाया जाता है कि सन् 2030 में पृथ्वी इतनी गर्म होगी, जितनी कि पिछले 1,20,000 वर्षों में कभी नहीं रही होगी।

     ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करने वाली गैसों में आधी से अधिक कार्बन डाइ-ऑक्साइड ही प्रभावी है। शेष के अधिकांश भाग में क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें हैं। औद्योगीकरण की गति दुगुने से अधिक है। अतः इन गैसों का मिश्रण भविष्य में बढ़ेगा।

     वायुमण्डल में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड का होना तथा इससे होने वाली सर्वात्रिक तापन (global warming) वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों के लिये गहन चिन्ता का विषय है। सन् 1989 में प्रकाशित यू. एस. ए. नेशनल रिसोर्सेज, डिफेन्स काउनसलिंग के प्रतिवेदन के अनुसार सार्वत्रिक तापन ध्रुवों पर सबसे अधिक होगा। सात-आठ डिग्री फारेनहाइट की ध्रुव पर 20 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान की वृद्धि कर सकती है। इतने अधिक गरमाहट से कार्बन डाइ ऑक्साइड की बहुत बड़ी मात्रा जो कि अभी मिट्टी और वनस्पति के साथ जमी है, बाहर आयेगी। इससे सार्वत्रिक तापन को और बढ़ावा मिल सकता है। सार्वत्रिक तापन के साथ-साथ बदलती हुई प्रवृत्ति (Inter-Governmental Panel on Climatic Change) के अनुसार सन् 1940 तक गरमाहट प्रदर्शित करती है और इसके पश्चात् सन् 1970 तक शीतलन की प्रकृति परिलक्षित होती है। अब सन् 1970 के बाद फिर से गरमाहट होने का संकेत मिला है अर्थात् वर्तमान में तापमान में वृद्धि हो रही है जो पहले की तुलना में कहीं ज्यादा है। सन् 1980 से 1990 का दशक इस शताब्दी का सर्वाधिक गरम दशक रहा है।

हरित गृह प्रभाव को बढ़ाने वाली अन्य गैसें:-

       स्पष्ट है कि ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली प्रमुख गैसों की मात्रा वायुमण्डल में आवश्यकता से अधिक होती जा रही है और इसी कारण पृथ्वी का औसत तापमान भी बढ़ता जा रहा है। 1980 के दशक में पृथ्वी पर सबसे अधिक गर्मी पड़ी थी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि यही स्थिति जारी रही तो अगले 25 वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान 3 डिग्री तक बढ़ सकता है। कुछ क्षेत्रों में तो यह वृद्धि में पृथ्वी का औसतन तापमान 3 डिग्री तक बढ़ सकता है। कुछ क्षेत्रों में तो यह वृद्धि 5 डिग्री से 7 डिग्री तक भी हो सकती है। कुछ वैज्ञानिकों का यह भी अनुमान है कि अगले 50 वर्षों में पृथ्वी इतनी गर्म हो जायेगी जितने पिछले एक लाख वर्षों में कभी नहीं रही होगी।

        हरित ग्रह प्रभाव को प्रभावी बनाने वाली निम्नलिखित क्रियाएँ एवं गैसें हैं-

1. जल वाष्प:-

       जल वाष्प एक प्राकृतिक ग्रीन हाउस गैस है। तापमान बढ़ाने में इसकी एक अलग भूमिका है। होता यह है कि ग्रीन हाउस गैसों के कारण तापमान में वृद्धि होने से जल के वाष्पन की दर भी बढ़ जाती है। इससे वायुमण्डल में ज्यादा वाष्प जमा होती है और परिणामस्वरूप तापमान और बढ़ जाता है। इसकी मात्रा स्थान-स्थान के मौसम पर निर्भर करती है।

2. नाइट्स ऑक्साइड:-

       नाइट्रस ऑक्साइड सूक्ष्म विषाणुओं की मिट्टी में क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम है। नाइट्रस ऑक्साइड में उर्वरकों के प्रयोग से और कृषि कार्यों में उत्पन्न चीजों के सड़ने-गलने से नाइट्रोजन निकलती है। यह प्राकृतिक तौर पर जीवाणु की मिट्टी और पानी में क्रिया द्वारा उत्पन्न होती है। नाइट्रस ऑक्साइड भी प्रतिवर्ष 0.25 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 2030 में औद्योगिक युग के पूर्व की तुलना में यह 34 प्रतिशत अधिक उत्पन्न होगी। इसका प्रत्येक अणु कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में 250 गुना अधिक ताप प्रकट करता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत उष्ण कटिबन्धीय मिट्टी है जहाँ पर जीवाणु नाइट्रोजन के प्राकृतिक यौगिकों से क्रिया करके नाइट्रस ऑक्साइड पैदा करते हैं। यह नाइट्रस ऑक्साइड के पूरे वायुमण्डलीय उत्सर्जन का 20-30 प्रतिशत इसी क्षेत्र में उत्पन्न होता है।

     कृषि में नाइट्रोजन उर्वरकों के इस्तेमाल, भूमि की सफाई के लिये जलाये गये पेड़-पौधे, नाइट्रोजन वाले ईंधन को जलाने से और नाइलोन उद्योगों द्वारा छोड़ी जाने वाली गैसों के कारण वायुमण्डल में इसकी मात्रा में वृद्धि हुई है। अब अध्ययनों से यह पता चलता है कि इस समय वायुमण्डल में इसकी मात्रा लगभग 0.31 प्रतिशत प्रति दस लाख भाग है।

3. मीथेन गैस:-

       मीथेन एक प्राकृतिक गैस है जो जीवाणुओं और उनकी क्रियाओं के परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में पैदा होती है। अर्थात् वह अपघटों की देन है। वायुमण्डल में अधिकांश मीथेन के स्रोत जैविक हैं। मीथेन गैस धान के खेतों, नम भूमि, दलदल से निकलती है इसलिए यह मार्श गैस भी कहलाती है।

       इसी प्रकार लगभग 36 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर चावल की खेती की जाती है। इस पैदावार के दौरान मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। यह गैस भी प्रमुख ग्रीन हाउस पैदा करने वाली गैसों में एक है। 

      अकेले भारत में मवेशियों की संख्या लगभग 46 करोड़ के आसपास है। जुगाली करने वाले ये जानवर जब भी हवा छोड़ते हैं, मीथेन गैस की कुछ मात्रा वायुमण्डल में मिल जाती हैं। यह सागरों, ताजे पानी, खनन कार्य, गैस ड्रिलिंग, जैविक पदार्थों के सड़ने आदि से उत्पन्न होती है। इस स्रोत के अलावा गाय, भैंस, भेड़-बकरी, घोड़ा, ऊँट, सुअर आदि पशु और लकड़ी खाने वाले कीड़े जैसे दीमक को मीथेन छोड़ने के लिए जिम्मेदार पाया गया है।

      हिमानियों के अंदर पाये गये बुलबुलों के नमूनों और हाल के परीक्षणों से पता चला है कि उन्नसवीं सदी के शुरूआत के साथ वायुमण्डल में मीथेन की मात्रा बढ़ रही है। यह पिछले कुछ दशकों में 0.9 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है। पूरे विश्व में वर्तमान में लगभग 52.5 करोड़ टन मीथेन धान के खेतों से उत्पन्न होती है। वायुमण्डल में कार्बन मोना ऑक्साइड और कुछ अन्य प्रदूषक गैसें मीथेन को वायुमण्डल में ज्यादा देर तक रोकने में सहायक हैं। 1990 में इस गैस की वायुमंडल में मात्रा 1.72 भाग प्रति लाख (पी.पी.एम.) पायी गयी है तथा लगभग 11 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ रही है। जनसंख्या वृद्धि के साथ समानान्तर वृद्धि से मिथेन की वृद्धि का स्तर बढ़ रहा है। तापमान बढ़ने में इसका प्रत्येक अणु कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 25 गुना अधिक प्रभावी है।

4. क्लोरोफ्लोरो कार्बन:-

       क्लोरोफ्लोरो कार्बन सिन्थेटिक यौगिकों का समूह है। सी. एफ. सी. एस. (CFCs) वायुमण्डल के ऊपरी सतह पर समताप मण्डल में क्लोरीन को मुक्त करती है, जो ओजोन को तोड़ती है। ओजोन परत सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है। सी. एफ. सी. एस. तथा सी. एफ. सी. 12 का प्रत्येक अणु कार्बन डाइ-ऑक्साइड की तुलना में 20 हजार गुना ताप रोकती है। इन दोनों की मात्रा 5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। यह मनुष्य का अनुसंधान है और प्राकृतिक तौर पर नहीं पायी जाती है। ये यौगिक एयरकण्डीशनरों तथा रेफ्रीजरेटरों में प्रशीतन (Cooling) और छिड़काव यंत्रों में प्रणोदक (Propelent) के रूप में झाग (Foam) को फैलाने और इलेक्ट्रॉनों की घटकों की सफाई और आग बुझाने के आधुनिक यंत्रों में इस्तेमाल होते हैं। पिछले छः दशकों में इसकी खपत में अत्यधिक वृद्धि हुई है और आज 4 प्रतिशत की दर से वायुमण्डल में इसकी मात्रा बढ़ रही है।

5. ओजोन:-

      समताप मण्डल की ओजोन पराबैंगनी विकिरण को सोखकर धरती के जीव-जन्तुओं की रक्षा करती है लेकिन निचले वायुमण्डल में इसका जमाव गर्मी बढ़ाने का काम करती है। यह गैस प्राकृतिक तौर पर निचले वायुमण्डल में बहुत कम मात्रा में मौजूद होती है। यह नाइट्रोजन के ऑक्साइड, मीथेन, हाइड्रोकार्बन और अन्य कार्बनिक यौगिकों के आपसी क्रिया से बनी है। इसकी मात्रा का सही-सही पता नहीं लगाया जा सका है। इसके अलावा समताप मण्डल की ओजोन का क्षय कुल मिलाकर गर्मी बढ़ाता या घटाता है। इस विषय पर भी और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।

6. सर्वत्र औसत तापमान में वृद्धि के प्रभाव:-

      जीवाश्म अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि विगत 14,500 वर्षों में समुद्र स्तर में 100 मीटर से भी अधिक की वृद्धि हुई है। साथ ही पृथ्वी के सर्वत्र औसत तापमान में वृद्धि के अनेक प्रभाव भविष्य में परिलक्षित होंगे। तापमान के बढ़ने से समुद्र में ऊष्णीय प्रसार होगा जिससे इसका तल ऊपर उठ सकता है। अगर पृथ्वी के ध्रुवों पर जमी हुई बर्फ पिघलती है तो इसकी सतह कहीं ज्यादा उठ जाने की सम्भावना है। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले 100 वर्षों में समुद्र की सतह 0.10 से 0.15 सेमी. ऊपर उठ चुकी है और प्रत्येक दशक में जब तापमान 0.3 डिग्री बढ़ेगा तो समुद्र की सतह 6 सेमी, उठेगी, अथवा सागरों के तल में औसत 6 सेमी. की बढ़ोत्तरी भविष्य में हो सकती है। सन् 2030 तक इसमें 17 से 26 सेमी. का उठाव और आ सकता है जिससे समुद्र के किनारे बसे देशों में बाढ़ आ जायेगी। परिमापक के आधार पर बताया गया है कि मात्र 1 मीटर की समुद्र तल में उठाव से मिस्र देश की 12 से 15 प्रतिशत कृषि भूमि तथा बंगलादेश की 25 प्रतिशत से अधिक उपजाऊ भूमि जलमग्न हो जायेगी। सन् 1930 से 1990 के मध्य के 50 वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। ताप वृद्धि के परिणामस्वरूप दक्षिण मध्य यूरेशिया एवं उत्तरी अमेरीका की वायु शुष्कता में वृद्धि हुई और कहीं-कहीं धूल भरी आँधियाँ भी चली हैं।

      वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणियाँ भी की हैं कि पृथ्वी का तापमान वर्तमान ताप से 30 डिग्री और बढ़ जाये तो अटलाण्टिका और आर्कटिक ध्रुवों के विशाल हिमावरण पिघल जायेंगे और समुद्र की सतह 100 मीटर ऊँची हो जायेगी। समस्त तटीय प्रदेश उस जल प्लावन में डूब जायेंगे। उस समय में सिडनी, मियामी, मोंटी कार्लों, कोलकाता और मुम्बई महानगर जलमग्न हो जायेंगे। अलनीनो जो ठण्डी जलधारा दक्षिणी अमेरीका के तट पर बहती थी, आज गर्म हो गयी है और निकटवर्ती वनस्पति और जीव जगत रूपान्तरण के दौ से गुज रहा है।


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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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