Unique Geography Notes हिंदी में

Unique Geography Notes in Hindi (भूगोल नोट्स) वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के उन छात्रों और अध्ययन प्रेमियों को काफी मदद मिलेगी, जिन्हें भूगोल के बारे में जानकारी और ज्ञान इकट्ठा करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस वेबसाइट पर नियमित रूप से सभी प्रकार के नोट्स लगातार विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित करने का काम जारी है।

Environmental Geography (पर्यावरण भूगोल)

14. Gobal Consequences of Climatic Change (जलवायु परिवर्तन के विश्वव्यापी परिणाम)

14. Gobal Consequences of Climatic Change

(जलवायु परिवर्तन के विश्वव्यापी परिणाम)



           जलवायु परिवर्तन के विश्वव्यापी परिणामों को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत वर्णन किया जा सकता है- 

1. विश्व में फसल प्रारूप और उत्पादन में परिवर्तन होना:-

         मौसम वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक शोध में पाया कि पर्यावरण में हो रहे तापमान में परिवर्तन का प्रभाव फसलों की पैदावार पर भी पड़ सकता है। यह प्रभाव विभिन्न स्थानों के लिये अलग-अलग होंगे। इस अध्ययन में यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि “ग्लोबल वार्मिंग” के कारण विश्व के गरीब और विकासशील देशों की फसलों की पैदावार के ऊपर इसके नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेंगे, वहीं कुछ विकसित देशों की फसलों के पैदावार में इससे वृद्धि की सम्भावना है।

      मौसम वैज्ञानिक महेन्द्र शाह की रिपोर्ट के अनुसार वायुमण्डल में कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने के कारण आने वाले 70 वर्षों में विश्व की कुल फसलों की पैदावार में वृद्धि होगी। साथ ही भूमध्य रेखा के पास के देशों की फसलों की पैदावार पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। भूमध्य रेखा के पास ज्यादातर गरीब या विकासशील देश हैं, जिसके कारण करीब-करीब करोड़ों लोगों की इससे प्रभावित होने की आशंका है।

      ब्राजील, भारत और दूसरे अफ्रीकी देशों की फसलों की पैदावार कम होने की आशंका है जबकि रूस, चीन, कनाडा तथा अर्जेन्टाइना की फसलों की पैदावार में वृद्धि होने की सम्भावना व्यक्त की गयी है। इन मौसम वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के लिये पृथ्वी को लगभग 2.2 मिलियन छोटे हिस्सों में बाँट लिया। फिर उनमें से प्रत्येक हिस्से से सम्बन्धित आंकडों, जिनमें मौसम, मिट्टी के प्रकार, भू-प्रदेश, फसलों के प्रकार आदि का अध्ययन किया, फिर इसकी तुलना उन्होंने मौसम परिवर्तन के प्रचलित तीन मॉडलों से की। इसके बाद उन्होंने यह निष्कर्ष दिया कि भूमध्य रेखा के पास का क्षेत्र भविष्य में और गर्म होता जायेगा, जिससे कि वर्तमान में जो फसल उगाई जा रही है, उनकी पैदावार मुश्किल हो जायेगी।

        वहीं उत्तरी अमेरिका, रूस तथा चीन के तापमान में भी बढ़ोत्तरी होगी, पर फिर भी वे ठंडे प्रदेश बने रहेंगे, जिससे कृषि का इन उत्तरी हिस्सों में विकास सम्भव हो पायेगा। मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अध्ययन उन देशों को अपनी फसलों के विकल्प खोजने में सहायक सिद्ध होगा, जिन देशों की फसलों को पैदावार के लिये फसलों का चयन कर पायेंगे। सन् 2003 को सदी का सबसे गर्म वर्ष माना गया है।

2. मरुभूमि में वृद्धि होगी:-

        एक अध्ययन के बाद यह पता चला है कि 19वीं शताब्दी की तुलना में 20वीं सदी में पृथ्वी का औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। सन् 1860 जब से वैश्विक तापमान का रिकार्ड रखा जा रहा है, के बाद से पाया गया कि बीती सदी में 90 का दशक सर्वाधिक गर्म वर्ष रहा है जिसमें 1998 में गर्मी के सभी रिकार्ड टूट गये। पिछले 200 वर्षों में वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत बढ़ गयी। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के इस बढ़ते स्तर को देखते हुए वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी दी है कि सन् 2100 सदी के उत्तरार्द्ध तक पृथ्वी का औसत तापमान आज की अपेक्षा 1.00 से 3.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा।

    वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के नए खतरों में धरती पर बढ़ते रेगिस्तान को भी जोड़ रहे हैं। मस्थलीकरण का विस्तार इतनी तीव्र गति से बढ़ रहा है कि दुनिया के 110 देशों में रेगिस्तान पांव फैला चुका है। इनमें अल्पविकसित, विकासशील और विकसित सभी तरह के देश शामिल हैं। हर वर्ष मानवीय गतिविधियों के कारण लगभग पांच लाख हेक्टेयर भूमि रेगिस्तान में बदल जाती है। इसके कारण वायुमण्डल के तापमान में अस्थिरता आ जाती है और ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बहुत बढ़ जाता है।

      अगर हमारे वातावरण का तापमान इसी तरह चढ़ता रहा तो आने वाली सदी में एक ओर विश्व के अधिकांश हिस्से ग्लेसियरों की बर्फ पिघलने के कारण जलमग्न हो जायेंगे तो साथ ही दूसरी ओर शेष बची दुनिया मरुस्थल से आच्छादित हो जायेगी और दोनों ही परिस्थितियाँ मनुष्य के जीवन के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं हैं।

3. जैव विविधता में परिवर्तन:-

     जलवायु परिवर्तन का जैव विविधता प्रभाव दो रूपों में दिखलाई देता है-

(1) धनात्मक प्रभाव,

(2) ऋणात्मक प्रभाव।

(1) धनात्मक प्रभाव-

       तापमान वर्षा परिवर्तन से कुछ जातियों को लाभ हुआ है। जैसे वे जातियाँ जो अनुकूलन करने में सक्षम हैं या विश्व के अन्य स्थानों में फैलकर आवास बना लिये हैं अथवा जिन जातियों में मनुष्य लाभ के प्रति प्रभावी हुआ है अथवा मनुष्य का संग-साथ प्रभावी हो गया है। जैसे- चूहा (Mice), कबूतर, घरेलू चिड़ियाँ आदि। इसी प्रकार CO2 की वृद्धि पर वनस्पति जगत में वृद्धि हुई है।

(2) ऋणात्मक प्रभाव-

      जलवायु परिवर्तन से विश्व में ऊष्मीकरण हुआ है। ताप वृद्धि को बहुत से जीव सह नहीं पाते हैं। प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण उन जातियों की क्षति हुई जो प्राचीन अवशेष मात्र रह गयी हैं अथवा स्थान विशेष पर ही थोड़ी मात्रा में पायी जाती हैं अथवा आनुवांशिक जैव विविधता कम है अथवा जिनकी वृद्धि दर न्यून है अथवा स्थानान्तरित करने वाले जीवों को जलवायु परिवर्तन से क्षति हुई है। जैसे- भारत में शीत ऋतु में साइबेरिया से कुछ पक्षी आते हैं। यदि कहीं भी जलवायु परिवर्तन होता है तो इनका क्षतिग्रस्त होना स्वाभाविक है।

4. ध्रुवीय हिमखण्ड पिघलेंगे:-

      पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी होने के कारण ध्रुवों पर जमे हिम खण्डों और हिमाचल के हिमनदों के पिघलने की प्रक्रिया में तेजी आयी है। इन हिमखण्डों के पिघलने से समुद्रों के जल स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है। एक ओर अंटार्कटिका की बर्फ की सतह में दरारें उभर आयी हैं, तो दूसरी ओर आर्कटिक महासागर की चालीस प्रतिशत बर्फ पिछले पचास वर्षों में पिघल चुकी है। अंटार्कटिका की तीन बर्फीली परतें- दक्षिणवर्ती, दक्षिण लार्सन और प्रिंस गुस्तव तो पूरी तरह पिघल कर गायब हो चुकी हैं।

     ओस्लो में चल रहे एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण दुनिया भर के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इससे बांग्लादेश और नीदरलैंड सहित विश्व के अनेक देशों के तटीय इलाकों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है। विशेषज्ञों ने बताया है कि बर्फ पिघलने के कारण आल्प्स पर्वतमाला के ग्लेशियर पिछले दो दशकों में 20 प्रतिशत से ज्यादा सिकुड़ गये हैं।

     दुनिया के सबसे सघन हिमालयी ग्लेशियर श्रृंखला की ऐन तलहटी में अवस्थित भारत के अनेक राज्यों में इस परिघटना ने खतरे की घंटी बजा दी है।

       वैज्ञानिकों ने चेताया है कि इस प्राकृतिक आपदा से बचाव के लिये समय रहते आवश्यक कदम नहीं उठाए गये तो जान-माल की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक परियोजना में किये गये अध्ययन के अनुसार, वाहनों, फैक्ट्रियों और बिजलीघरों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों के कारण दुनिया का तापमान सन् 2100 तक 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। ऐसा विद्वानों के दूसरे वर्ग का अनुमान है।

     उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और काठमांडू स्थित ईसीमॉड संस्थान के एक संयुक्त परियोजना में हिमालय के तेजी से पिघल रहे ग्लेशियरों पर गहरी चिन्ता व्यक्त की गयी थी। परियोजना में नेपाल और भूटान हिमालय के 4000 ग्लेशियरों तथा 5000 बर्फानी झीलों का व्यापक जमीनी और उपग्रहीय अध्ययन किया गया। इसके निष्कर्षो में बताया गया था कि नेपाल और भूटान की दर्जनों बर्फीली झीलें ग्लेशियरों के पिघलने के कारण खतरनाक हद तक फूल गयी हैं और आगामी पाँच वर्षों के भीतर कभी भी फट सकती हैं। अध्ययन में सम्भावना जतायी गयी है कि झीलों में लगातार बढ़ रहें जलस्तर के कारण हिमालय और इसकी तलहटी के क्षेत्र भीषण बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं।

       संयुक्त राष्ट्र अध्ययन में कहा गया था कि हिमालय का सबसे बड़ा हिस्सा भारत में पड़ता है लेकिन भारतीय क्षेत्र में पड़ने वाले ग्लेशियरों की स्थिति का आंकलन अभी तक नहीं किया गया है। हालांकि भारत भूगर्भीय सर्वेक्षण विभाग के अध्ययनों से पता चला है कि भारतीय हिमालय में पड़ने वाले ग्लेशियर पिघलने के कारण 15 मीटर प्रतिवर्ष की गति से सिकुड़ रहे हैं। पिछले दिनों तिब्बत की पारि छू नदी में बन गयी कृत्रिम झील के कारण हिमाचल प्रदेश में अब तक खतरा बना हुआ है।

    अनेक विशेषज्ञ कृत्रिम झील बनने की परिघटनाओं को ग्लेशियरों के पिघलने से जोड़कर देखते हैं। उन्होंने हिमालयी क्षेत्र में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं की सम्भावनाएँ तलाशे जाने के मद्देनजर ग्लेशियरों के पिघलने और इसके परिणामस्वरूप बर्फानी झीलों के फटने की प्रवृत्ति को गम्भीरता से लिये जाने की जरूरत बतायी है।

5. निचले द्वीप व देशों का अस्तित्व संकटमय होगा:-

        विश्व के दो सबसे छोटे असइलैंड देशों कीरीबती एवं तुवेलू का अस्तित्व संकट में है। समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण वे डूबने ही वाले हैं। इन देशों का अस्तित्व संकट में हैं, वैज्ञानिकों की चेतावनी के बाद भी न सँभलने का मालद्वीप एवं बंगाल की खाड़ी के ‘सागर-द्वीपसमूह’ में पाँच में से तीन द्वीपों का अस्तित्व संकट में है।

       आइसलैंड फोरम की नौरा में हाल ही सम्पन्न बैठक में तुवेलू के मामले में चर्चा हुई, जो कि समुद्र तल से सिर्फ पाँच मीटर ऊँचा है। यह देश कब डूब जाए, कहा नहीं जा सकता। इससे 12 हजार लोगों की जान खतरे में है।

6. जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य संकट होगा-

      पर्यावरणविद् या मौसम वैज्ञानिक वार्मिंग के अनुसार कई तरह की बीमारियों के पैदा होने का खतरा बढ़ गया है। साथ ही इसका हमारे पर्यावरण पर भी बहुत बुरा असर देखने को मिल रहा है। ब्रिटेन जैसे विकसित देश में भी जलवायु के कारण बदलते मौसम ने कई समस्याएँ खड़ी कर दी हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि अमेरीका व अन्य चुनिंदा देशों की तरह ब्रिटेन की भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से अग्रणी भूमिका रही है। ब्रिटेन के नागरिक भी अब गरीब देशों की समझी जाने वाली उष्ण कटिबन्धीय बीमारियों की चपेट में आने लगे हैं।

      ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस तरह के आकलन में पाया कि हर वर्ष गर्मी के मौसम के तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है, जो यहाँ नागरिकों को मलेरिया और डेंगू के अलावा जोड़ों की बीमारियाँ दे रहा है। ब्रिटिश स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह चेतावनी दी है कि अगले 20 वर्षों में यहाँ के वायुमण्डल के तापमान में जो बढ़ोत्तरी होगी, उससे ग्रीष्मकाल के दौरान अनुमानतः आधे इंग्लैण्ड में महामारियों का संकट उठ खड़ा होगा। इसके अलावा विषाक्त भोजन के मामले में भी बढ़ोत्तरी हो रही है।

      एक अनुमान के अनुसार ग्रीष्माकाल में ब्रिटेन में भोजन विषाक्त के दस हजार, लू के दो हजार और त्वचा कैंसर के पांच हजार नये रोगियों की संख्या हर वर्ष बढ़ जायेगी। ग्लोबल वार्मिंग का ऐसा प्रभाव इस रूप में देखने को मिलेगा कि गर्मियों के बाद भीषण शीत, हृदयघात से मरने वालों की संख्या बढ़कर 80 हजार तक पहुँच जायेगी। इसके बाद सन् 2020 तक इस संख्या में 15 हजार और सन् 2050 तक पाँच हजार नये रोगियों के बढ़ने की आशंका वैज्ञानिक जता चुके हैं।

       ब्रिटिश स्वास्थ्य मंत्रालय के वैज्ञानिक प्रो. डोनाल्डसन तो और भी भयावह तस्वीर पेश करते हैं। उनके अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण देश में जटिल किस्म की उष्ण कटिबन्धीय बीमारी “नील फीवर” का प्रसार हो सकता है।

निष्कर्ष

    संक्षेप में, जलवायु परिवर्तन के पृथ्वी प प्रभाव के बारे में हो सकता है कि हम अधिक आँक हे हों, लेकिन यह भी हो सकता है कि हम वास्तविकता से कम आँक रहे हैं, इसलिये जरूरी है कि ग्रीन हाउस गैस सान्द्रता को घटाने के लिये हम प्रभावशाली कदम बढ़ायें।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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