Unique Geography Notes हिंदी में

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REGIONAL GEOGRAPHY (प्रादेशिक भूगोल)

5. The Concept of Sustainable Development (शाश्वत विकास की अवधारणा) 

5. The Concept of Sustainable Development

(शाश्वत विकास की अवधारणा)



        Sustainable Development

          विश्व में प्रादेशिक विकास की अवधारणा को समय-समय पर राजनीतिक विचारकों ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। वर्तमान समय में प्रादेशिक विकास का जो स्वरूप उभड़ा है, वह विश्वव्यापी राजनीति से ओतप्रोत है। औपनिवेशिक राष्ट्रों का शोषण, अविकसित देशों के संसाधनों का दोहन, विनिर्माण प्रक्रिया एवं सम्पत्ति का शक्तिशाली राष्ट्रों में समूह प्रादेशिक विकास की आड़ में तथा विकास मॉडलों के अविवेकपूर्ण अध्यारोपण से प्रादेशिक विकास के परिणाम प्रभावित हुए हैं। पाकिस्तान आज भी आर्थिक विकास हेतु पराश्रित है । बंगलादेश भी स्वतंत्र होकर उसी दुश्चक्र का अंग बन गया है।

        नेपाल भारत की विरासत एक होते हुए भी नेपाल को अपने प्रच्छन्न व्यक्तित्व के प्रति आगाह करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के प्रादेशिक विकास को बाधित करने से 20वीं शताब्दी के अंत में सर्वत्र प्रादेशिक विकास एक खोखला नारा बनकर रह गया है। यही हाल ब्राजील, अर्जेण्टाइना, कैरेबियन राष्ट्र तथा अफ्रीकी देशों का है।

         विकास का अंतिम उत्पाद विनाश के रूप में प्रकट हो रहा है। इससे संसाधन विदोहन है। जन संसाधन का दुरुपयोग हुआ है। पर्यावरण की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है तथा हुआ विकास के प्रति अरुचि उत्पन्न हुई हैं। इस परिप्रेक्ष्य में शाश्वत विकास या अक्षुण्ण विकास की प्रक्रिया का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है।

       शाश्वत विकास की संकल्पना भौगोलिक संकल्पना है, जिसमें मानवीय और पारिस्थितिकीय तत्त्वों के अन्तर्क्रियात्मक सम्बन्धों को इस प्रकार व्यवस्थित एवं नियोजित करने पर बल दिया जाता है, जिससे आर्थिक विकास प्रतिरूप वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए आगामी पीढ़ियों की आवयकताओं को पूर्ण कर सके।

       पहले यह स्पष्ट किया जा चुका है कि विकास या भौगोलिक सन्दर्भ में प्रादेशिक विकास मानव और उसकी विभिन्न विशेषताओं तथा प्राकृतिक पर्यावरण के तथ्यों के पारस्परिक कार्यात्मक सम्बन्धों का परिणाम है। विकास की प्रक्रिया में कुछ क्षेत्रों में मानवीय क्षमता के अत्यधिक निवेश से पर्यावरण के तथ्यों का अधिकाधिक शोषण हुआ। मनुष्य ने वहाँ कम समय में चरण विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। वहाँ पुनः विकास के लिए संसाधनों की कमी सामने आने लगी है। दूसरी ओर विभिन्न पर्यावरणीय तथ्यों के अत्यधिक ह्रास से पारिस्थितिकीय संतुलन भी बिगड़ने लगा, जिससे मनुष्य के लिये खतरा उत्पन्न हो गया। इसी तरह दूसरे बहुत से क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के अवैज्ञानिक शोषण से भी पारिस्थितिकीय सन्तुलन प्रभावित होने लगा।

        इस विषम परिस्थिति से निजात पाने के लिये ही वर्तमान समय में शाश्वत विकास की संकल्पना का जन्म हुआ है। यह एक विश्वव्यापी नारे के रूप में प्रचलित होती जा रही है जिसमें पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाये रखना और जैवीय विविधता की सुरक्षा पर विशेष बल दिया जा रहा है। सातवें दशक के अंत में और 1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन में इस संकल्पना को व्यापक आधार मिला है।

        पारिस्थितिकीय शाश्वत विकास (Ecologically Sustainable Development) का सामान्य हिन्दी अनुवाद पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से उपयुक्त दीर्घकाल तक अक्षुण्ण रहने वाला विकास है। अर्थात् इसमें विकास निर्वाह योग्य माना गया है, जो वर्तमान पीढ़ियों की आववश्यकता को पूर्ण करते हुए भविष्य के लिये भी बना रहे। इसके अन्तर्गत सम्मिलित पारिस्थितिकी है, जो जैव समुदाय और उनके पर्यावरण के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन है। यह ग्रीक शब्द ‘Oikos’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘Living Place’ होता है।

        अर्थात् विभिन्न जैव समुदाय और पर्यावरण के बीच कैसा सन्तुलन विकसित हो, जिससे दोनों का अस्तित्व अनवरत रूप से बना रहे। यह संकल्पना भूगोल विज्ञान के अभिन्न अंग के रूप में परम्परागत रूप से रही है, क्योंकि पहले से ही भूगोल मानव और प्रकृति के परिवर्तनशील अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करता रहा है। इसलिये विकास हेतु विभिन्न पर्यावरणीय तथ्यों का मानव द्वारा इस प्रकार उपयोग किया जाय कि पारिस्थितिकीय सन्तुलन भी बना रहे और मानव अपना विकास भी करता रहे।

       दूसरा शब्द ‘शाश्वतता’ (Sustainability) है, जिसका अर्थ अनवरत रूप से दीर्घकाल तक बना रहना है अर्थात् ऐसा आर्थिक विकास जो दीर्घकाल तक जारी रहे इसे अक्षय विकास भी कह सकते हैं या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यह सामाजिक-आर्थिक प्रत्यावर्तन की ऐसी प्रक्रिया है, जिसके परिणाम समान रूप से वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिये उपलब्ध होते रहें, अर्थात् यह उत्पादन के कारकों और उपभोग के तत्त्वों के बीच संतुलन के स्तर की ओर इंगित करती है।

          सन्तुलन का स्तर इस प्रकार का होना चाहिये कि जिसमें विकास प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले सभी चर एक साथ बिना एक-दूसरे से आगे निकले हुए एक-दूसरे के पूरक के रूप में योगदान देते रहें, जब तक क्रमिक रूप में ये चर एक-दूसरे के साथ विकासात्मक रूप से योगदान देते रहेंगे तब तक किसी भी चर का कोई ऋणात्मक प्रभाव नहीं दिखाई देगा।

       इसके विपरीत विभिन्न चरों की पारस्परिक विकासात्मक प्रवृत्ति में यदि कोई एक चर आगे निकल जायेगा अथवा अत्यधिक ह्रास होगा तो सम्पूर्ण सन्तुलन सम बिगड़ जायेगा, जिसका परिणाम भौतिक पर्यावरण पर दृष्टिगोचर होगा। इससे विकास प्रतिरूप भी दीर्घकाल तक नहीं बना रह पायेगा। अर्थात् ‘शाश्वतता’ के अन्तर्गत दो संकल्पनाएँ अन्तर्निहित हैं-

1. मूलभूत आवश्यकता की संकल्पना:-

           इसके अन्तर्गत माना जाता है कि मनुष्य की न्यूनतम मौलिक आवश्यकता को पूर्ण करना ही विकास हैं। वर्तमान समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए भावी पीढ़ियों के लिये भी संसाधनों को सुरक्षित छोड़ देना ही शाश्वत विकास है।

         यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विभिन्न क्षेत्रों के मानव समाज में कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ समान रूप से हैं, यथा- भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सुविधा आदि लेकिन कई समाजों के उपभोग की परिवर्तनशील प्रवृत्ति और उसको पूरा करने के लिये संसाधनों का अंधाधुंध शोषण जारी रहने पर संसाधनों में ह्रास होगा और उनके दीर्घकालीन तक चलते रहने की संभावना भी समाप्त होगी। इसलिये उपभोग के तत्त्वों के प्रयोग पर नियंत्रण अथवा उनका परिमार्जन इस प्रकार किया जाना चाहिये ताकि विकास को प्रभावित करने वाला चर समाप्त न हो या उसका कोई दुष्प्रभाव न पड़े।

          पश्चिमी देशों की उपभोक्ता संस्कृति इसका उदाहरण है। जहाँ उपभोग हेतु कई जैव प्रजातियों का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया है। इससे विश्व में जैव सन्तुलन को खतरा उत्पन्न हो गया है। या यों कह सकते हैं कि विकसित औद्योगिक देशों द्वारा ही उत्सर्जित अपशिष्टों से ओजोन परत को हानि हो रही है। इसलिये शाश्वत के अन्तर्गत मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते हुए उपभोग स्तर को भी नियोजित करना सम्मिलित है। 

2. प्राविधिक स्तर:-

       इसके अन्तर्गत विभिन्न उत्पादनों हेतु प्रयुक्त तकनीकी स्तर हैं। बहुत से देशों में तकनीकी स्तर अत्यन्त उच्च स्तरीय हैं, जिससे वे कम लागत पर विभिन्न साधनों का शोषण करके अपने उपभोग स्तर में वृद्धि करते हैं और इतना ही नहीं वे इसका विपणन भी करते हैं, जबकि अन्य देश अपनी देशी व परम्परागत तकनीक के प्रयोग से धीरे-धीरे यही कार्य करते हैं। भौगोलिक रूप में उत्पादन कार्यों के लिये इस प्रकार की तकनीकों का प्रयोग होना चाहिए, जिससे विकास के अन्य चरों को हानि न पहुँचे।

        तीसरे शब्द का अर्थ है, जैसा पहले विश्लेषित किया जा चुका है कि विकास एक समन्वित प्रक्रिया है, जिससे मानव जीवन के अस्तित्व का एक निश्चित स्तर प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् इसमें मानव और प्रकृति के मध्य उत्पादक, व्यवधान रहित और शोषण मुक्त चरों का समन्वित प्रतिरूप सम्मिलित है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि शाश्वत विकास के अन्तर्गत पारिस्थितिकीय तंत्र के विभिन्न चरों का संरक्षण, अभिरक्षण, सुरक्षा एवं अक्षुण्ण रूप से निर्वहन सम्मिलित है।

         इस तरह अक्षुण्ण अर्थात् शाश्वत विकास अर्थव्यव्सथा के विभिन्न प्रतिरूपों (प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक) में समन्वय पर बल देते हुए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र से बाँधे रखने पर बल देता है। इस तंत्र को संरक्षित एवं पोषित करने की आवश्यकता है, ताकि विकास प्रक्रिया शाश्वत रूप से जारी रहे। भूगोल में शाश्वत विकास की संकल्पना वर्तमान समय में दो कारणों से आयी है-

1. मानव और पर्यारण तंत्र के असंगत सम्बन्ध ने पारिस्थितिकीय सन्तुलन को झकझोर दिया है। वर्तमान मानव समाज के सम्मुख भोजन, जल, शुद्ध वायु और समुचित जगह आदि अनेक समस्याएँ स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के तीव्र शोषण से अस्तित्व में आयी हैं। वनों और मिट्टियों का उत्पादक कार्यों में इतनी तीव्र गति से प्रयोग से हो रहा है, जिससे वे तेजी से घटते जा रहे हैं। परिणाम यह है कि मनुष्य के लिये वे अनुपयोगी होते जा रहे हैं। क्योंकि प्रकृति द्वारा वे शीघ्रता से निर्मित नहीं किये जा सकते हैं। पशुचारण और अत्यधिक शस्योत्पादन से अर्थव्यवस्था का स्रोत नष्ट होता जा रहा है। ऊर्जा साधनों का औद्योगीकरण के कारण तेजी से ह्रास हो रहा है।

        आर्थिक विकास के लिये आवश्यक ये तत्त्व प्रकृति द्वारा लाखों करोड़ों वर्षों में निर्मित किये गये हैं। इनको शीघ्रता से पुनर्नवीकृत नहीं किया जा सकता है। परमाणु ऊर्जा से निःसृत रेडियोधर्मिता से जल व वायु प्रदूषित होकर मानव के लिये हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। अनियंत्रित कृषि और तीव्र औद्योगीकरण से धरातल, जल और वायु भी प्रदूषित हो रहे हैं। महासागर जो भावी जनसंख्या के लिये भोजन के स्रोत हैं। एक तरह से कूड़े कचरे के गड्ढे में परिवर्तित हो रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण के उपयोग की कोई सीमा नहीं है।

         यह अनुमान किया जा सकता है कि सन् 2050 तक विश्व की 75 प्रतिशत आबादी नगरों में निश्वस करने लगेगी। इससे वर्तमान न समस्याएँ घनीभूत होंगी तथा मलिन बस्तियों का फैलाव होगा। ये सभी तथ्य मानव पर्यावरण के असंगत सम्बन्ध के परिणाम हैं। वर्तमान विकास की संकल्पना इसलिए प्राकृतिक और मानवीय चरों के पारस्परिक विकासात्मक अन्तर्सम्बन्ध को नियोजित करने को प्रेरित करती है।

2. दूसरे कारण में विकास का मात्र उद्देश्य धन का एकत्रीकरण है क्योंकि धन या पूँजी ही मानव के तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास को प्रभावित करती है लेकिन वास्तव में विकास के स्थायित्व के लिये अत्यधिक धन या पूँजी प्राप्त करना ही ध्येय नहीं होना चाहिये, क्योंकि जॉन पुश्किन के अनुसार छलपूँजी (illth) जो धनसंचय का परिणाम है- एक ऋणात्मक धन है। यह एक ऐसी पूँजी है जो मानव के लिये पृथ्वी की उपयोगिता समाप्त कर देती है इसलिये प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि अथवा येनकेन राष्ट्रीय आय में वृद्धि ही विकास का लक्ष्य नहीं होना चाहिये।

         इसलिए अधिक धन संचय, अधिक उत्पादन और अधिक उप का दुष्चक्र भौतिक विकास का आधार है। इस विकास की कोई अन्तिम सीमा नहीं इसकी न्यूनतम सीमा तो मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने तक मानी जा सकती लेकिन ऊपरी सीमा अदृश्य है। इसी अदृश्य सीमा को प्राप्त करने के लिये पश्चिमी समाज संसाधनों का अंधाधुंध शोषण कके पर्यावरण सन्तुलन को विकृत कर हा है। इसके प्रतिकार के लिए ही शाश्वत विकास की संकल्पना का अस्तित्व संभव हुआ है।

प्रश्न प्रारूप 

1. शाश्वत विकास की अवधारणा पर प्रकाश डालें।

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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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