Unique Geography Notes हिंदी में

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BA SEMESTER-IGEOMORPHOLOGY (भू-आकृति विज्ञान)

1. भू-आकृति विज्ञान की प्रकृति और विषय क्षेत्र

    1. भू-आकृति विज्ञान की प्रकृति और विषय क्षेत्र



भू-आकृति विज्ञान की प्रकृति और विषय क्षेत्र 

             स्थलमण्डल के दृश्य भागों अर्थात् स्थलरूपों का वैज्ञानिक अध्ययन भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है, इसलिए भू-आकृति विज्ञान को स्थलरूपों का विज्ञान कहते हैं। भू-आकृति विज्ञान के लिए अंग्रेजी में प्रयुक्त किये जाने वाले Geomorphology शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ (Geo-पृथ्वी, morphi-रूप और logos-वर्णन) भी स्थलरूपों के अध्ययन से सम्बन्धित है।

भू-आकृति विज्ञान

      इस विज्ञान के अन्तर्गत अध्ययन किये जाने वाले उच्चावचनों को तीन श्रेणियों में रखा जाता है-

(i) प्रथम श्रेणी के उच्चावचन-

        इसके अन्तर्गत महाद्वीप तथा महासागरीय बेसिन को सम्मिलित करते हैं। इनके वितरण, वर्तमान प्रारूप तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है।

(ii) द्वितीय श्रेणी के उच्चावचन–

       इसके अन्तर्गत पृथ्वी के अन्तर्जात बलों द्वारा उत्पन्न रचनात्मक स्थलाकृतियों यथा पर्वत, भ्रंश, पठार, मैदान तथा झीलों का अध्ययन सम्मिलित है। इन स्थलाकृतियों के अध्ययन के लिए पृथ्वी के अन्तर्जात बलों तथा प्रक्रमों के स्वरूप तथा क्रियाविधि का अध्ययन भी आवश्यक होता है।

(iii) तृतीय श्रेणी के उच्चावचन-

      इसके अन्तर्गत बहिर्जात प्रक्रमों (वायुमंडल से उत्पन्न यथा– जल, सरिता, सागरीय जल, भूमिगत जल, पवन, हिमनद एवं परिहिमानी) द्वारा अपक्षय, अपरदन एवं निक्षेपण द्वारा जनित स्थलरूपों की आकारिकी, उत्पत्ति एवं विकास का गहन अध्ययन किया जाता है इन स्थलरूपों को निर्मित्त, प्रभावित एवं परिमार्जित करने वाले प्रक्रमों को सम्मिलित रूप में अनाच्छादनात्मक प्रक्रम (Denudational Processes) कहते है जिसके अंतर्गत अपक्ष्य (Weathering) तथा अपरदन (Erosion, निक्षेपण भी) को सम्मिलित करते है।

थार्नबरी के अनुसार- भू-आकृति विज्ञान स्थलरूपों का विज्ञान है, परन्तु इसमें अन्तः सागरीय रूपों के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है।

स्ट्राहलर के अनुसार- भू-आकृति विज्ञान भौतिक भूगोल का एक प्रमुख अंग है जो सभी प्रकार के स्थलरूपों की उत्पत्ति तथा उनके व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विकास की व्याख्या करता है।

ए. एल. ब्लूम के अनुसार- भू-आकृति विज्ञान स्थलाकृतियों तथा उन्हें परिवर्तित करने वाले प्रक्रमों का क्रमबद्ध वर्णन एवं विश्लेषण करता है।

बारसेस्टर महोदय ने इसे पृथ्वी के उच्चावचों का व्याख्यात्मक वर्णन करने वाला विज्ञान कहा है। यह भू-पटल के विभिन्न रूपों, उनकी उत्पत्ति, इतिहास तथा विकास की व्याख्या करता है।

निष्कर्षतः भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों का व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। इसमें न केवल स्थलरूपों के आकार (आकृति) का अध्ययन किया जाता है अपितु इन स्थलरूपों पर क्रियाशील अपरदनात्मक एवं निक्षेपणात्मक प्रक्रमों की भी व्याख्या समयानुसार क्रमबद्ध विकास के आधार पर की जाती है।

           ज्ञातव्य है कि भू-आकृति विज्ञान में पृथ्वी सतह पर विद्यमान स्थलरूपों का, उनके ऐतिहासिक विकास क्रम का तथा उन प्रक्रमों का अध्ययन किया जाता है जिनसे स्थलरूपों का निर्माण होता है। इन प्रक्रमों में विवर्तनिक शक्तियाँ (उत्थान, अवतलन) अपक्षय, अपरदन, परिवहन और निक्षेपण महत्वपूर्ण हैं।

          भौतिक भूगोल और भूविज्ञान (Earth Sciences) दोनों से ही भू-आकृति विज्ञान घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों का स्थानिक पैमाने पर (उर्मिकाओं से लेकर पर्वतों तक) और कालिक पैमाने पर (सैकण्ड से लेकर लाखों वर्षों तक) अध्ययन किया जाता है। वस्तुतः स्थलरूप, जिन पदार्थों से बने हैं (शैल और आवरण सामग्री) तथा जो प्रक्रम एवं बल इन पदार्थों पर क्रियाशील रहते हैं, के बीच सन्तुलन के प्रतीक हैं।

           अपक्षय और अपरदन के प्रक्रम सम्मिलित रूप से क्रियाशील रहकर जहां एक ओर स्थलरूपों का विनाश करते हैं वहीं दूसरी ओर वे स्थलरूपों का सृजन अथवा निर्माण करते हैं। उल्लेखनीय है कि पृथ्वी सतह पर तल शैल अथवा आधार प्रस्तर (Bedrock) और मिट्टी जैसे निष्क्रिय पदार्थों पर जलवायु और भूपृष्ठीय गतियां (Crustal Dynamics) जैसे क्रियाशील कारकों के सक्रिय होने से स्थलरूपों का निर्माण होता है। विभिन्न प्रकार के भू-आकृति प्रक्रमों में गुरुत्व बल महत्वपूर्ण चालक शक्ति होती है।

           गुरुत्व बल के अतिरिक्त सूर्यताप तथा पृथ्वी के आन्तरिक भाग में विद्यमान ऊर्जा भी भू-आकृतिक प्रक्रमों के संचालन में सहायक होती है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में विद्यमान ऊर्जा भ्रंशन क्रिया को जन्म देती है। इस दृष्टि से पृथ्वी की उत्पत्ति, आकार, सौरमण्डलीय सम्बन्धों, गतियों, शक्तियों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन भी भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है।

         भूदृश्य या दृश्यभूमि के मानव कल्याणकारी उपयोग हेतु स्थलरूपों का अध्ययन एवं उनका सम्यक ज्ञान एक व्यावहारिक आवश्यकता बन गई है, विशेषकर वर्तमान समय में जबकि भूदृश्य में होने वाले कुछ परिवर्तन मानव एवं प्राकृतिक पर्यावरण के लिए विपत्तिकारक बन चुके हैं। इसी कारण से वर्तमान में मानवीय कार्यों के भू-आकृतिक प्रक्रमों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन भी इसके अन्तर्गत किया जाने लगा है।

विषय क्षेत्र:-

         विकासवादी भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों के विकास क्रम का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इसी के अन्तर्गत क्षेत्र के भू-आकृतिकीय विकास की प्रमुख घटनाओं का तिथिकरण किया जाता है।

         डेविस ने स्थलरूपों के विकास क्रम को अपरदन चक्र के द्वारा समझाया है, जिसमें तीव्र ढाल समय के साथ अन्ततः धीमे ढाल वाले पेनीप्लेन में बदल जाता है। अन्य भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं, जिन्हें अनाच्छादन कालक्रम विज्ञानवेत्ता (Denudation Chronologists) कहा जाता है, ने बताया है कि किस तरह प्रादेशिक स्थलरूप समय के साथ हुए अपरदन एवं भूपृष्ठीय सतह के उत्थान की तीव्रता अथवा दर के अनुरूप विकसित हुए हैं। इन्होंने भूतकाल की अपरदनात्मक सतहों पर तिथिकरण द्वारा स्थलरूपों के विकास को समझाने का प्रयास किया।

         कुछ भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं ने परिवर्तित जलवायु के प्रभावों द्वारा स्थलरूपों के विकास को समझाया है। जलवायवीय भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों और उनके ऊपर क्रियाशील भू-आकृतिक प्रक्रमों को प्रादेशिक जलवायवीय दशाओं से सम्बन्धित कर अध्ययन किया जाता है। जैसे ठण्डे क्षेत्रों में विद्यमान जलवायवीय दशाओं में हिमनद एक प्रभावी भू-आकृतिक प्रक्रम है जो भूदृश्य में परिवर्तन लाता है। इसी प्रकार वनस्पति विहीन रेगिस्तानी क्षेत्रों में पवन प्रमुख भू-आकृतिक प्रक्रम है।

           चट्टानों के प्रकार और भूगर्भिक संरचना (जैसे भ्रंश और वलन) के स्थलरूपों पर प्रभावों का अध्ययन संरचनात्मक भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है। अधिकांश भू-आकृतिक प्रक्रमों की क्रियाशीलता चट्टानों की कठोरता और कोमलता से प्रभावित होती है। इसी तरह अधिकांश ढाल रूप चट्टानों की कठोरता और विन्यास (Disposition) के अनुरूप विकसित होते हैं। स्थलरूपों पर क्रियाशील प्रक्रमों (जैसे अपक्षय, अपरदन) की तीव्रता और प्रकृति का अध्ययन प्रक्रम भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है। इसी में नदी बेसिनों और पहाड़ी ढालों पर होने वाले शैल पुंज प्रवाह (Mass Wasting) का अध्ययन किया जाता है। इन गतिशील प्रक्रमों की क्रियाविधि पर मानव के क्रियाकलापों से उत्पन्न प्रभावों का अध्ययन जैव-भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है।

        मानव ने अपनी गतिविधियों के द्वारा विभिन्न भू-आकृतिक प्रक्रमों की क्रियाविधि में परिवर्तन ला दिया है। भूमि उपयोग में परिवर्तन तथा वन विनाश से मृदा अपरदन बढ़ा है। इसी प्रकार अम्ल वर्षा से शैलों के विघटन की प्रक्रिया तीव्र हुई है। मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए भू-आकृति विज्ञान के व्यावहारिक ज्ञान के उपयोग का अध्ययन व्यावहारिक भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है।

        आज सम्पूर्ण विश्व में तटीय भागों में अपरदन, हिमनदों का पिघलना और उनकी गति का तीव्र होना, भूस्खलन, जल संयोजकों का अपरदन, बांधों में अवसादों का जमाव, मरुद्यानों और परिवहनों मार्गों पर बालुका स्तूपों का विस्तार, उत्खात भूमि का विस्तार, आदि जैसे समस्याओं की मॉनीटरिंग, पहचान और प्रबन्धन में व्यावहारिक भू-आकृति विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है।

प्रश्न प्रारूप

1. भू-आकृति विज्ञान को परिभाषित कते हुए इसके विषय क्षेत्र की विवेचना कीजिये।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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