Unique Geography Notes हिंदी में

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ECONOMIC GEOGRAPHY (आर्थिक भूगोल)

3. वॉन थ्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त 

3. वॉन थ्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त



        कृषि उत्पादन का कार्य विस्तृत क्षेत्र पर होता है, इसीलिए साधारणतया इसमें स्थानीयकरण सम्बन्धी कोई समस्या प्रथम दृष्टया नजर नहीं आती, किन्तु जिस तरह किसी उद्योग के किसी स्थान विशेष पर स्थानीयकरण की समस्या उत्पन्न होती है, उसी तरह यह समस्या कृषि उत्पादन में भी होती है। इस समस्या के समाधान हेतु 1826 में सर्वप्रथम वॉन थ्यूनेन ने प्रयास किया।

      जॉन हेनरिज वॉन थ्यूनेन (1783-1850) एक जर्मन विद्वान थे। सन् 1810 में वे रोस्टोक नगर के नजदीक मैकलनबर्ग में टेलो कृषि फार्म के मैनेजर बने। थ्यूनेन जीवनपर्यन्त 40 सालों तक बड़ी ही कुशलता एवं सफलता के साथ अपना पद सम्भाले रहे।

       अपने जीवन के अन्तिम 40 वर्षों में उन्होंने अपना फार्म चलाने के लिए लागत तथा उत्पादन की छोटी से छोटी जानकारी का अध्ययन किया। उन्होंने अपने कृषि अवलोकनों के माध्यम से एक विशेष तरह के परस्पर सम्बन्ध को ढूँढ निकाला, जो कि तुलनात्मक लाभ के सिद्धान्त पर आधारित था।

      वॉन व्यूनेन के उस कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त पर विचार करने से पहले उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्दाबलियों से परिचित होना आवश्यक है:

(अ) आर्थिक लगान (Economic Rent)- आर्थिक लगान वस्तुतः वह सापेक्षिक लाभ है, जो किसी फसल को बाजार के नजदीक की भूमि पर उपजाने से प्राप्त होता है।

(ब) लगान शून्य भूमि (No Rent Land)- ऐसी सीमान्त क्षेत्र की भूमि जहां फसल उत्पादन से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता, लगान शून्य भूमि कहते हैं।

     वॉन थ्यूनेन ने अपने जटिल सिद्धान्त को सरल रूप देने के लिए कुछ मान्यताओं की एक सूची तैयार की, ताकि सम्बन्धित बाधाओं पर अंकुश रखा जा सके। इनकी मान्यताएँ निम्न प्रकार थीं:

1. सर्वप्रथम उन्होंने एक ऐसे विलग प्रदेश (Isolated (State) की कल्पना की, जिसके केन्द्र में एक ही नगर स्थित हो और उस नगर के चतुर्दिक विस्तृत क्षेत्र हो। वह नगर उस प्रदेश का एकमात्र क्रय-विक्रय स्थल (बाजार) हो। उस प्रदेश से न तो कृषि उत्पाद बाहर बेचा जाता हो और न ही वह नगर अन्य प्रदेश से आयात करता हो।

2. केन्द्रीय नगर को छोड़कर सम्पूर्ण क्षेत्र में ग्रामीण आबादी हो। ग्रामीण आबादी अधिकतम लाभ प्राप्ति की इच्छुक हो और नगर में मांग के अनुरूप फसलों की किस्मों में फेरबदल करने में सक्षम हो।

3. उस विलग प्रदेश में भूतल समान हो तथा सर्वत्र समान भौतिक दशाएँ हों, अर्थात् धरातल, जलवायु, मृदा की उत्पादन क्षमता, आदि सर्वत्र समान हो तथा फसलोत्पादन के अनुकूल हो।
4. सम्पूर्ण प्रदेश में उत्पादन एवं परिवहन की लागत समान हो। साथ ही कृषि उत्पादन में प्रदेश आत्मनिर्भर भी हो।

5. इस विलग प्रदेश में एक ही प्रकार का परिवहन साधन घोड़ा गाड़ी उपलब्ध हो।

6. परिवहन व्यय दूरी एवं भार के अनुपात में वृद्धिमान हो।

        इन मान्यताओं के पश्चात् थ्यूनेन ने कहा कि उक्त प्रकार अनुकूल दशाओं वाले विलग प्रदेश में केन्द्रीय नगर के चारों की तरफ नगर से बढ़ती दूरी के अनुरूप विभिन्न फसलों का उत्पादन पृथक्-पृथक् संकेन्द्रीय वृत्तखण्डों (Concentric Zones) में होगा।

      नगर के निकटतम प्रथम वृत्तखण्ड में फल, शाक-सब्जी व दूध का उत्पादन होगा, क्योंकि इन वस्तुओं की मांग नगर में अधिक रहती है और ये जल्दी खराब भी हो जाती हैं। इस पेटी का क्षेत्रीय विस्तार नगर की जरूरतों पर निर्भर करता है। अगर नगरीय जनसंख्या में इन चीजों की मांग अधिक होगी, तो यह पेटी अधिक दूरी तक विस्तृत होगी।

      द्वितीय वृत्तखण्ड में ईंधन के लिए लकड़ी का उत्पादन कार्य होगा। लकड़ी के भारी होने के कारण यद्यपि परिवहन व्यय अधिक होगा, परन्तु शाक-सब्जी व दूध के परिवहन व्यय से कम ही होगा, अतः इन्हें द्वितीय वृत्तखण्ड में ही स्थान दिया जाएगा।

     तृतीय वृत्तखण्ड की भूमि में गहन कृषि द्वारा अन्नोत्पादन किया जाएगा। गहन अन्नोत्पादन की वजह से पशुचारण के लिए परती जमीन नहीं छोड़ी जाएगी, किन्तु चतुर्थ वृत्तखण्ड में विस्तृत कृषि प्रणाली द्वारा अन्नोत्पादन होगा और साथ ही पशुपालन भी। परिवहन व्यय की सापेक्षिक दर के अनुसार ही पंचम वृत्तखण्ड में तीन खेत प्रणाली अपनाई जाएगी। अन्त में, षष्टम खण्ड में मांस तथा दूध प्राप्ति हेतु पशुपालन होगा। मांस वाले पशुओं को पैदल ही नगर को भेज दिया जाएगा, किन्तु दूध को परिवर्तित स्वरूप में अर्थात् मक्खन, पनीर, आदि के रूप में बाजार में भेजा जाएगा।

वॉन थ्यूनेन
चित्र-1

1. फल सब्जी

2. ईंधन के लिए लकड़ी

3. गहन कृषि

4. कृषि और पशुपालन

5. तीन खेती प्रणाली

6. मांस तथा दुग्ध प्राप्ति हेतु पशुपालन  

       इस तरह, वॉन थ्यूनेन के अनुसार नगर के चारों तरफ छह संकेन्द्रीय वृत्तखण्डों में विभिन्न फसलों का उत्पादन होगा। उन वृत्तखण्डों अनुसार का सीमांकन अधिकतम लगान के सिद्धान्त के होगा। दूसरे शब्दों में, इस विलग प्रदेश में नगर से बढ़ती दूरी के अनुसार विभिन्न वृत्तखण्डों में विभिन्न फसलों का उत्पादन स्पष्टतः परिवहन व्यय के अनुरूप निर्धारित होगा, जिसे निम्न सूत्र से स्पष्ट किया जा सकता है:

P= S – (E+T)

जहाँ, P = किसान को फसल विक्रय से लाभ

S  = फसल का विक्रय मूल्य

E = उत्पादन लागत

T = परिवहन व्यय

      अर्थात् किसी फसल का उत्पादन नगर से उतनी दूरी तक ही हो सकेगा, जितनी दूरी तक उसके उत्पादन लागत और बाजार में पहुंचने तक के व्यय का योग उस फसल के प्रचलित मूल्य के बराबर हो। इस तरह अब तक हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कृषि पेटी की बाह्य दूरी परिवहन लागत के कारण घटते हुए लाभ के द्वारा निर्धारित होती है, परन्तु सिर्फ ऐसा ही नहीं है, वॉन थ्यूनेन के विचार से परिवहन व्यय तो मुख्य निर्धारक घटक है ही, साथ ही विभिन्न फसलों से प्राप्त ‘सापेक्षिक लाभ’ भी प्रभाव डालता है।

      अतः उन्होंने कहा कि किसी कृषि वृत्तखण्ड में आन्तरिक क्षेत्र में उसी फसल का उत्पादन किया जाएगा, जिससे किसान को अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लगान प्राप्त हो। इस तथ्य को थ्यूनेन ने संलग्न चित्र 2 के माध्यम से समझाया है।

वॉन थ्यूनेन
चित्र 2

चित्र में ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ तथा ‘घ’ फसलों हेतु आर्थिक लगान और बाजार से दूरी का सम्बन्ध प्रदर्शित है, जबकि अन्य तथ्य समान माने गए हैं। कोई फसल बाजार से जितनी दूर उत्पादित की जाएगी, स्पष्टतः उस पर परिवहन व्यय उसी अनुपात में बढ़ जाएगा और लगान घटता चला जाएगा। यही कारण है कि लगान व दूरी का सम्बन्ध प्रदर्शित करती सरल रेखाएं झुकती हुई दिखाई गई हैं। चूंकि सभी फसलों की परिवहन दशाएं समान नहीं हैं, अतः ढाल प्रवणता में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।

       ग्राफ में ‘क’ फसल का उत्पादन 4.5 मील तक हो सकता है। इसी प्रकार ‘ख’ फसल का 10 मील, ‘ग’ का 25 मील तथा ‘घ’ का 40 मील तक उत्पादन हो सकता है, क्योंकि क्रमशः इन्हीं दूरियों तक इन फसलों के उत्पादन से कुछ-न-कुछ आर्थिक लगान जरूर प्राप्त होगा, परन्तु सापेक्षिक लाभ के सिद्धान्त के आधार पर देंखे तो ‘क’ फसल (शाक-सब्जी-दूध) का उत्पादन विक्रय स्थल (नगर) से 1.7 मील की दूरी तक ही हो सकता है, क्योंकि उसके आगे इससे प्राप्त लगान ‘ख’ फसल से कम हो जाता है।

       इसी तरह ‘ख’ फसल (ईंधन हेतु लकड़ी) का उत्पादन 5 मील तक, ‘ग’ फसल (गहन कृषि) 19 मील तथा ‘घ’ फसलोत्पादन (विस्तृत कृषि) 40 मील की दूरी तक हो सकता है।

       इसके बाद की भूमि पर मांस व दूध के लिए पशुपालन होगा। अगर विक्रय स्थल (नगर) को केन्द्र मानकर इन्हीं दूरियों की त्रिज्या से वृत्त खींचे जाएं, तो नगर के चारों ओर इन विभिन्न फसलों के उत्पादन वाले संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड बन जाते हैं।

वॉन थ्यूनेन
चित्र-3

      समय गुजरने के साथ-साथ वॉन थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड में फसल उत्पादन की आलोचना होने लगी। लोगों द्वारा यह प्रश्न उठाया जाने लगा कि यदि परिवहन के साधनों में बदलाव ही जाए, तो क्या संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड का स्वरूप बरकरार रह सकेगा? थ्यूनेन को भी लगा कि उनके सिद्धान्त में कहीं कुछ कमी है।

       अतः सिद्धान्त को संशोधित करने के लिए उन्होंने एक नौ-परिवहन योग्य नदी को भी परिवहन के साधन के रूप में माना और कहा कि इससे माल दुलाई तीव्र गति से होगी एवं धरातलीय परिवहन की तुलना में इस पर मात्र 10 प्रतिशत लागत आएगी।

      दूसरे, उन्होंने एक वैकल्पिक विक्रय स्थल को भी इस मॉडल में स्थान दिया, जिसमें प्रतियोगिता की पर्याप्त गुंजाइश हो। तीसरा परिवर्तन उन्होंने भूमि की समरूप उर्वरता शक्ति वाली मान्यता में किया। इन सब परिवर्तनों का प्रभाव यह हुआ कि आज के भूमि उपयोग विन्यास की भांति थ्यूनेन के संशोधित मॉडल का भी स्वरूप अनियमित दिखने लगा।

        वर्तमान में कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से चरितार्थ करने में थ्यूनेन की काल्पनिक मान्यताएं खरी नहीं उतरतीं। आज के युग में विविध प्रकार के तथा तीव्रगामी परिवहन के साधनों का विकास हो गया है। उत्तरोत्तर प्राविधिक विकास के फलस्वरूप परिवहन के साधनों के अलावा अन्य सामाजिक-आर्थिक कारक यथा- कृषि उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक, आदि भी किसी प्रदेश के भूमि उपयोग को प्रभावित करने लगे हैं।

     19वीं सदी में, जब इस सिद्धान्त का जन्म हुआ था, नगरों में लकड़ी का महत्व अधिक था। खाना पकाने के अतिरिक्त घरों को गर्म रखने के लिए लकड़ी जलाई जाती थी, जबकि आज खाना पकाने हेतु रसोई गैस या मिट्टी के तेल का उपयोग होता है और घरों को गर्म रखने के लिए विद्युत् चालित रूम हीटर का।

      वायुयान, रेल जैसे तीव्रगामी एवं शीत-प्रशीतकों से परिवहन साधनों का विकास हो जाने के कारण फल, ‘युक्त शाक-सब्जी, दूध, आदि शीघ्र खराब होने वाले पदार्थों को बहुत दूर उत्पादित कर भी उन्हें शीघ्र शहर भेजना सम्भव है।

      अब किसी क्षेत्र में फसल के क्रय-विक्रय हेतु मात्र एक विक्रय स्थल (बाजार) न होकर कई विक्रय स्थल उपलब्ध हैं। तीव्रग्रामी परिवहन साधनों के विकसित हो जाने के कारण परिवहन व्यय दर भी भार तथा दूरी के अनुसार नहीं बढ़ती। थ्यूनेन ने विलग प्रदेश में एक समान प्राकृतिक वातावरण की कल्पना की थी, जो असम्भव है।

       अगर एकाकी प्रदेश में केन्द्रीय नगर के एक तरफ धरातल अधिक समतल व उपजाऊ है, तो स्वाभाविक सी बात है कि संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड का एक ओर विस्तार अधिक होगा और दूसरी ओर कम, फलतः संकेन्द्रीय वृत्त का वास्तविक आकार नहीं बनेगा और उसका रूप विकृत हो जाएगा।

     इस तरह वर्तमान समय में विलग प्रदेश में पाई जाने वाली विभिन्नताएं कई नगर, उपनगर व केन्द्रीय नगरों की उपस्थिति, वैज्ञानिक व तकनीकी ढंग से कृषि का होना, परिवहन के विविध आधुनिक साधन, परिवहन व्यय में भिन्नता तथा प्राकृतिक वातावरण में विभिन्नता के फलस्वरूप कृषि के स्थानीयकरण में क्रमबद्धता का पाया जाना कठिन है। तथापि इस मॉडल का सारा कुछ अप्रासंगिक हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। इसके ऐतिहासिक पक्ष को नजरअन्दाज कर इसकी आलोचना करना अवैज्ञानिक है।

        वॉन थ्यूनेन ने इस सिद्धान्त का विवेचन बड़े तार्किक व वैज्ञानिक ढंग से किया है। अनेक त्रुटियों के होते हुए भी उनके सिद्धान्त का विशेष महत्व है, क्योंकि इस सिद्धान्त ने कृषि भूगोल के अध्ययन में एक नवीन अध्याय का शुभारम्भ किया औ अनेक विद्वानों का ध्यान अपनी तफ आकर्षित किया।

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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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