Unique Geography Notes हिंदी में

Unique Geography Notes in Hindi (भूगोल नोट्स) वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के उन छात्रों और अध्ययन प्रेमियों को काफी मदद मिलेगी, जिन्हें भूगोल के बारे में जानकारी और ज्ञान इकट्ठा करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस वेबसाइट पर नियमित रूप से सभी प्रकार के नोट्स लगातार विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित करने का काम जारी है।

GEOGRAPHICAL THOUGHT(भौगोलिक चिंतन)

41. Applied Geography (व्यावहारिक भूगोल)

 Applied Geography

(व्यावहारिक भूगोल)



प्रश्न प्रारूप

Q. व्यवहारिक भूगोल पर प्रकाश डालें।

(Throw light on the Applied Geography.)    

उत्तर- समाज में भौगोलिक ज्ञान को व्यवहार में प्रयुक्त कर समस्याओं का समाधान करना व्यावहारिक भूगोल का प्रमुख उद्देश्य है। बहुत समय तक भूगोलवेत्ता खनिज-उत्पादन और प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन संबन्धी अध्ययनों में व्यस्त रहे। वे समाज कल्याण और सामाजिक-न्याय जैसी महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर से आँखें मूंदे रहे।

    व्यावहारिक भूगोलवेत्ताओं का तर्क विषय में शोध कार्य के प्रति था विशिष्ट को उजागर बनाना, और अध्यापन का भी जोर मानव व प्रकृति के बीच सामंजस्य की ओर था, न कि विषय में विद्वता हासिल करना।

    व्यावहारिक भूगोल आर्थिक संपन्नता पर नहीं, सामाजिक दृष्टि से स्वास्थ्यप्रद विकास में विश्वास व्यक्त करता है। वह कार्यक्षमता और निपुणता के स्थान पर समानता पर और साज-समान की मात्रात्मक बढ़ोतरी के स्थान पर जीवन की गुणवत्ता पर ध्यानाकर्षित कराने वाला विषय है।

    व्यावहारिक भूगोल के बारे में पहली बार विस्तृत व्याख्या डडले स्टाम्प ने 1960 में प्रस्तुत किया। वह भूगोलवेत्ता का अनूठा योग मानव और वातावरण के बीचे ‘समस्तता’ का दृष्टिकोण (Holistic Approach) विकसित कराना जानता था। इस प्रकार का दृष्टिकोण विकसित बनाने में भौगोलिक सोपानों में मुख्य पद हैं-

(i) क्षेत्र का प्रेक्षण, अवलोकन कार्य, और

(ii) वस्तुनिष्ठता से व्यवस्थित तथ्यों का संकलन।

   अर्थात संग्रहीत आंकड़ों व सूचनाओं को मानचित्र में अंकित कर वैज्ञानिक रूप से उनका अध्ययन करना। यह निवर्चन-अध्ययन विश्व की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के अवबोध के लिए आवश्यक है। इससे भूमि पर जनसंख्या का दबाव जैसी समस्या, आर्थिक विकास, रहन-सहन संबन्धी स्तर में असमानताएँ और प्रादेशिक नियोजन के बारे में यथार्थ स्थिति प्रकट बनती हैं।

   स्वयं डडले स्टाम्प ने ग्रेट ब्रिटेन का भू-उपयोग सर्वे कार्य कर Land of Britain: Its Use and Misuse पुस्तक प्रकाशित की जो Applied Geography में मील का पत्थर साबित हुई।

  डडले स्टाम्प के इस प्रयास ने अनेक भूगोलवेत्ताओं को केन्द्रीय व स्थानीय निकायों में नियोजन-अधिकारी पद पर आसीन बनाने हेतु सक्षम बनाया। 

    युद्धकाल में भी अनेक लोगों को राष्ट्रीय सरकारी कार्यालयों और सैन्य-कौशल व खुफिया विभागों में रोज़गार मिला। वायव्य मानचित्रों के निवर्चन और दूर-संवेदन एजेन्सी में भी भूगोल के ज्ञाताओं को प्रशिक्षित बनाने की नींव पड़ी। ये विधियाँ आजकल भूगोल में अति महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर गयी हैं। सर्वे कार्य और मानचित्रण क्रिया के ये महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं।

    1960 के उपरान्त भूगोल की तकनीक और अभिगमों में विकास आया। मात्रात्मक क्रांति से परिवर्तन आए और तदुपरान्त भौगोलिक सूचना-तंत्र (Geographic Information System- GIS) ने व्यावहारिक भूगोल के योगदान की दिशा में वृद्धि की। इससे अनेक सरकारी व गैर सरकारी सेक्टर में लोगों को रोज़गार मिला।

    भूगोलवेत्ताओं का ध्यान वातावरणीय आपदाओं और पुनर्वास जैसी गंभीर समस्याओं की ओर आकर्षित किया। सन् 1981 में Journal of Applied Geography की स्थापना हुई। Coppock ने अब भूगोल के अन्तर्गत ‘सार्वजनिक नीति’ (Public Policy) को स्थान दिया। विषय में बाजारी-कौशल (Marketable Skills) में वृद्धि व विकास हेतु व्यावहारिक भूगोल के विद्वानों ने GIS तथा दूरस्थ संवेदन तकनीक के भरपूर उपयोग पर जोर दिया।

    यूरोपीय देशों की तुलना में इस दिशा में उत्तरी अमेरिका आगे था जहाँ भूगोल ने विश्वविद्यालयों के बाहर आकर समाज की संस्थाओं, कार्यालयों में उपयोगी योगदान दिया। इसमें The Association of American Geographers का योगदान सक्रिय था जिसके अधीन व्यावहारिक भूगोल का विशेष दल संगठित था।

    व्यापारिक निजी फर्मों के अन्तर्गत अनेक निविदाएं भूगोल ज्ञाताओं को मिलने लगीं। पूर्वी यूरोप के समाजवादी व्यवस्था वाले देशों और पूर्ववर्ती USSR में 1950 और 2000 ई. के दौरान व्यावहारिक भूगोल के ज्ञान का सदुपयोग तत्कालीन आर्थिक समस्याओं के हल में और वातावरणीय समस्याओं के निराकरण में पूंजीवादी विश्व की तुलना में अधिक हुआ।

     कतिपय भूगोलवेत्ताओं ने व्यावहारिक भूगोल का विघटन कर उसे संकुचित दायरे में समस्याओं के हल-हेतु प्रयोग किया जैसे-

(i) ‘स्थानिक विश्लेषण’ जो प्रत्यक्षवाद पर आधारित बन GIS द्वारा अवस्थितिक आबंटन की समस्याओं को हल करने पर जोर देता है,

(ii) ‘मानवतावादी भूगोल’ का केन्द्रीय बिन्दु मानव एजेन्सी है और

(iii) आमूल परिवर्तनवादी भूगोल का प्रमुख उद्देश्य लोगों का ध्यान उस समाज के प्रति जाग्रत बनाना था जिसमें वे दिन काट रहे थे, और उससे उन्हें मुक्त कराने हेतु उसकी पुनर्रचना पर जोर है।

    स्टोडार्ट (Stoddart, 1987) ने व्यावहारिक भूगोल की आलोचना करते हुए उसे अत्यन्त तुच्छ व नगण्य प्रश्नों में केन्द्रित कहा है। उसका मत है कि व्यावहारिक भूगोल के स्थान पर भूगोलवेत्ताओं को अपना ध्यान यथार्थ समस्याओं के भूगोल में लगाना चाहिए और मानव-वातावरण से संबन्धित मत्वपूर्ण समस्याओं पर केन्द्रित करना चाहिए।

भूगोल और सार्वजानिक नीति

     भूगोल को विश्वविद्यालयों में स्थान 19वीं सदी के आरम्भिक दशकों से मिलना प्रारम्भ हुआ। जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में भूगोल विभागों के अधीन विषय का विकास हुआ। वह अनेक वैचारिक, दार्शनिक एवं पद्धति-विषयक समस्याओं में भी उलझा रहा और विषय सुनिश्चित रूप में कलेवर ग्रहण करने हेतु संघर्षरत बना रहा। भौगोलिक साहित्य, दर्शन एवं विधियों में व्यक्तिगत धारणाएँ एवं राजनीतिक तंत्र, सामाजिक आवश्यकताएँ व क्षेत्रीयता छायी रही। विगत पच्चीस वर्षों की अवधि में वृहत् रूप से भौगोलिक सामग्री रची गयी। गैर-सरकारी और सरकारी संगठनों के लिए तथा अध्ययन-अध्यापन में उपयोगी भूगोल-सामग्री प्रत्यक्ष बनी।

       द्वितीय विश्व युद्ध तक भूगोल मुख्यतः धरातल, प्राकृतिक आकृतियों, मौसम व जलवायु, पर्वतों, नदियों, मार्गों, नगरों व शहरों और बन्दरगाहों विषयक सामान्य सूचनाएँ प्रदान करने का विषय ही समझा जाता था। सामान्य जनता इसे सामान्य ज्ञान कराने का विषय ही मानती थी। परन्तु निकट भूतकाल से भूगोल की नवीन योजना-नीति (New Strategy) उभरी है, और विषय का पुनर्संगठन व पुनर्रचना हुई है।

    भूगोल में नए विषयों को स्थान दिया गया और समाज कल्याण की दष्टि से स्थानीय चेतना जाग्रत बनाने हेतु पर्यावरण, स्थानीय भौगोलिक बोध, प्रदेश-जगत् की गहन जानकारी तथा विश्व वातावरण एवं संबन्धों को अध्ययन हेतु अपनाया गया।

    वातावरण के प्रबन्ध, नियोजन तथा प्रदूषण की समस्याओं के प्रति ध्यानाकर्षण कराकर भूगोल को सार्वजनिक और लोक-हित का विषय बनाने के अथक प्रयास आरम्भ हो गए है।

   लोक-कल्याण के उद्देश्य और निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु भूगोल में सामाजिक पिछड़ेपन और जीवन-स्तर के विभिन्न सोपानों, गरीब एवं बेरोजगारी के संबन्ध में भौगोलिक व्याख्या स्थान प्राप्त करने लगी है। ऐसे भौगोलिक आधार पर प्रस्तुत निवर्चनों से स्थानीय निकायों और राजकीय प्रशासन को लाभ मिला है।

    अन्तर्राज्यीय एवं अंतर्प्रदेशी समस्याएँ न केवल प्रत्यक्ष बनीं, अपितु उनकी यथार्थता का बोध हुआ है। इनके हल के आधार प्रत्यक्ष बने हैं, और प्रादेशिक असमानताएँ व जीवन संबन्धी गुणवत्ता के सुधार में भूगोल का योगदान महत्वपूर्ण बना है। दृश्य-वस्तुओं के पुनर्वितरण की आवश्यकता प्रत्यक्ष बनाने में भौगोलिक स्थानिक विश्लेषण महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

    नौकरी-पेशा और रोजगार की दृष्टि से भूगोल आरम्भ में विकसित देशों में भी केवल अध्यापन का विषय (Teaching Subject) था। तीसरी दुनिया के देशों में तो आजतक भी भूगोल को देश की योजनाओं एवं विकास प्रक्रिया में सक्रिय स्थान नहीं मिला है। शोध-ग्रंथ-भूगोल अभी तक पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं, उनका विकास योजनाओं हेतु सदुपयोग नहीं होता है। दुर्भाग्यवश, विशेषतः भारत में नियोजक-नीति- निर्धारक आज तक भी स्थानिक विमियों (Spatial Dimensions) विषयक समस्याओं से मुख-मोड़े बैठे हैं। उनमें आजतक यही धारणा घर कर बैठी हुई है कि भूगोल सामान्य- ज्ञान कराने मात्र की पूर्ति करने का विषय है, उसका कोई अन्य उपयोग नही है। इसका दोष भूगोलवेत्ताओं का ही है, क्योंकि उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में कोई सार्थक योगदान नहीं दिया, और न ही प्रदेश के स्थानिक संगठन हेतु विकल्प व नीति-निर्धारक तथ्यों को इंगित किया।

      केवल विगत तीन दशकों में विषय की विधि-तंत्र, सोच और प्रसंगों के चयन में परिवर्तन प्रकट हुए भूगोलवेत्ताओं का ध्यान अब प्रधान रूप से गरीबी, भुखमरी, प्रदूषण, प्रजातीय भेदभाव, समाजिक ऊंच-नीच अथवा न्याय, पर्यावरण प्रदूषण और संसाधनों के उपयोग व दुरुपयोग आदि समस्याओं के प्रति जागरूक बना है। इसमें कतिपय उल्लेखनीय कार्यों में Geography of Crimes, Black-Ghetto, और Geography of Social Well-being हैं। यह एक उत्साहवर्द्धक परिवर्तन है कि आजकल विश्व के सभी भागों में नव-शोध की दिशा भूगोल में लोक-प्रशासन से जुड़ी समस्याओं पर आधारित है। सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु जन-कल्याणकारी (Human Well-being) प्रसंगों में शोध आरम्भ हो चुकी है। असमानताओं की खाई को पाटने की दिशा में मानव भूगोल अब कदम उठा चुकी है। वस्तुतः कल्याणकारी भूगोल का ध्येय अब ऐसी सामाजिकता के विकास की आवश्यकता है जो भौगोलिक विकल्पों द्वारा रची जा सके और जनता की मूल सुविधाओं पर आधारित बने।

     उपयोगितावादियों (Pragmatists) का मत है कि मात्रात्मक क्रांति के वैज्ञानिक विधि-विधानों (प्रत्यक्षवाद) का प्रयोग मानवीय समस्याओं के निराकरण हेतु किया जाना चाहिए। इसी संदर्भ में David M.Smith ने कल्याणकारी अभिगम के अपनाने पर जोर दिया है। मानव भूगोल का भविष्य ऐसी ही समस्याओं के विश्लेषण में निहित है जो मानव-कल्याण की ओर उन्मुख है।

    कल्याणकारी भूगोल को भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों से परिभाषित किया। मिशान (Mishan) के अनुसार सैद्धांतिक कल्याणकारी भूगोल अध्ययन की वह शाखा है जो अच्छे-बुरे का निर्णय करने वाले मापक द्वारा उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों के विकल्पों को श्रेणी दे सके।

    नाथ (Nath) के अनुसार कल्याणकारी भूगोल ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है जिसमें समाजकल्याण हेतु विभिन्न भौगोलिक नीतियों को परखा जा सकें। स्मिथ (Smith) ने इसे स्थानिक संदर्भ में परिभाषित करते हुए व्यक्त किया कि- कल्यणकारी भूगोल इसका अध्ययन है- “कौन, क्या, कहाँ और कैसे प्राप्त करता है। 

      तात्पर्य यह है कि कल्याणकारी भूगोल ऐसी भौगोलिक स्थिति अथवा दिशा इंगित करता है जिसमें संसाधनों, आय और जन-कल्याण के अन्य स्रोतों का स्थानिक विनियोजन अथवा आवंटन सम्भव हो सके।

    स्मिथ की व्याख्या का प्रयोग गरीबी एवं अन्य सामाजिक समस्याओं के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों से भी जुड़ा है जैसे उद्योगों के अवस्थितिजन्य प्ररूप जनसंख्या-वितरण, सामाजिक सेवा-सुविधाएँ की अवस्थिति, यातायात-जाल, मानवों व माल की ढुलाई आवागमन-प्ररूप तथा विभिन्न भौगोलिक दशाओं के मध्य जीवन की गुणवत्ता स्थापित करने के प्रयास। इन सभी के तले ऐसी सामाजिक व्यवस्था जो आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संरचनाओं को उत्पन्न कर सार्वजनिक कल्याण का विकास कर सके।

      कल्याणकारी अभिगम मानव इतिहास के विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न राष्ट्रों व समाजों ने भिन्न स्वरूप में अपनाया। यहूदियों, क्रिस्तानियों, मुसलिमों, कन्फ्यूशियनों, हेलिनीयों, मार्क्सवादियों, यथार्थवादियों, अस्तित्ववादियों आदि ने इस अवधारणा को अपनी-अपनी नीतियों और सामाजिक रीतियों व वातावरण में ही ग्रहण किया।

    मानव-दिशाओं में सुधार और मानव-कल्याण की अनुभाविक पहचान (Empirical Identification) इलाकों के स्तर पर जाना महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसी दिशा में शोध भी करना जरुरी है। परन्तु दुर्भाग्यवश विकासशील देशों में, विशेषतः भारत में इलाकों के स्तर पर (On Territorial Levels) इस दिशा में न तो प्रयास हुए, और न शोधकार्य किए गए हैं। विभिन्न इलाकों के सभी प्रकार के भौगोलिक प्रारूपों को जाँच कर वहाँ अधिकतम लाभ और न्यूनतम लागत के आधार पर ही जनकल्याण की सार्वजनिक नीति अपनायी जाने की आवश्यकता है। कल्याणकारी नुस्खा प्रदेश अथवा राज्य की बदली हुई तस्वीर के लिए विकल्प सिद्ध हो, न कि घिसे-पिटे परम्परागत सुझावों में जकड़ा कोई स्थिर-स्थायी ढाँचा।

    नवीन अथवा विकल्प बने नुस्खे से इसका उत्तर स्पष्टतः मिलना चाहिए कि ‘किसे, क्या, और कहाँ से कितना मिले?’ पहले बनी हुई अवांछनीय दशा में विकल्प के लागू करने के उपरान्त नई-दिशा बेहतर परिणाम दे यह आवश्यक है।

    भूगोलवेत्ता का बदले वातावरण को (गुणकारी और बेहतर) उत्पन्न करने में उसका योगदान और उस रूप में उसकी हैसियत क्या होनी चाहिए, यह निर्णय किया जाना आवश्यक है। किसी क्षेत्र (Space) में विनियोजन अथवा आवंटन की क्षमता का निर्धारण कर और वहाँ के संसाधनों का विश्लेषण और संश्लेषण के आधार पर भूगोलवेत्ता सार्वजनिक नीति-निर्धारण में योगदान दे सकते हैं।

    भारत जैसे विकासशील देशों में घोर रूप में आन्तरिक असमानताएँ व्याप्त हैं। तीसरी दुनिया के देशों में पूंजी और अधिकार शक्ति (Wealth and Power) केवल कुछ ही शहरी लोगों और भूमिधरों के हाथों में केन्द्रित बनी है। दक्षिणी अफ्रीका इसका ज्वलन्त उदाहरण है।

    भारत में भी आधे से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन-निर्वाह कर रही है, और कुल राष्ट्रीय परिसम्पत्ति (National Assets) का 50 प्रतिशत से भी अधिक भाग केवल दो दर्जन परिवारों के हाथों में सीमित है। यहाँ, यद्यपि गांवों में 70 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, परन्तु अधिकांश आर्थिक क्रिया महानगरी नाभियों (Metropolitan Cores) में संचालित बनी है।

    नगरोन्मुख औद्योगिक एवं सामाजिक पक्षपातपूर्ण नीति हमारे नियोजकों के मस्तिष्क में घर कर चुकी है। इससे शहरी व ग्रामीण जनसंख्या के बीच और अमीर-गरीब के बीच खाई चौड़ी होती जा रही है।

    संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा व आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में भी लोक-कल्याण के स्तरों में स्थानिक अन्तर पाया जाता है। सामान्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका में भौतिक- जीवन का स्तर विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत ऊँचा है। परन्तु लाखों अमेरिकी, विशेषतः वहाँ के नीग्रो, गरीबी में शहरों की उपेक्षित बस्तियों (Ghettos) में जीवन काट रहे हैं।

     संयुक्त राज्य के दक्षिणी ग्रामीण भागों (टेक्सास, जार्जिया, आदि) में जन-जीवन की दशाएँ उतनी ही बदतर बनी हैं जैसी कि दक्षिणी अफ्रीकी भागों में हैं। वहाँ की नगरी गंदी बस्तियों (Slums) में अपराध, नशाखोरी आदि कुकृत्यों की दर पर्याप्त ऊँची है। यह U.S.A. की पूंजीवादी व्यवस्था और आर्थिक विकास का खोखलापन और असफलता ही है जहाँ लगभग 12 प्रतिशत (2.6 करोड़) लोग संयुक्त राज्य के जनगणना ब्यूरो (U.S. Census Bureau) के अनुसार, अधिकृत निर्धारित गरीबी रेखा की सीमा से नीचे की आय वाले हैं। वस्तुतः यह दयनीय आर्थिक स्थिति इसलिए भी विस्फोटक बनी है क्योंकि नगरी- पक्षपाती और धनिकोन्मुख नीति ने राज्य व समाज को जकड़ रखा है। इससे आर्थिक व सामाजिक असन्तुलन व असमानताएँ उत्पन्न हो रही हैं।

    प्राकृतिक अवरोधों जैसे अकाल, बाढ़, सूखा, तूफान, मरुस्थल आदि वातावरणीय विभीषिकाओं को पूर्णतः मिटाया नहीं जा सकता, हाँ कम कम किया जा सकता है। भूगोलवेत्ताओं का दायित्व ऐसी स्थितियों में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बन उठता है। वह समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संसाधनों के संरक्षण और पुन: आबंटन से जीवन की गुणवत्ता बनाए रख सकते हैं। समानता को चरणबद्ध अर्जित कर लोक कल्याण के लक्ष्य पूर्ति के प्रयास में योगदान दे सकते हैं।

     भूगोलवेत्ता अन्य ज्ञान के विद्वानों की तुलना में वातावरण के प्रबन्धन में अधिक सक्षम सिद्ध हो सकते हैं। वे स्थानिक दृष्टि से समस्याओं को उजागर करने में और स्थानिक रूप से वितरित सूचनाओं व आंकड़ों का विश्लेषण करने में योग्य सिद्ध हो सकते हैं।

    वातावरण के प्रति चेतना और स्थानिक विमीय के अवबोध का अनुभव भूगोलवेत्ता जितना उचित व्याख्या कर सकता, अन्य विशिष्ट विषयों में केन्द्रित विज्ञान नहीं कर सकते। आपूर्ण- स्थानिक वातावरण में भूगोलवेत्ता की पैठ विश्वसनीय होती है क्योंकि वह समस्तता (Wholeness) से जुड़ी होती हैं।

    कल्याणकारी समाज की आवश्यकता आवश्यक वस्तुओं के बेहतर आवंटन, बेहतर वितरण और उत्पादन के साधनों के बेहतर विनियोग में निहित है। इनके द्वारा ही व्यक्तियों, वर्गों में और विभिन्न स्थानों में सुविधाएँ उपलब्ध कराकर लोक- कल्याण की मंजिल तक बढ़ा जा सकता है।

     अनेक देशों में भूगोलवेत्ता अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर लोकनीतियों के निर्धारण में सक्रिय बने हैं। वे संसाधनों के लाभकारी प्रभावों को सभी वर्गों के लोगों तक उपलब्ध बनाने में व्यस्त हैं।

     स्वीडन, नार्वे, नीदरलैण्ड, इजरायल, डेनमार्क, रूस, फ्रांस, न्यूज़ीलैण्ड व आस्ट्रेलिया के देशों में भूगोलवेत्ताओं व अन्य वैज्ञानिकों के मध्य अच्छा तालमेल बना है। इससे नियोजन द्वारा वहाँ मानव और वातावरण के बीच अन्तक्रिया को लोकनीति व कल्याणकारी दिशा में अपनाया गया है। शोध कार्य के उद्देश्य भी सर्वजनहितों के लिए निर्धारित हैं।

     भारत के भूगोलवेत्ता भी निरन्तर वृद्धि प्राप्त क रही जनसंख्या के लिए अनेक सामाजिक व आर्थिक समस्याओं और रोजगार विषयक संकट का सामना व्यावहारिक योजनाओं (Pragmatic Proposals) को अपनाकर हल कर सकते हैं।



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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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