24. पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत
24. पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत
पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत
बाल्टर पेंक प्रमुख भू-आकृतिक जर्मन वैज्ञानिक थे। उन्होंने डेविस के अपरदन चक्र सिद्धांत के आलोचना के क्रम में अपरदन चक्र का वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किया जो पेंक का अपरदन चक्र सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। यह डेविस के सिद्धांत की तुलना में अधिक वैज्ञानिकता पर आधारित है। इसमें भू-आकृतिक प्रकम की वैज्ञानिक संकल्पना का उपयोग किया गया है।
पेंक ने डेविस की तरह ही आर्द्र प्रदेशो में प्रवाहित जल या नदियों को अपरदन का प्रमुख कारक मानते हुए अपरदन चक्र का सिद्धांत दिया। इसके अनुसार किसी भी प्रदेश में उत्थान की प्रकिया प्रारम्भ होने के साथ ही अपरदन के कारक सक्रिय हो जाते है। अपरदन का कार्य तब तक घटित होता रहता है, जब तक आधार तल की प्राप्ति न हो जाए।
आर्द्र प्रदेशो में मुख्य नदी के साथ ही जब सहायक नदियाँ भी आधार तल को प्राप्त कर लेती है तब एक अपरदन चक्र पूर्ण होता है और अंतिम रूप से लगभग समतलप्राय मैदान (इनड्रम्प) का विकास होता है। यहाँ जल विभाजक के अवशेष इन्सेलबर्ग के रूप में रह जाते है।
पेंक ने उत्थान व अपरदन की सम्मिलित अवधि को अपेक्षाकृत अधिक लम्बे समय तक घटित होने वाली क्रिया माना जबकि केवल अपरदन के समय को अपेक्षाकृत छोटा माना। पेंक ने निम्न सूत्र का प्रतिपादन किया-
स्थलरुप- उत्थान की प्रावस्था, दर और निम्नीकरण का प्रतिफल होता है।
इस सूत्र के अनुसार अपरदन की प्रक्रिया विभिन्न प्रावस्था में घटित होती है और प्रत्येक प्रावस्था में उत्थान और अपरदन का विशिष्ट दर होता है। इसी अनुरूप ऊंचाई एवं ऊच्चावच विषमता में कमी आती है अर्थात निम्नीकरण होता है।
पेंक ने अपरदन चक्र की पाँच प्रावस्था को बताया। प्रथम तीन प्रावस्था में उत्थान एवं अपरदन दोनों साथ-साथ घटित होते है। अंतिम दो प्रावस्था में केवल अपरदन की क्रिया घटित होती है।
(i) प्रथम प्रावस्था में प्रदेश की ऊंचाई एवं उच्चावाच दोनों में वृद्धि हुई है। उंचाई में वृद्धि का कारण उत्थान की दर का अपरदन के दर की तुलना में अधिक होना है, जबकि उच्चावच में वृद्धि का कारण नदियों द्वारा तलीय कटाव की अधिकता है।
(ii) दूसरी प्रावस्था में भी अपरदन की तुलना में उत्थान की दर अधिक होने के कारण ऊंचाई में वृद्धि होती है, लेकिन उच्चावच स्थिर रहता है।
(iii) तीसरी प्रावस्था में उत्थान और अपरदन दोनों के दर समान होते है, अतः ऊंचाई में वृद्धि रुक जाती है जबकि घाटी की उपरी एवं निचले भाग में अपरदन की दर सामान्य होने के कारण उच्चावच स्थिर रहता है।
(iv) चौथी प्रावस्था में उत्थान का प्रभाव समाप्त हो जाने और नदियों द्वारा तलीय कटान के साथ क्षैतिज कटान के प्रभाव से ऊंचाई में कमी आने लगती है, लेकिन घाटी के उपरी और निचले भाग में अपरदन की दर समाप्त होने के कारण उच्चावच स्थिर बना रहता है।
(v) पांचवी अवस्था में क्षैतिज अपरदन की अधिकता, निक्षेपण का प्रभाव तथा तलीय कटान भी लगभग समाप्त हो जाने के कारण ऊंचाई एवं उच्चावच दोनों में कमी आने लगती है। अंततः इन्ड्रम्प जैसी समप्राय मैदान का निर्माण होता है। इसके साथ ही अपरदन का एक चक्र पूर्ण हो जाता है।
पेंक ने अपरदन चक्र की संकल्पना में ढालों के विकास को पर्याप्त महत्व दिया और ढाल प्रतिस्थापन सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
पेंक का ढाल प्रतिस्थापन सिद्धांत-
इसके अनुसार अपरदन चक्र की प्रक्रिया में एक ढाल का दूसरे ढाल में प्रतिस्थापन होता रहता है। सर्वप्रथम उत्तल ढाल का निर्माण होता है जिसका प्रतिस्थापन समढाल में और पुनः समढाल का प्रतिस्थापन अवतल ढाल में हो जाता है।
जब कई अवतल ढाल परस्पर मिलते है तब इंड्रम्प का विकास होता है। इन ढालो के मध्य में भी जल विभाजक इन्सेलबर्ग के रूप में रह जाते है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार स्पष्ट है की पेंक का अपरदन चक्र मॉडल डेविस के अपरदन चक्र मॉडल की तुलना में अधिक वैज्ञानिक अवधारणा पर आधारित है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत ने भी पेंक के मॉडल को ही वैज्ञानिक माना। इसी कारण पेंक के मॉडल को अधिक मान्यता प्राप्त है।
नोट:
वाल्टर पेंक के अनुसार:
अपरदन चक्र में पाँच चरण होते हैं-
1. प्राइमारम्प (Primarampf)
2. आफस्टीजेंड इंट्वीकलुंग (Aufteingend entwickelung)
3. ग्लीचफोर्मिंगे इंट्वीकलुंग (Gleichforminge entwickelung )
4. आबस्टीजेंड इंट्वीकलुंग (Absteigende entwickelung)
5. इंड्रम्प (Endrufmpf)
1. प्राइमारम्प:-
⇒ पेंक के अनुसार प्रारंभ में एक विशेषताहीन सतह होती है जिसे पेंक ने “प्राइमारम्प” या “प्राथमिक पेडप्लेन” कहा।
⇒ यह भू-आकृति विकास का एक पूर्व चरण है।
⇒ इस चरण में भू-आकृतियों के विकास के बिना एक परिदृश्य मौजूद होता है।
⇒ इस अवस्था में कोई पहाड़ नहीं।
⇒ भू-आकृतियों का ऊपरी वक्र और निचला वक्र समान होता है।
2. आफस्टीजेंड इंट्वीकलुंग :-
⇒ भू-आकृतियाँ विकसित होने लगती हैं।
⇒ पहाड़ अचानक उठने लगते हैं।
⇒ घाटियाँ गहरी होने लगती है और संकरी घाटियाँ का निर्माण करती हैं।
⇒ उच्चावच बढ़ने लगती है और उत्तल तथा मुक्त ढाल का विकास होता हैं।
⇒ ऊपरी वक्र और निचले वक्र के बीच की ढाल बढ़ती जाती है।
⇒ इस चरण में अंतर्जात बल से कम बहिर्जात बल लगते है।
3. ग्लीचफोर्मिंगे इंट्वीकलुंग :-
इस चरण में तीन भाग होते हैं।
⇒ पहले चरण में उत्थान अपरदन से ज्यादा होता है।
⇒ सबसे ऊंची चोटी ऊपरी वक्र में बनती हैं।
⇒ दूसरा चरण में उत्थान और अपरदन लगभग बराबर होते है।
⇒ अंतिम चरण में उत्थान की प्रक्रिया कम हो जाती है। धीरे-धीरे घाटी चौड़ा होने लगता है और पर्वत की ऊँचाई भी कम होने लगते हैं।
4. आबस्टीजेंड इंट्वीकलुंग :-
⇒ शिखर या ऊपरी वक्र तेजी से मिटता है।
⇒ नदी श्रेणीबद्ध (ग्रेडेड) हो जाती है और उत्तल तथा मुक्त ढाल रेक्टिलिनियर ढलानों में परिवर्तित हो जाते है।
⇒ इस चरण में शंक्वाकार आकार का इंसेलबर्ग बनता है।
5. इंड्रम्प:-
⇒ भू-आकृति का विकास रुक जाता है।
⇒ पेडिप्लेन अंत में बनता है।
⇒ भू-आकृतियों के ऊपरी भागों में कुछ अपरदन होता है और अपरदित पदार्थ भू-आकृतियों के निचले भाग में जमा हो जाता है।
नोट:
⇒ आफस्टीजेंड इंट्वीकलुंग का अर्थ है- बढ़ती दर से विकास।
⇒ ग्लीचफोर्मिंगे इंट्वीकलुंग का अर्थ है- समान दर से विकास।
⇒ अबस्टीजेंड इंट्वीकलुंग का अर्थ है- घटती दर से विकास।
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