8. What do you understand by Air Pollution? Throw light on its classification, Causes, Effects and Control Measures (वायु प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके वर्गीकरण, कारण, प्रभाव तथा नियंत्रण के उपाय पर प्रकाश डालें।)
8. What do you understand by Air Pollution? Throw light on its Classification, Causes, Effects and Control Measures.
(वायु प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके वर्गीकरण, कारण, प्रभाव तथा नियंत्रण के उपाय पर प्रकाश डालें।)
वायु प्रदूषण से आशय वायु में प्रदूषक तत्व ठोस, द्रव अथवा गैसीय रूप में इस सीमा अथवा इस सान्द्रता तक मिल जायें जो मनुष्य, जीव-जन्तु, वनस्पति, सम्पत्ति के लिए हानिकारक हो, साथ ही प्रदूषक तत्व मानवीय स्वास्थ्य एवं क्षमता पर विपरीत प्रभाव छोड़े, उसे वायु प्रदूषण के अन्तर्गत माना जाता है।
दूसरे शब्दों में, “वायु प्रदूषण से आशय वायु का प्राकृतिक गुणवत्ता में प्रतिकूल परिवर्तन है। वायु के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में ऐसा कोई भी ऋणात्मक परिवर्तन या ह्रास जिसके द्वारा स्वयं मनुष्य तथा अन्य जीव-जन्तुओं के जीवन, परिस्थितियों, औद्योगिक प्रक्रमों तथा सांस्कृतिक सम्पत्ति को हानि पहुँचे, वायु प्रदूषण कहलाता है।”
पार्किन्स हेनरी के अनुसार, “वायुमण्डल में गैसें निश्चित मात्रा तथा अनुपात में होती हैं। जब वायु अवयवों में अवांछित तत्व प्रवेश कर जाते हैं तो उनका मौलिक संगठन बिगड़ जाता है। वायु के दूषित होने की यह प्रक्रिया वायु प्रदूषण कहलाती है।” वायुमण्डल में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन (N2), 21 प्रतिशत ऑक्सीजन (O2) तथा 0.03 प्रतिशत (CO2) शेष निष्क्रिय गैसें हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, “वायु प्रदूषण एक ऐसी स्थिति है जिसमें बाह्य वातावरण में मनुष्य और उसके पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले तत्व सघन रूप से एकत्रित हो जाते हैं।”
“वायु प्रदूषण उन परिस्थितियों तक सीमित रहता है जहाँ बाहरी परिवेशी वायुमण्डल में दूषित पदार्थों अथवा प्रदूषकों की सान्द्रता जीवों को हानि पहुँचाने की सीमा तक बढ़ जाते हैं।”
प्रदूषक- हमारे द्वारा उपयोग में लाये गये पदार्थों के अवशेष या बनाये गये पदार्थ पर्यावरण को किसी न किसी प्रकार प्रदूषित करते हैं। ऐसे पदार्थों को प्रदूषक कहते हैं। वायु प्रदूषकों को उनकी उत्पत्ति, रासायनिक गठन, प्रदूषक स्रोतों के आधार पर तीन प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।
वायु प्रदूषण का वर्गीकरण (Classification of Air Pollution)
1. उत्पत्ति के आधार पर-
उत्पत्ति के आधार पर वायु प्रदूषकों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(क) प्राथमिक प्रदूषक- वे प्रदूषक हैं जो लम्बी प्राकृतिक एवं कृत्रिम प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न होकर सीधे वायुमण्डल में जा मिलते हैं जैसे कार्बन डाइ-ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और अन्य हाइड्रोकार्बन।
(ख) द्वितीयक प्रदूषक- वे हैं जो प्राथमिक प्रदूषकों के साथ वातावरण के अन्य तत्वों से प्रतिक्रिया करके कुछ यौगिक बनाते हैं और क्षेत्र को गहन प्रदूषित क्षेत्रों में परिवर्तित कर देते हैं। उदाहरणार्थ- सल्फर डाइ-ऑक्साइड वर्षा ऋतु में जल वाष्प से मिलने पर गन्धक का अम्ल बनाकर अम्लीय वर्षा करके समस्त पर्यावरण को अत्यधिक क्षतिग्रस्त करती है।
2. रासायनिक गठन के आधार पर-
वायु प्रदूषकों को रासायनिक गठन के आधार पर निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(क) कार्बनिक प्रदूषक- जैसे- कार्बन, हाइड्रोजन, परागकण आदि।
(ख) अकार्बनिक प्रदूषक- जैसे- नाइट्रोजन, सल्फर, धातुकण आदि।
3. प्रदूषक स्वरूप के आधार पर-
वायु प्रदूषकों को उनके स्वरूप के आधार पर निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(क) सूक्ष्म लम्बित कण,
(ख) वाष्पीय,
(ग) गैसीय प्रदूषक।
(क) सूक्ष्म लम्बित कण या कणिकाएँ-
यह विभिन्न पदार्थों के सूक्ष्मतम कण हैं, जो वायुमण्डल में नयूनतम भार के कारण वातावरण में लटके रहते हैं। जैसे- धूल, ज्वालामुखी राख, धुँआ, फ्लाईऐश आदि विभिन्न कार्बनिक पदार्थ जलने से तथा अधजले ईंधन से खनिज पदार्थों के सूक्ष्म कण जो वायु में लटके रहते हैं। इन कणों की अधिकता पर्यावरण को प्रदूषित करती है। अर्द्धजलित ईंधन, वेंजोपाइरिन जो कारसैनोजैनिक (कैंसर कारक) पदार्थ है। यह कैंसर कारक पदार्थ हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में विगत दशकों में सर्वाधिक पाया गया था। भारतवर्ष में मुम्बई में यह सर्वाधिक है जहाँ यह 30 U.G./M3 हैं। जबकि निर्धारित मात्रा 200 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है।
दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई आदि मेट्रोपोलिटन शहरों में डीजल, ईंधन दहन से भी अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थ वायुमण्डल में सुबह-शाम बड़ी मात्रा में मिलते हैं। सूक्ष्म लम्बित कणों की अधिकता से वातावरण धुंधला हो जाता है और परस्पर दृश्यता घट जाती हैं जो वायु परिवहन को कुप्रभावित करती है। कोयला, चूना और अन्य खनन प्रक्रियाओं से वातावरण में सूक्ष्म कणिकायें संख्या में बढ़ जाती हैं। वातावरण में इनकी अधिकता से कोहरा, धुंध आदि भी अधिक गहन होती है। इन कणों की अधिकता से वस्त्रों, घरों एवं शारीरिक स्वच्छता पर भी अधिक व्यय होता है।
कानपुर, भिलाई, सतना, मैहर आदि में यह व्यय स्पष्ट दिखाई देता है। म. प्र. की खुली खदान, कोयला उत्पादन क्षेत्र सिंगरौली एवं जयन्त कालरी की उड़ी धूल के प्रदूषित क्षेत्र में आम और नींबू के उत्पादन में विगत 8-10 वर्षों में कमी हो गई है। इसी प्रकार चूना भट्टी क्षेत्र एवं सीमेंट, औद्योगिक क्षेत्रों (सतना, मैहर) में मिट्टी, जल एवं हवा की प्राकृतिक गुणवत्ता में ऋणात्मक परिवर्तन या ह्रास हुआ है जो वनस्पति में ह्रास से प्रमाणित होता है। दिल्ली में धूल (लम्बित कणों) की मात्रा सर्वाधिक 700 U.G/M3 है।
भारत में ग्रामों, कस्बों में भी सुबह-शाम धूल कणों की मात्रा रहती है। जबकि न्यूयार्क, लन्दन और पश्चिमी देशों में तुलनात्मक दृष्टि से लम्बित कणों की मात्रा कम है।
(ख) वाष्प-
सामान्यतः द्रव या ठोस में पाये जाने वाले पदार्थ की गैसीय अवस्था वाष्प कहलाती है। उदाहरणार्थ नन्हीं-नन्हीं जल की बूंदें (Droplets), कोहरा (Fog), धूम्र (Smoke) तथा ओस जल के वाष्पीय रूप का संघनन है।
(ग) गैस-
द्रव्य की तीन अवस्थाओं में से यह एक है जिसका कोई स्वतंत्र आकार तथा आयतन नहीं होता तथा फैलने की असीमित क्षमता रखती हैं, वह गैस कहलाती है। पारिस्थितिक संतुलन के लिए सभी गैसों का प्राकृतिक रूप निर्धारित मात्रा में पाया जाना अति आवश्यक है, उपयोगी है। इसके विपरीत इनकी मात्रा में अधिकता अथवा न्यूनता दोनों ही घातक हैं।
(i) सल्फर डाइ-ऑक्साइड (SO2)-
कोयला, कोक या तैलीय ईंधन के रूप में जलाये जाने पर यह गैस बड़ी मात्रा में निकलती है। अनुमानतः 100 टन कोयला जलाने पर 3 टन सल्फर डाइऑक्साइड उत्पन्न होती है। गन्धक युक्त ईंधन के दहन से 78 प्रतिशत गैस, कोयले से 18 प्रतिशत, तेल तथा अनेक औद्योगिक प्रक्रियाओं से शेष 4 प्रतिशत उत्पन्न होती हैं। तापीय विद्युत गृहों जैसे मिर्जापुर तापीय विद्युत गृह में 9000 मीट्रिक टन कोयला प्रतिदिन प्रयुक्त होता है। इससे 45 से 182 मीट्रिक टन सल्फर डाइ-ऑक्साइड निकटवर्ती पर्यावरण में प्रतिदिन मिलती है। इसके निकटवर्ती क्षेत्र में इसके प्रभाव से डोलोमाइट चट्टानें शीघ्रता से अपरक्षित हो रही हैं। तापीय विद्युत गृह के अति निकट की वनस्पति में पर्णहरित (क्लोरोफिल) की मात्रा कम गयी है तथा पत्तियों के नुकीले सिरे मुड़कर सूख गये हैं।
इस गैस के प्रभाव से पेड़-पौधों की पत्तियों के किनारे तथा मध्य शिरा का स्थान सूख जाता है और इसकी मात्रा अधिक हुई तो पेड़-पौधों की कोशिकाएँ मर जाती हैं। आम के वृक्षों पर इसका प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। साथ ही यहाँ की मिट्टी भी अम्लीय हो गयी है। जिससे मिट्टी में खनिज तत्व असंतुलित हो गया है। अपघटन की प्रक्रिया बाधिक हो गयी है और अति अम्लीय मिट्टी एवं दलदली क्षेत्रों में अपक्षय की प्रक्रिया तीव्र हो गयी है। अम्लीयता की इस वृद्धि के फलस्वरूप प्रकाश को कम करती है जिससे कृषि जगत को हानि पहुँचती है। अत: संक्षिप्त में कह सकते हैं कि यह एक विषैली गैस है। आँख, नाक, गले में खराश तथा श्वसन रोगों की वृद्धि करती है। दमा, ब्रोंकाइटिस जैसे रोगों को बढ़ाती हैं। इसलिए महानगरीय भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में चिकित्सक के आँखों में जलन न हो इसीलिए वाहन चालकों को चश्मा लगाने की सलाह देते हैं। इसमें निहित बेन्जोपाइरीन कैंसर जैसी भयानक बीमारियों को जन्म देती है।
(ii) कार्बन मोनो ऑक्साइड (CO)-
75 प्रतिशत कार्बन मोनोऑक्साइड परिवहन के साधनों से विशेषकर पेट्रोल इंजन से निकलती है। जीवाश्म ईंधन के अधूरे जलने पर यह अधिक मात्रा में उत्पन्न होती है जैसा कि मोटर वाहनों में प्रायः देखने को मिलता है। विगत दशकों में मोटर गाड़ियों तथा स्कूटर्स की महानगरीय क्षेत्रों में इतनी अधिक वृद्धि हुई है कि इनका कुप्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होने लगा है। कार्बन मोनोअक्साइड की थोड़ी मात्रा भी खतरनाक है, यह हीमोग्लोबिन (मानव रक्त में पाया जाने वाला ऑक्सीजन वाहक) पर अपना प्रभाव ऑक्सीजन की तुलना में 200 गुना तेजी से डालती है। इसकी भयावहता की कल्पना करें कि यदि हम ऐसे पर्यावरण में रहे जिसके 100 भाग में ऑक्सीजन एवं एक भाग में कार्बन मोनोऑक्साइड हो तो ऐसी स्थिति में हमारे रक्त में कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा ऑक्सीजन की तुलना में दूनी होगी। इससे हमारे शरीर में ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है।
यह तंत्रिकातंत्र (Nervous System) को कुप्रभावित करती है। फेफड़ों को जख्मी बनाती है। रक्त में हीमोग्लोबिन घटकर सिरदर्द, बेहोशी तथा मृत्यु के लिये उत्तरदायी है। हृदय रोगी के लिये घातक है। इसके दुष्परिणाम, अत्यधिक जनसंख्या, भीड़-भाड़ वाले चौराहों जहाँ आधुनिक परिवहन के साधन हों तथा कोयले का बड़ी मात्रा में प्रयोग हो ऐसे क्षेत्रो में देखने को मिलती हैं। चौराहों पर तैनात ट्रैफिक पुलिस के सिपाही पर इसका सबसे घातक प्रभाव होता है।
3. कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2)-
कार्बन मोनोऑक्साइड स्वतंत्र अवस्था में नहीं रह पाती, इसीलिए कार्बन डाइ-ऑक्साइड में बदल जाती है। वर्तमान में कोयला, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस, लकड़ी बड़ी मात्रा में जलायी जा रही है। अति नगरीकरण, औद्योगीकरण और जनसंख्या वृद्धि से विगत किसी भी सभ्यता की तुलना में अधिक कार्बन डाइ-ऑक्साइड उत्पन्न हो रही है। प्रौद्योगिक क्रान्ति के बाद CO2 की मात्रा में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है जबकि 1958 के बाद 11 प्रतिशत। यदि इसी प्रकार से वृद्धि होती रही तो अगले 30-40 वर्षों में तापमान 30 से 50 डिग्री से अधिक हो जायेगा। जिससे हरित गृह प्रभाव से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। विभिन्न ग्रहों का तापमान कार्बन डाइ ऑक्साइड की सान्द्रता पर निर्भर करता है।
विगत शताब्दियों की तुलना में आज के औद्योगिक युग में कार्बन डाइ-ऑक्साइ दुगनी मात्रा में निकल रही है। जिसको सन् 1980 में सर्वाधिक माध्य तापमान सन् 1930 की तुलना में 20 डिग्री सेल्सियस अधिक हो गया। साथ ही CO2 के अधिभार का प्रभाव वनस्पतियों पर दो प्रकार से होगा। CO2 की बढ़ी मात्रा में प्रजनन प्रक्रिया बढ़ेगी और वानस्पतिक उत्पादन बढ़ेगा। दूसरे तापमान से जलवायु बदलेगी जिससे फसल प्रारूप शस्य तीव्रता समय व क्षेत्रों में परिवर्तन होगा। इसके अतिरिक्त हानिकारक गैसें सिल्वर ऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड हैं जो पवन स्टेशनों से निकलती हैं। विद्युत केन्द्रों से निकलने वाली अधूरी ज्वलनशील गैसों को पूर्ण रूप से जलाने के लिए विद्युत केन्द्रों में “द प्लेयर” नामक उपकरण लगाकर कार्बन मोनोऑक्साइड से छुटकारा पाया जा सकता है।
4. हाइड्रोकार्बन-
हाइड्रोकार्बन का मुख्य स्रोत परिवहन के साधनों से 56 प्रतिशत, उद्योगों से 16 प्रतिशत, कार्बन विलायकों से 9 प्रतिशत तथा अन्य द्वारा 8 प्रतिशत होता है। पेट्रोल (गैसोलिन) के दहन से पैराफीन तथा एरोमेटिक्स जैसे हाइड्रोकार्बन निकलते हैं जो अन्य गैसों के सहयोग से विषाक्त हो जाते हैं। इनमें बेन्जोपायरिन बहुकेन्द्रित हाइड्रोकार्बन निकलते हैं जो अन्य गैसों के सहयोग से विषाक्त हो जाते हैं। इनमें बेन्जोपायरिन बहुकेन्द्रित हाइड्रोकार्बन मुख्य हैं। ये पदार्थ वायुमण्डल में स्वतंत्र अणुओं के रूप में विद्यमान रहते हैं तथा वाहक कणों द्वारा अवशोषित होकर फेफड़ों तक पहुँच कर कैंसर के लिए उत्तरदायी हैं। यह अर्धजलित जीवाश्म ईंधन, फेफडों में पायी जाने वाली श्लेष्मा झिल्ली को क्षतिग्रस्त करता है। साथ ही सड़ने, गलने से मीथेन और हाइड्रोजन सल्फाइड गैसें उत्पन्न होती हैं। वाहनों से निसृत होने वाले हाइड्रोकार्बन से मुक्ति पाने के लिये यदि मोटर कार में “रिसाईकलर” लगवा दिये जायें तो हाइड्रोकार्बन से छुटकारा मिल सकता है। एक अन्य उपकरण जो महँगा है “मफलर” से 90 प्रतिशत प्रदूषण समाप्त किया जा सकता है।
5. कार्बनिक प्रदूषक (Organic Pollutants)-
भूसा, कार्बन के कण, परागकण तथा विशेष दुर्गन्धयुक्त पौधे भी पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। सेमल, अकडआ, यूकेलिप्ट, फर्न, आम और अन्य फलों के परागकण मौसम विशेष में एलर्जी उत्पन्न करते हैं।
वायु प्रदूषण के कारण (Causes of Air Pollution)
वायु प्रदूषण के निम्नलिखित कारण है:-
1. परिवहन के साधन-
बस, ट्रक, टेम्पो, कारें, स्कूटर्स, चलती-फिरती लघु फैक्ट्रि ही हैं जो दिन-रात घूम-घूम कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रदूषक तत्वों को फैलाती रहती हैं। नगरीय वायु में वाहन प्रदूषण सर्वप्रमुख स्रोत हैं। नगरों के बढ़ते आकार और अनियन्त्रित जनसंख्या वृद्धि से परिवहन के साधनों की संख्या अत्यधिक तेजी से बढ़ रही है। मोटर वाहन कार्बन मोनोऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड के सबसे बड़े उत्पादक हैं। मोटर वाहनों में मुख्यतः एक्जॉस्ट पाइप, क्रेक केश, कार्बोरेटर एवं ईंधन की टंकी प्रदूषण के मुख्य अंग हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार निकास पाइप से निकलने वाला हाइड्रोकार्बन लगभग सारी कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा सीसा 55 प्रतिशत, टंकी व कार्बोरेटर से हाइड्रोकार्बन (20 प्रतिशत) तथा क्रेश टैंक से निकलने वाला (25 प्रतिशत) पदार्थ प्रदूषण का कारक होता है। कार से कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा 3 प्रतिशत निकलती है जबकि दुपहियों से 45 प्रतिशत।
पेट्रोल वाहनों में डीजल की तुलना में अधिक प्रदूषण होता है क्योंकि पेट्रोल वाहन कार्बन मोनो-ऑक्साइड तथा सीसा अधिक छोड़ते हैं। जबकि डीजल से हाइड्रोकार्बन व नाइट्रोजन की मात्रा पेट्रोल वाहनों में घूँए के बराबर होती है। दिल्ली में पहले से 20 लाख मोटर गाड़ियाँ अधिक थीं। इसी कारण फ्लाई ओवर ब्रिज बनाये जा रहे हैं। दिल्ली में पिछले दशक में 10 लाख 70 हजार वाहनों की वृद्धि दर्ज की गयी है। अनुमान है कि प्रत्येक कार्य दिवस पर 600 से 800 गाड़ियाँ बढ़ जाती हैं। वाहन महानगरीय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।
वित्त विशेषज्ञों के अनुसार आज देश का सकल घरेल उत्पाद (डी.जी.पी.) 7.5 प्रतिशत से 8 प्रतिशत है जिससे मध्यम और मध्यम-उच्च वर्ग की क्रय शक्ति 12 से 18 प्रतिशत के मध्य बढ़ी है। इसी कारण भारत में सन् 1999-2000 में 17,61,439 मोटर साइकिलें बिकी थीं वहीं 2002-03 में 37,05,893 ज्यादा बिकी हैं। उस पर भी 85 प्रतिशत ऋण सुविधा है।
अत: एक अनुमान के अनुसार 550 टन प्रदूषक तत्य प्रतिदिन मुम्बई के पर्यावरण में मिलाये जा रहे हैं। मुम्बई में लगभग 4,00,000 मोटर गाड़ियाँ हैं और लगभग 100 वाहन प्रतिदिन अथवा 4 वाहन प्रति मिनट जुड़ रहे हैं। इनमें लगभग 15 हजार गाड़ियाँ तथा 6 हजार ट्रक प्रतिदिन आते-जाते हैं। इस प्रकार मुम्ब नगर में 48.5 प्रतिशत प्रदूषण मोटर गाड़ियों से मिल रहा है। विश्व में वर्तमान में 51 प्रतिशत वायु प्रदूषण आधुनिक परिवहन के साधनों से हो रहा है। भारत में 60 प्रतिशत वाहन प्रदूषण की दृष्टि से अयोग्य हैं जो प्रदूषण फैला रहे हैं।
2. औद्योगिक क्रिया-कलाप-
वायु प्रदूषण में एक अहम् भूमिका का निर्वाह औद्योगिक क्रिया-कलाप करते हैं। कदाचित आज के युग में वायु प्रदूषण का यह प्रमुख स्रोत है जिससे सभी प्रकार का प्रदूषण पैदा होता है। प्रदूषण उद्योगों की प्रकृति पर निर्भर है। कच्चा माल, शक्ति के साधन और प्रक्रिया प्रदूषण की मात्रा और रूप को तय करती है। ऊर्जा के लिये कोयला, आणविक विखण्डन, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस तथा विद्युत का उपयोग होता है । इन उद्योगों से बड़ी मात्रा में निसृत गहरा काला धुँआ प्रमुख प्रदूषक तत्व हैं।
औद्योगिक प्रक्रिया में निसृत गैसें विखण्डन तथा घिसाई पिसाई से निकले विभिन्न पदार्थ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। यद्यपि सभी उद्योगों में थोड़ी मात्रा में प्रदूषण होता है किन्तु कुछ ऐसे उद्योग हैं जिनसे बहुत बड़ी मात्रा में पर्यावरण हास होता है; यथा- सीमेन्ट, रासायनिक उर्वरक, चमड़ा, कागज, सूती वस्त्र, शक्कर, डिस्टिलरी उद्योग आदि हैं। वायु प्रदूषण के घातक परिणाम वस्तुतः उद्योगों के साथ प्रारम्भ छुआ है।
वर्तमान में उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से वायुमण्डल में निरन्तर द्रव व ठोस तत्व छोड़े जा रहे हैं। धूल, राख, कार्बन कण, हाइड्रोकार्बन तथा जहरीली गैसें उत्पन्न होती हैं। उद्योगों से होने वाला प्रदूषण वर्तमान में कुल प्रदूषण का 14 प्रतिशत है।
3. ईंधन उपयोग-
लकड़ी, कोयला, पेट्रोल आदि जीवाश्म ईंधन का उपयोग हमें ऊर्जा एवं ऊष्मा प्राप्ति के लिए करना पड़ता है। सर्वप्रथम घरेलू कार्यों के लिये अथवा मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लकड़ी गोबर (उपले), लकड़ी का कोयला, पत्थर का कोयला, मिट्टी का तेल, गोबर गैस (मीथेन) और कुकींग गैस (मीथेन), ईथेन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइ ऑक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड, हाइड्रोजन साइनाइट जैसी गैसें तथा ईंधन के अपूर्ण दहन के फलस्वरूप अनेक हाइड्रोकार्बन तथा साइक्लिक पाइरिन यौगिक उत्पन्न होते हैं।
ऑक्सीजन का बड़ी मात्रा में उपयोग होता है और कार्बन डाइ-ऑक्साइड उससे भी अधकि मात्रा में पैदा होती है जिससे पर्यावरण में असन्तुलन उत्पन्न होता है। घरेलू ईंधन का दहन कुल प्रदूषण के 10 प्रतिशत के लिये उत्तरदायी है।
4. अपशिष्ट पदार्थ के सड़ने से (Decomposition of the waste material)-
इससे तीन प्रतिशत वायु प्रदूषित होकर प्रदूषण फैलाती है।
5. कृषि कार्य (Agriculture Work)-
संयुक्त राज्य अमेरिका में तथा अन्य पश्चिमी देशों में कीटाणुनाशक दवाइयों का छिड़काव हेलीकॉप्टर से प्रारम्भ हुआ जिससे पश्चिमी देशों में कीटाणुनाशक विषाक्त पदार्थ जैसे डी.डी.टी., हवा में उड़ने वाले पदार्थों ने पर्यावरण को और विशेषकर वायु प्रदूषण को जन्म दिया। कृषि एवं अन्य ईंधन दहन से 15 प्रतिशत वायु प्रदूषित होती है ।
6. धूल-
परिवहन, उद्योगों और औद्योगिक कार्यों से बड़ी मात्रा में धूल उड़कर पर्यावरण प्रदूषित करती है। ग्रीष्म ऋतु में लम्बित कणों की मात्रा निर्धारित मानक से तिगुनी-चौगुनी हो जाती है।
वायु प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Air Pollution)
वायु प्रदूषण के स्पष्ट प्रभाव निम्नलिखित बिन्दुओं में व्यक्त किये जाते हैं।
1. स्वास्थ्य पर प्रभाव-
वायु में उपस्थित सूक्ष्मतल धूल कण, गैसें तथा धात्विक कण विभिन्न बौमारियों के जनक हैं। सीसा विषाक्तता, शिशुओं की मस्तिष्क क्षमता को क्षति पहुँचाता हुआ मृत्यु की ओर खींच ले जाता है तथा प्रौढ़ों के तन्त्रिका तन्त्र को निर्बल बनात है। गैसोलिन के धुंए से बड़ी मात्रा में सीसा वातावरण में मिलता है जो श्वसन सम्बन्धी रोग को जन्म देता है। संक्षेप में सीसा जो पेट्रोल दहन से मिलता है स्वास्थ्य के लिए अत हानिकारक है। इससे रक्त में हीमोग्लोबिन (जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है) की मात्रा प्रभावित होती है। खून में सीसे का स्तर बढ़ जाने से एनीमिया होने की आशंका बढ़ जाती है और कभी भी एन्जाइम्स तत्व प्रभावित हो सकते हैं, सीसा की मात्रा कैडमियम श्वसन तन्त्र के लिए विष है । यह उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोगों को बढ़ाता है।
गुर्दे एवं यकृत में एकत्र होने पर वृहद, तनाव (हाइपरटेन्सन), फेफड़े के रोगा को बढ़ावा देता है । वातावरण में पारा की अधिकता, दृष्टि दोष, मासंपोशियों में शैथिल्य, लकवा, पागलपन, बेहोशी तथा मृत्यु तक ला सकता है। एस्बेस्टस के रेशे क्रोनिक फेफड़ों की बीमारियों, कैंसर तथा यकृत की बीमारियों के लिए उत्तरदायी है। सल्फर डाइऑक्साइड फेफड़ों की बीमारियों को बढ़ाती है। गंधक फेफड़ों में खिरजराहट (Irritation) पैदा करता है।
गैस रूप में दमा, ब्रोंकाइट्स बढ़ाता है । नाइट्रिक ऑक्साइड जो ऑटोमोबाइल के अपूर्ण दहन से उत्पन्न होती है, यह रक्त में ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता का ह्रास करती है। नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड (N2O2) फेफड़ों को क्षतिग्रस्त तथा आँखों में खुजली उत्पन्न करती है। कुछ हाइड्रोकार्बन विशेषताओं वाले बेन्जापायोरीन अणु वायु से मिलकर कैंसर उत्पन्न कर मृत्यु की ओर धकेलते हैं। हाइड्रोकार्बन और नाइट्रोजन ऑक्साइड रासायनिक क्रिया कर पान (PAN-Pyorine and itric Oxide) जैसे यौगिक बनाते हैं जो आँखों और फेफड़ों को कुप्रभावित करते हैं।
कार्बन मोनोऑक्साइड एक विषाक्त गैस है जो वर्तमान में जीवाश्म ईंधन के अपूर्ण दहन से उत्पन्न होती है और शीघ्र ही हानिकारक प्रभाव छोड़ती हुई वातावरण से ऑक्सीजन अवशोषित कर कार्बन डाइ ऑक्साइड में बदल जाती है। आधुनिक परिवहन के साधन इस गैस को नगरों के सघन जनसंख्या के क्षेत्र में छोड़ते हैं। जिससे महानगरीय भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में हीमोग्लोबिन की क्षति से सिर दर्द, मानसिक क्षमता ह्रास तथा बेहोशी तक अनुभूत होती है।
इसी प्रकार ओजोन गैस आँखों में पीड़ा, सीने में दर्द तथा खाँसी उत्पन्न करती है। लोहे की खानों में काम करने वाले मजदूरों को लौह एवं सिलिका को धूल मिलकर “साईडोसिलिकोसिस’ रोग हो जाता है। लगभग 24 प्रतिशत खनिज मजदूर इस रोग से ग्रसित हो जाते हैं।
कोयला की खदानों में काम करने वाले खनिकों को “फुफ्फस धूलमयता” रोग हो जाता है। धनबाद कोयला खदान में किये परीक्षण के अनुसार 3.7 प्रतिशत खनिक इस रोग से पूर्णतया प्रसित पाये गये एवं 11.7 प्रतिशत खनिकों को इसकी आशंका थी। इसी प्रकार झरिया कोयला क्षेत्र के खनिकों में 19 प्रतिशत लोग इस रोग से ग्रस्त थे। मध्य प्रदेश में सिंगरौली खुली खदान से उड़ी धूल तथा धुंआ से प्रभावित होकर सुबह काले रंग के कफ निकलने की शिकायत करते हैं।
सतना में हर सातवाँ व्यक्ति एलर्जी अथवा दमे का रोगी है, यहाँ लम्बित कण चौक तथा कोतवाली के पास अपने निर्धारित मापदण्ड से दुगुने और तिगुनी मात्रा में पाये जाते हैं। इसी प्रकार सागर में 996.29 माइक्रोग्राम पाए गये हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में धूल से हर वर्ष 16 हजार नये रोगी बन जाते हैं। यहाँ 1044.02 माइक्रोग्राम से अधिक रिकार्ड की गयी है। रायपुर मार्ग सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्र है ।
संक्षेप में, सीसा विषाक्त जो पेट्रोल से वायुमण्डल में मिलता है, स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है। इससे रक्त में होमोग्लोबिन (जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है) की मात्रा प्रभावित होती है। खून में सीसे का स्तर बढ़ जाने से एनीमिया की आशंका बढ़ जाती है और इसकी कमी से एन्जाइम तन्त्र प्रभावित होते हैं। सीसा की मात्रा बढ़ जाने से गुर्दे भी फेल हो सकते हैं तथा बच्चों का कद भी छोटा रह जाने का डर बना रहता है। उक्त शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य पर प्रदूषण हानिकारक प्रभाव छोड़ता है जिससे मानसिक समस्यायें जन्म लेती हैं ।
2. पेड़-पौधों पर प्रभाव-
बहुत से पौधे वायु प्रदूषण के प्रति मनुष्यों, पशुओं और पक्षियों से भी अधिक सुग्राही हैं। इसलिए इनको प्रदूषक सूचक पौधे भी कहा जाता है जो हानिकारक सन्दूषण को प्रदर्शित करते हैं। गन्धक और गन्धक के ऑक्साइड का प्रभाव अंगूर, कपास, सेव के पौधों में स्पष्ट देखा जा सकता है जहाँ इनकी संख्या और उत्पादन घट जाता है । इसी प्रकार नाइट्रोजन के ऑक्साइड पेड़-पौधों की वृद्धि को रोक देते हैं।
फ्लोरीन (Flourine) तीसरा तत्व है जो पेड़-पौधों को कुप्रभावित करता है। ओजोन से पत्तियों के ऊतक जल जाते हैं जिससे सब्जियाँ, फल, फूल तथा वन वृक्ष भी क्षतिग्रस्त होते हैं। तम्बाकू की पत्तियाँ ओजोन के प्रति बड़ी सुग्राही होती हैं। (राव, सी.एस.जी., 1972) प्रदूषक कण पत्तियों के ऊपर जम जाते हैं जिससे पेड़ों की जैविक क्रियाएँ प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन बनाने की क्रिया विशेषतः बाधित हो जाती है। कालान्तर में पत्ते पीले होकर गिर जाते हैं। मार्गों एवं महानगर में सड़कों के किनारे लगे वृक्षों के पत्तों को देखकर यह तथ्य प्रमाणित हो जाता है।
वायु प्रदूषण का प्रत्यक्ष प्रभाव आम, पीपल, जामुन के पेड़ों पर और उसके उत्पादन की किस्म को देखकर किया जा सकता है। तापीय विद्युत गृहों के निकट इनके फल, पत्तियाँ छोटे तथा कम हो गये, साथ ही आम समय पर बौराया (फूला) नहीं।
3. पर्यटन स्थलों पर प्रभाव-
औद्योगिक केन्द्रों से निकले रासायनिक धुँए से शैल एवं भित्तिचित्रों पर सफेद रंग की पर्त जम जाती है जो कालान्तर में क्षरण होता है। म. प्र. में मण्डीदीप (भोपाल) की औद्योगिक इकाइयों से निकलते धुएँ ने भीम बैठका की 750 गुफाओं को क्षतिग्रस्त कर दिया है। आगरा में विश्व प्रसिद्ध ताजमहल एवं वह महल जहाँ शाहजहाँ कैद रहा. के सफेद संगमरमर में पीलापन दिन-प्रतिदिन बढ़ना विवाद का विषय है।
4. मौसम पर प्रभाव-
हम भली-भाँति जानते हैं कि सघन महानगरीय क्षेत्र (सी.बी. डी.) तथा सघन आवासीय क्षेत्रों का तापमान उपनगरीय और उपान्त क्षेत्रों की तुलना में अधिक रहता है। महानगरों के मध्य का तापमान धूल, धुंआ और जैविकीय प्रक्रियाओं से दो-तीन डिग्री सेल्सियस अधिक रहता है। औद्योगिक क्षेत्रों में आमेनिया सल्फेट और न्य के अम्ल वाष्प या कुहरा लम्बवत् तापमान को प्रभावित करता है।
5. अर्न्तदृश्यता पर प्रभाव-
कार्बन के कण धूल, धुंआ, नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा सल्फर के ऑक्साइड वातावरण में प्रकाश को कम कर अन्तर्दृश्यता घटा देते हैं। अन्तर्दृश्यता का ह्रास आर्थिक क्रिया-कलापों, परिवहन में बाधा तथा मनोवैज्ञानिक मानसिक दबाव प्रदूषण, भय की आशंका बढ़ाती है। इससे हवाई अड्डों, बन्दरगाहों और परिवहन मार्गों पर महानगरों में दुर्घटनाओं की आशंकाएँ बढ़ जाती हैं। कोहरे के कारण जाड़ों में उत्तर से आने वाली ट्रेन प्रायः देरी से चलने लगती हैं।
6. पर्यावरणीय संकटों की तीव्रता पर प्रभाव-
वायु प्रदूषक (एरोसोल) बादल, तापमान तथा वर्षण को प्रभावित करते हैं । औद्योगिक एवं परिवहन से निसृत कार्बन डाइ-ऑक्साइड के हरित गृह प्रभाव उल्लेखनीय हैं। क्लोरोफ्लोरो कार्बन के ओजोन पर्त के ह्रास के दुष्परिणामों की चर्चा पिछले 25 वर्षों से हो रही है।
7. अन्य प्रभाव-
ओजोन सूती वस्त्रों के रंग को उड़ा देती है। सल्फर प्रदूषण पेन्ट्स को | उड़ा देते हैं तथा रबड़ से दरारों के लिए उत्तरदायी है। फ्लोराइट्स तथा आर्सेनिक यदि वायु में अधिक मात्रा में हो जाता है जो कालान्तर में घासों और पत्तियों पर जमते हैं जिसे पशु-पक्षी खाकर बीमार हो जाते हैं। इस प्रकार पशुओं को भी वायु प्रदूषण से क्षति होती है। यथा-भोपाल गैस काण्ड में मुर्गी, बकरी तथा गायों का मरना तथा प्रजनन क्षमता में हास प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वायु प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय (Control Measures of Air Pollution)
वायु प्रदूषण को व्यावहारिक रूप से पूर्णतः नियंत्रित करना कठिन है क्योंकि आधुनिक जीवन के कई क्रिया-कलापों से वायु प्रदूषण होता है; जैसे- बिना प्रदूषण उत्पन्न किये वाहनों, उद्योगों एवं सौन्दर्य प्रसाधन आदि का प्रयोग न करना सम्भव नहीं है।
वायु प्रदूषण का नियंत्रण स्रोत पर ही सम्भव है। विकसित देशों में इस समस्या के समाधान के लिये प्रदूषण स्रोत पर ही सैकड़ों नियंत्रक उपायों को अध्यारोपित किया गया। है। द्वितीय वायु प्रदूषण की मात्रा एवं हानिकारक तत्वों की जाँच समय-समय पर होती रहे। सहनीय क्षमता तथा वस्तु की स्थिति की तुलनात्मक जानकारी का प्रकाशन होता रहना चाहिए, जिससे क्षेत्रीय सन्दर्भ में इसका समाधान किया जा सके।
भारत में सर्वप्रथम नीरी (नागरपुर) में 10-12 बड़े नगरों का अध्ययन कर निष्कर्ष दिया कि कुछ क्षेत्रों में वर्ष के कुछ समय में यहाँ वायु प्रदूषण भयावह रूप धारण करता है। भारत सरकार ने National Committee of Environmental Planning and Co-ordination विभिन्न शहरों में प्रदूषण निवारक मण्डलों की स्थापना की है जो पर्यावरणीय प्रदूषण नियन्त्रण हेतु विभिन्न क्रिया-कलाप सम्पादित करती है। पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण हेतु निम्नलिखित उपाय सुझाये जा सकते हैं-
1. वायु प्रदूषण नियंत्रण हेतु कटिबन्ध बनाकर।
2. वायु प्रदूषण स्रोत पर नियंत्रण।
3. चिमनियों की ऊँचाई बढ़ाकर ताकि ऊँचाई पर प्रदूषक छोड़े जा सकें।
4. वनस्पति उगाकर।
5. उपकरणों के संशोधन, तकनीकी के परिवर्तन से।
6. सीसा रहित पेट्रोल।
7. सी. एन. जी. गैस का उपयोग।
8. शिक्षा से।
9. जागरूकता से।
1. वायु प्रदूषण नियंत्रण हेतु कटिबन्ध बनाकर-
नगरों की कटिबन्ध निर्धारण योजना से बसे नगर यथा चण्डीगढ़, ओरेबिल, भोपाल, (भेल-गोविन्दपुरी) तथा भिलाई जैसे नगरों में उद्योगों को उस भाग में जिस दिशा में वायु नगर में न आती हो, उस दिशा में खुले स्थान पर जहाँ परिवहन की, जल शक्ति के साधन की सुविधा सुलभ हो, स्थापित किया गया है। जिससे औद्योगिक प्रदूषण से नगरवासियों को बचाया जा सके, नगर नियोजन के समय सी.बी.डी. (सेन्ट्रल बिजनिस डिस्ट्रिक्ट) औद्योगिक क्षेत्र, आवासीय क्षेत्र आदि में विभक्त कर नगर के विकास की योजना प्रस्तुत की जाती है। इसके विपरीत पुराने बसे नगर जैसे- ग्वालियर, उज्जैन, जबलपुर, सतना मैहर में भूमि का अवैज्ञानिक असंगत उपयोग के कारण प्रदूषण है। वर्तमान में इसके दो तथ्य और ध्यान में रखे जाने चाहिये।
(अ) उद्योगों का उत्पादन क्या है और कौन-सा प्रदूषण कितनी मात्रा में होता है।
(ब) उद्योग में कार्य करने का ढंग और पर्यावरण कैसा होता है और उसे किस चीज की आवश्यकता है। परिवहन, कच्चा माल, बना माल एवं प्रक्रिया इनमें से कहाँ पर , कौन-सा प्रदूषण तत्व निकलेगा, इस आधार पर उद्योगों का स्थान नियत करना आवश्यक है। यह क्षेत्रीय पर्यावरण से समुचित सन्तुलन स्थापित कर प्रदूषण को जनसंख्या के बसे क्षेत्रों से दूर रख सकेगा।
2. प्रदूषण स्रोत पर नियंत्रण स्रोत पर ही प्रदूषण नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय हो सकते हैं-
(अ) कच्चे माल में परिवर्तन,
(ब) प्रक्रिया में संशोधन,
(स) उपकरणों में विकल्प
(द) तकनीकी में परिवर्तन,
(इ) स्रोत पर कठोर कानूनी नियंत्रण।
(अ) कच्चे माल में परिवर्तन-
यदि किसी उद्योग का कच्चा माल ही प्रदूषण कारक है तो कच्चे माल का विकल्प प्रयोग किया जाना चाहिए। यदि उसका विकल्प न हो तो उस प्रक्रिया को खुले और दूरवर्ती स्थानों पर स्थानान्तरित कर उद्योग क्षेत्र में लाना चाहिए।
(ब) प्रक्रिया में संशोधन-
बहुत से उद्योग निर्माण प्रक्रिया के द्वारा प्रदूषण तत्व ह में छोड़ते हैं, ऐसी प्रक्रिया में नवीन तकनीकी प्रयोग कर प्रदूषण रहित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
(स) उपकरणों में विकल्प-
प्रायः पुराने घिसे-पीटे उपकरण और पुरानी तकनीकी के यन्त्रों में से अधिक प्रदूषण की आशंका रहती है। नवीन मशीनें, उपकरण और वाहन अपेक्षाकृत कम प्रदूषण छोड़ते हैं, अतः नयी मशीनों की क्रय प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिये।
(द) तकनीकी में परिवर्तन-
पेट्रोल इंजन के स्थान पर डीजल इंजनों को प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि इनसे कम मात्रा में घातक प्रदूषक निसृत होते हैं। सौर्य ऊर्जा से संचालित वाहनों से वायु प्रदूषण बिल्कुल नहीं होता अतः इन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। अभी कोटा इंजीनियरिंग कॉलेज, राजस्थान ने एक सोलन साइकिल का निर्माण किया है जो एक आदमी को 25 किमी एक दिन में ले जा सकती है और जिसे विशेष परिस्थितियों में 80 किमी. प्रति घण्टे की गति दी जा सकती है।
इसी प्रकार एच.ई. भोपाल ने सौर्य ऊर्जा संचालित एक चार पहिया वाहन भी बनाया है जिसकी गति निःसन्देह कम है, किन्तु प्रदूषण रहित है। जैसे सीसा रहित पेट्रोल के उपयोग पर बल दिया जा रहा है। जहाँ पर यह उपलब्ध नहीं है वहाँ केटिलिटिक कनवर्टर कारों में लगाये जा रहे हैं जो उत्सर्जित धुएँ में उपस्थित CO व हाइड्रोकार्बन को CO2 में बदल देता है। इससे जहरीले कार्बन मोनोऑक्साइड का वायु में आना रूक जाता है। बिना जले हाइड्रोकार्बन को पूर्ण दहन कर CO2 में बदल देता है।
(इ) स्रोत पर कठोर कानूनी नियंत्रण-
कठोर नियंत्रण से ही प्रदूषण निवारक महंगे उपकरणों का उपयोग उद्योगों में हो सकेगा। शासन को दुपहिया वाहन के स्रोत पर नियंत्रण कठोर करना होगा।
3. वायु प्रदूषण नियंत्रण हेतु ऊँची चिमनियाँ बनाकर-
यदि स्रोत पर थोड़ी मात्रा में प्रदूषक तत्व निसृत हो रहे हों तब उन्हें ऊँची-ऊँची चिमनियाँ बनाकर निकटवर्ती बसे लोगों को बचाया जा सकता है। उस स्थिति में वायुमण्डल का तापमान, वायु की गति एवं उसकी दिशा उल्लेखनीय महत्त्व रखती है। विशेषज्ञों की राय में चिमनियों की ऊंचाई निर्मित इमारतों से ढाई गुना अधिक ऊँची होनी चाहिये। साथ ही निकलने वाली गैसें धुंआ की गति 20 मीटर प्रति सेकण्ड से अधिक नहीं होना चाहिये एवं हल्के और उड़नशील होने चाहिये।
4. प्रदूषण नियंत्रण के लिए वनस्पति उगाकर-
यह प्रमाणित सत्य है कि पेड़-पौधे प्रदूषण को रोकते हैं एवं हजम करते हैं। प्रकृति के इस संसाधन का अधिकतम उपयोग करना चाहिये अतः औद्योगिक क्षेत्रों सघन परिवहन केन्द्रों तथा अत्यधिक भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में उपवनों, पार्कों और वृक्षों को लगाना चाहिये। कुछ वृक्ष विशेष प्रदूषकों को ग्रहण करते हैं। अतः उन क्षेत्रों में वे विशेष वृक्ष रोपित करना जरूरी है। सड़कों के किनारे वे वृक्ष लगाये जायें जो परिवहन से हुए प्रदूषण का अधिक मात्रा में अवशोषित कर सकें अथवा बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन को नित कर सकें। जैसे नीम, पीपल, बरगद आदि।
5. शिक्षा एवं जागरूकता-
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ आर्थिक विकास सर्वोपरि है और वायु प्रदूषण का मापन कठिन है (जो कुशल तकनीकी लोगों द्वारा ही सम्भव लक्ष्य है।) अत: पर्यावरण शिक्षा एवं जागरूकता से ही यह समस्या का समाधान ढूँढ़ा जा सकता हूँ। ताकि लोग व्यक्तिगत स्तर पर प्रदूषण न फैलायें और उससे बच सकेँ।
पश्चिम के नागरिक पर्यावरण प्रदूषण के प्रति विशेष जागरूक है। जैसे एम्सटरडम नगर के मध्य में मोटरगाड़ियों को छोड़ कर वहाँ के निवासी साइकिल पर चलना पसन्द करते हैं। भारत के पुराने बसे महानगरीय क्षेत्रों के लिये यह अनुकरणीय होगा। पर्यावरणीय शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये पाठ्यक्रम में आवश्यक विषय वस्तु एवं क्रियाओं का समावेश किया जाना चाहिये। रेडियो, टी.वी., समाचार पत्र-पत्रिकायें, संगोष्ठी और परिचर्चा, शोध और उनका विज्ञापन जागरूकता के लिये विशेष महत्त्व रखता है।
6. सीसा रहित पेट्रोल-
विश्व बैंक सीसा युक्त पेट्रोल का भारी मात्रा में उपयोग करने वाले देशों से आह्वान कर रहा है कि पहले चरण में पेट्रोल में सीसे की मात्रा 0.15 ग्राम या उससे कम प्रति लीटर के हिसाब से कम करें। विश्व बैंक के अनुसार दूसरे चरण में सीसा युक्त पेट्रोल के उपयोग को कम कर समाप्त करें। सीसा रहित पेट्रोल की कटौती लाने के उद्देश्यों से किये जा रहे नीतिगत और जनचेतना के प्रयासों में सक्रिय भूमिका का निर्वाह हो रहा है । सीसा युक्त पेट्रोल की कटौती के प्रयास मुख्य तौर पर मध्य एवं पूर्वी यूरोप, दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं लैटिन अमेरिका में किये जा रहे हैं।
7. सी. एन. जी. का उपयोग-
कोयला तथा खनिज तेल प्राथमिक ईंधन हैं। इनके जलने से कई वायु प्रदूषक उत्पन्न होते हैं। इनके द्वारा होने वाले वायु प्रदूषण से बचने के लिये सी. एन. जी. का प्रयोग किया गया है। यह पूर्णतः जल जाती है। इसका प्रयोग दिल्ली में बहुत सफल रहा है। भारत में प्राकृतिक गैस प्रचुर मात्रा में मौजूद है। इसीलिए सी. एन.जी. (Compressed Natural Gas) के उपयोग से प्रदूषण निवारण में मदद मिलेगी। पश्चिम में एथनॉल को डीजल में मिलाकर भी एक प्रयोग किया गया जो आर्थिक दृष्टि से सस्ता और पर्यावरण के लिए लाभदायक हैं।