14. Uniform Civil Code (समान नागरिक संहिता)
14. Uniform Civil Code
(समान नागरिक संहिता)
परिचय
➤ भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार भारत के सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि भारत के सभी धर्मों के नागरिकों के लिये एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून होना चाहिये। हालांकि संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की जिम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी।
➤ इस कानून के तहत व्यक्तिगत कानून, संपत्ति संबंधी कानून और विवाह, तलाक तथा गोद लेने से संबंधित कानूनों में समानता है।
नोट: वर्तमान समय में भारत में अधिकतर व्यक्तिगत कानून धर्म के आधार पर तय किये जाते हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के व्यक्तिगत कानून हिंदू विधि से संचालित किये जाते हैं, वहीं मुस्लिम तथा ईसाई धर्मों के लोंगों के लिए अपना अलग व्यक्तिगत कानून हैं। मुस्लिम समुदाय के लोगों का कानून शरीयत पर आधारित है, जबकि अन्य धार्मिक समुदायों के लोगों के लिए व्यक्तिगत कानून भारतीय संसद द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित हैं। वर्तमान समय में गोवा ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है।
➤ इस संहिता की जड़ें 1867 के पुर्तगाली नागरिक संहिता में मिलती हैं, जिसे पुर्तगालियों द्वारा लागू किया गया था और बाद में इसे वर्ष 1966 में नए संस्करण के साथ बदल दिया। गोवा में सभी धर्मों के लोगों के लिए विवाह, तलाक, विरासत आदि के संबंध में समान कानून हैं।
महत्वपूर्ण बिंदुः
➤ सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्र ने अभी तक अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास नहीं किया है।
➤ सुप्रीम कोर्ट ने अनेकों ऐतिहासिक निर्णयों में सरकार से UCC को लागू करने का आह्वान किया है और समय-समय पर न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस पर अपना रुख भी स्पष्ट करने को कहा है।
➤ सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन राज्य समान नागरिक संहिता की अपेक्षाओं को पूरा करेंगे और नियमों का एक समान सेट प्रत्येक धर्म के रीति-रिवाजों जैसे- विवाह, तलाक आदि के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा।
➤ वर्ष 1956 में हिंदू कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया था, लेकिन देश के तभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया है।
➤ मोहम्मद अहमद खास बनाम शाह बानो बेगम के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला दिया और समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों की बजाय भारत के कानून CrPC को प्राथमिकता दी थी।
➤ इस फैसले में अदालत ने यह भी कहा था कि संविधान का अनुच्छेद-44 वर्तमान समय में एक बेकार पड़ा हुआ आर्टिकल बनकर रह गया है।
UCC का इतिहास
➤ UCC का इतिहास 100 साल से भी ज्यादा पुराना है।
➤ UCC का इतिहास 19वीं शताब्दी में भी खोजा जा सकता है, जब शासकों ने अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर बल दिया था। हालांकि, तब विशेष रूप से सिफारिश की गई थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के कानून से बाहर रखा जाना चाहिए।
➤ ब्रिटिश लोग एकेश्वरवादी ईसाई था, इस कारण उनके लिए भारत में चल रही जटिल प्रथाओं को समझना मुश्किल था। साथ ही अंग्रेजो का मुख्य उद्देश्य भारत से पैसा लूटना था, इसलिए वे इस प्रकार के विवाद में नहीं पड़ना चाहता था।
स्वतंत्रता के बाद UCC पर चर्चा
➤ भारत की स्वतंत्रता के बाद UCC पर अलग-अलग विचार थे। कुछ सदस्यों का मानना था कि UCC भारत जैसे अलग-अलग धर्मों और संप्रदायों वाले देश में लागू करना ठीक या बेहतर नहीं होगा, जबकि अन्य का मानना था कि UCC देश में अलग-अलग समुदायों के बीच एक देश-एक कानून की तर्ज पर लोगों में सद्भाव लाएगा।
UCC पर आंबेडकर और नेहरू का विचार
➤ डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का इस मुद्दे पर मानना था कि UCC कोई थोपा हुआ नहीं बल्कि केवल एक प्रस्ताव था। वहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का कहना था, “मुझे नहीं लगता कि वर्तमान समय में भारत में मेरे लिए इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करने का समय आ गया है।”
PM मोदी और UCC
➤ भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता की पुरजोर वकालत करते हुए विरोधियों से सवाल किया कि दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? उन्होंने साथ ही कहा कि संविधान में भी सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार का उल्लेख है।
➤ पीएम मोदी ने हाल ही में एक चुनावी रैली के दौरान कहा था कि भाजपा ने तय किया है कि वह तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के बजाय ‘संतुष्टिकरण’ के रास्ते पर चलेगी।
➤ उन्होंने यह भी कहा था विपक्ष समान नागरिक संहिता के मुद्दे का इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को गुमराह करने और भड़काने के लिए कर रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारतीय मुसलमानों को यह समझना होगा कि कौन से राजनीतिक दल उन्हें भड़काकर उनका फायदा लेने के लिए उनको कमजोर बर्बाद कर रहे हैं।
➤ साथ ही प्रधानमंत्री ने कहा था, “हम देख रहे हैं समान नागरिक संहिता के नाम पर लोगों को भड़काने का काम हो रहा है। एक घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून हो, दूसरे के लिए दूसरा, तो क्या वह परिवार चल पाएगा। फिर ऐसी दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चल पाएगा? हमें याद रखना है कि भारत के संविधान में भी नागरिकों के समान अधिकार की बात कही गई है।”
UCC के पक्ष में तर्क
➤ भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता शब्द को जोड़ा गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है।
➤ मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा विद्यमान है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये लेकिन आजादी के 75 वर्षों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है।
➤ सामासिक संस्कृति के सम्मान के नाम पर किसी वर्ग की राजनीतिक समानता का हनन करना संविधान के साथ-साथ संस्कृति और समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूलभूत नियमों के तहत महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है लेकिन समय के साथ इन नियमों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर असमानता उत्पन्न कर दी जाती है।
➤ धार्मिक रुढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये साथ ही विधि के समक्ष समता की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये।
➤ वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है, इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी भी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये हानिकारक है।
➤ राजनीतिक लाभ के कारण कई बार सरकारें इन धार्मिक मुद्दों में छेड़छाड़ से बचती हैं इसलिये सरकारों को भी ऐसे मामलों को धार्मिक मुद्दों के बजाय व्यक्तिगत अधिकारों की दृष्टि से देखना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था।
➤ सर्वोच्च न्यायालय ने संपत्ति पर समान अधिकार और मंदिर प्रवेश के समान अधिकार जैसे न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समाज में समता हेतु उल्लेखनीय प्रयास किया है इसलिये सरकार तथा न्यायालय को समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए समग्र एवं गंभीर प्रयास भी करने चाहिये।
UCC के विरोध में तर्क
➤ समान नागरिक संहिता का मुद्दा किसी सामाजिक या व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दे से हटकर एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से राजनीतिक तुष्टिकरण कर रहे है, वहीं दूसरी ओर कई राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं।
➤ हिंदू या किसी और धर्म के मामलों में बदलाव उस धर्म के बहुसंख्यक समर्थन के बगैर नहीं किया गया है, इसलिये राजनीतिक तथा न्यायिक प्रक्रियाओं के साथ ही धार्मिक समूहों के स्तर पर मानसिक बदलाव का प्रयास किया जाना अति आवश्यक है।
➤ सामासिक संस्कृति की विशेषता को भी वरीयता दी जानी चाहिये क्योंकि समाज में किसी धर्म के असंतुष्ट होने से अशांति की स्थिति बन सकती है।
UCC पर विधि आयोग (Law Commission) का विचार:
➤ विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया।
➤ विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है।
➤ भारतीय बहुलवादी संस्कृति के साथ ही महिला अधिकारों की सर्वोच्चता के मुद्दे को इंगित किया।
➤ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा की जा रही कार्यवाहियों के मद्देनजर विधि आयोग ने कहा कि महिला अधिकारों को वरीयता देना प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य होना चाहिये।
➤ विधि आयोग के अनुसार, समाज में असमानता की स्थिति उत्पन्न करने वाली समस्त रुढ़ियों की समीक्षा की जानी चाहिये। इसलिये सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की जरूरत है जिससे उनसे संबंधित पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें।
➤ वैश्विक स्तर पर प्रचलित मानवाधिकारों की दृष्टिकोण से सर्वमान्य व्यक्तिगत कानूनों को वरीयता मिलनी चाहिये। लड़कों और लड़कियों की विवाह की 18 वर्ष की आयु को न्यूनतम मानक के रूप में तय करने की सिफारिश की गई जिससे समाज में समानता स्थापित की जा सके।
निष्कर्ष:
इस प्रकार निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि भारत के सभी धर्मों एवं समाजों की प्रगति और सौहार्द्रता हेतु उस धर्म और समाज में विद्यमान सभी पक्षों के बीच समानता का भाव होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिये यह अपेक्षा की जा सकती है कि वर्तमान समय में बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर समाज की संरचना में परिवर्तन होना चाहिये।
स्रोत: hindi.business-standard.com, द हिन्दू and drishtiias.com