Unique Geography Notes हिंदी में

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GENERAL COMPETITIONSसामान्य भूगोल #

2. Meaning of Major Geographical Terms (प्रमुख भौगोलिक शब्दों का अर्थ)

Meaning of Major Geographical Terms

(प्रमुख भौगोलिक शब्दों का अर्थ)



प्रमुख भौगोलिक शब्दों का अर्थ

♣ अपघर्षण पवन⇒ वायु, नदी, हिमानी, समुद्री लहरों आदि अपरदनात्मक प्रक्रमों द्वारा निरन्तर क्रियाशील रहने पर धरातल का बहुत सा मलवा परिवहित कर लिया जाता है, इस क्रिया को ही अपघर्षण कहते हैं।

♣ वायूढ़⇒ पवन जिन पदार्थों का परिवहन, अपरदन तथा निक्षेपण करता है, उसे वायूढ़ की संज्ञा दी जाती है।

♣ वायुराशि⇒ वायु का विस्तृत पुंज जिसमें तापमान, आर्द्रता में समानता विद्यमान रहती है।

जलोढ़ शंकु⇒ नदी अपने मुहाने पर जमाव के द्वारा शंकु की आकृति का निर्माण करती है, जिसका पृष्ठीय ढाल अत्यन्त झुका हुआ होता है, उसे जलोढ़ शंकु की संज्ञा दी जाती है।

♣ अल्पाइन⇒ यूरोप में एक ऐसा पर्वत तंत्र है जिसमें जलवायु वनस्पति स्थलाकृति, आदि में विशिष्टता विद्यमान है।

♣ प्रतिचक्रवात⇒ केन्द्र में उच्च वायुदाब तथा परिधि पर निम्न वायुदाब से युक्त एक उच्च वायुमण्डलीय दाब क्षेत्र होता है, जिसमें केन्द्र से बाहर निकलने वाली हवाएं उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में वामावर्त होती है।

♣ भूमि उच्च⇒ चन्द्रमा या अन्य ग्रह जब अपने पथ पर पृथ्वी से सर्वाधिक दूरी पर रहते हैं, तब वह स्थिति भूमि उच्च कहलाती है।

♣ वायुमण्डल⇒ पृथ्वी के चारों ओर फैले विस्तृत गैस, जलवाष्प व धूल-कण का आवरण है। इसी आवरण के कारण धरातल जीव जगत तथा वनस्पति-जगत का अस्तित्व सम्भव हुआ है।

♣ प्रवाल द्वीप वलय⇒ वलयाकार या अश्वनाल के आकार की प्रवाल कीटों द्वारा निर्मित स्थलाकृति है, जो लैगूनों व खुले सागरों में पायी जाती है।

♣अजोर्स⇒ यह एक उपोष्ण कटिबन्धीय प्रति चक्रवात है, जो अन्ध महासागर में स्थित है। इसकी सक्रियता ग्रीष्म ऋतु में देखने को मिलती है।

♣ बरखान⇒ पवन के निक्षेप द्वारा निर्मित बालुका स्तूप है, इसका आकार चापाकार होता है।

♣ प्रवाल रोधिका⇒ यह सागरीय स्थलाकृति सागर तट के समानान्तर होती है, जिसका निर्माण सागरीय लहरों के निक्षेप द्वारा होता है।

♣ बैथोलिथ⇒ जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर एक गुम्बद के समान ठोस हो जाते है तो उससे बैथोलिथ का निर्माण होता है।

♣ ज्वालामुखी कुण्ड⇒ जब ज्वालामुखी का उद्गार होता है, तो उस समय निकला लावा उसके मुख के चारों तरफ ऊंचाई में जमा हो जाता है, जिससे ज्वालामुखी कुण्ड का निर्माण होता है।

♣ ग्रीनविच मीन टाइम⇒ ग्रीनविच में 0° याम्योत्तर रेखा पर स्थानीय समय, जो यूरोप व ब्रिटिश द्वीप समूह का मानक समय है।

♣ पहाड़ी⇒ पर्वत से निम्न तथा अपने आस-पास की भूमि से एकाएक ऊपर उठा हुआ भाग पहाड़ी कहलाता है।

♣ अश्व अक्षांश⇒ वायुमण्डलीय उच्च वायुदाब की उपोषण पेटी व्यापारिक एवं पछुवा पवनों के मध्य स्थित 30°- 35° दोनों गोलार्द्धों में विस्तीर्ण है। यहां पर वायु अवरोहण के कारण प्रतिचक्रवातीय दशाएं तथा शुष्क मौसम विद्यमान रहता है।

♣ आग्नेय शैल⇒ ऐसी चट्टान जो तप्त मैग्मा के शीतलन के फलस्वरूप सृजित होती है।

♣ अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा⇒ 180° देशान्तर के लगभग साथ-साथ निर्धारित रेखा, जो केवल जलीय भाग में खींची गई है, फलत: उक्त रेखा से विचलित हो जाती है। जब पश्चिम की तरफ यात्रा करते हैं तो एक दिन घटा दिया जाता है तथा पूर्व की ओर यात्रा करने पर एक दिन जोड़ दिया जाता है।

♣ लीप वर्ष⇒ 365 दिन व 6 घण्टे में पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर लगा लेती है। प्रत्येक चौथे वर्ष 1 दिन जोड़ कर 366 दिन का एक वर्ष बनाया जाता है, जो लीप वर्ष कहलाता है।

♣ चन्द्र ग्रहण⇒ सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य जब पृथ्वी गुजरती है तो इसकी छाया चन्द्रमा पर पड़ती है, जिससे चन्द्रमा पर अन्धकार दिखाई पड़ता है, जो चन्द्र ग्रहण कहलाता है।

♣ चुम्बकीय ध्रुव⇒ उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक के निकट) तथा दक्षिणी ध्रुव अण्टार्कटिक क्षेत्र में मैगनेटिक धातु के क्षेत्र विद्यमान हैं, जो चुम्बकीय (मैगनेटिक) ध्रुव के नाम से जाने जाते हैं।

♣ मध्य रात्रि का सूर्य⇒ 15 मई से 31 जुलाई तक उत्तरी गोलार्द्ध में तथा 15 नवम्बर से 31 जनवरी तक दक्षिणी गोलार्द्ध में, जिसमें सूर्य 24 घण्टे नहीं छिपता अर्थात् मध्य रात्रि में भी द्रष्टव्य रहता है। इसे मध्य रात्रि का सूर्य की संज्ञा दी जाती है।

♣ज्वार-भाटा⇒ चन्द्रमा व सूर्य की आकर्षण शक्ति के फलस्वरूप सागरीय जल में आन्दोलन प्रारम्भ हो जाता है, जिससे जल का कुछ भाग उच्च तथा कुछ भाग निम्न रहता है। उच्च भाग को ज्वार तथा निम्न भाग को भाटा की संज्ञा दी जाती है।

♣ बृहत् ज्वार⇒ जब सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी एक सीध में आ जाते हैं तो सूर्य तथा चन्द्रमा का आकर्षण बल सम्मिलित रूप से एक ही दिशा में कार्य करता है, जिससे ज्वार तीव्र होता है, जिसे दीर्घ ज्वार की संज्ञा दी जाती है। दीर्घ ज्वार की स्थिति प्रत्येक महीने की पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन होती है।

♣ लघु ज्वार⇒ जब सूर्य तथा चन्द्रमा की स्थिति पृथ्वी से समकोणिक रहती हैं, तो इनका आकर्षण बल अलग-अलग कार्य करता है। जिससे ज्वार की तीव्रता अल्प होती है। इसे लघु ज्वार की संज्ञा दी जाती है।

♣ इन्द्र धनुष⇒ सूर्य की किरणों के सामने वर्षा की बूंदों के पड़ने से अपवर्तन तथा परावर्तन के कारण निर्मित एक सप्त रंगी चाप इन्द्र धनुष के नाम से जाना जाता है।

♣ वृष्टि छाया⇒ पर्वत का वह भाग, जहां पर हवाएं वर्षा करके गर्म होकर उतरती हैं, तो न्यून वर्षा करती हैं, वह वृष्टि छाया कहलाता है।

♣ कोयम्बैंग⇒ जावा की स्थानीय पवन है। इसके प्रवाहित होने पर यहां की तम्बाकू इत्यादि की फसल नष्ट हो जाती है।

♣ समुद्री जलवायु⇒ द्वीपीय एवं महाद्वीपीय समुद्र तटों की जलवायु अन्य की अपेक्षा भिन्न है, क्योंकि दैनिक एवं ऋतुवत् तापान्तर अल्प होता है। वर्षा की अधिकता वताग्रों के कारण यहां पर सम्भव होती है।

♣ पर्वतीय वर्षा⇒ आर्द्रतायुक्त पवनों के प्रवाह मार्ग में जब पर्वत पड़ जाते हैं, तो ये हवाएं उछाल दी जाती हैं, जिससे रुद्रोष्म तापह्रास दर से इनका संघनन होता है। वायु के संतृप्त होने पर वर्षा प्रारम्भ होती है, जो पर्वतीय वर्षा कहलाती है। पर्वतीय ढालों पर प्रारम्भ में वर्षा कम तथा इसके बाद मात्रा बढ़ती जाती है, पुनः घटती जाती है।

♣ ध्रुवीय पवनें⇒ ध्रुवीय पवनों तथा उष्ण कटिबन्धीय पवनों को अलग करने वाले वाताग्र को ध्रुवीय वाताग्र की संज्ञा दी जाती है।

♣ वर्षा⇒ वर्षा वह प्रक्रिया है, जिसमें आरोही वायु के संतृप्त होने, शीतलित जल सीकरों के मध्य कुछ हिमकणों की उपस्थिति, जल बिन्दुकाओं का विकास तथा वायुमण्डल के विभिन्न स्तरों से गुजरकर जल बिन्दुओं के रूप में बरस पड़ती है।

♣ तापान्तर⇒ किसी स्थान का एक निश्चित अवधि के उच्चतम एवं न्यूनतम तापमान के अन्तर को तापान्तर कहते हैं।

♣ स्थानीय पवन⇒ किसी स्थान विशेष की पवने जो स्थानीय निम्न व उच्च वायुदाब के कारण उत्पन्न वायुदाब प्रवणता के कारण प्रवाहित होती हैं।

♣ कैम्पो⇒ मध्य ब्राजील के उष्ण कटिबन्धीय घास के मैदान व सवाना घास के मैदान को कम्पो की संज्ञा दी जाती है।

♣ महाद्वीप⇒ गैसीय पुंज के शीतलन तथा ठोसीकरण के फलस्वरूप पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी कठोर हुई। शीतलन की प्रक्रिया के समय संकुचन के कारण कुछ भाग ऊंचा व कुछ भाग नीचा हो गया। ऊंचे भाग को महाद्वीप तथा नीचे भाग को, जहां जल भर गया, महासागर कहलाया।

♣ महाद्वीपीय विस्थापन⇒ महाद्वीप या पृथ्वी की बाह्य कठोर परत किसी गाढ़े द्रव पर तैर रही है। गुरुत्वाकर्षण तथा अन्य अनेक भू गर्भिक कारणों से अतीत में बृहत् स्तर पर इन महाद्वीपों का विस्थापन हुआ। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन वेगनर महोदय ने किया था।

♣ धारा⇒ समुद्र जलराशि जब एक निश्चित दिशा में प्रवाहित होती है, तो उसे धारा कहते हैं।

♣ निक्षेपण⇒ यह वह क्रिया है, जिसमें अपरदनात्मक कारक मलवा का परिवहन करके किसी स्थान पर जमा करते हैं।

♣ पृथ्वी⇒ जलवायुविक दशाओं एवं मानव से युक्त सौर मण्डल का एक सदस्य ग्रह, जो अपने निश्चित पथ पर सूर्य का चक्कर लगाती है।

♣ भूकम्प⇒ भूगर्भिक या बाह्य कारणों के फलस्वरूप पृथ्वी की बाह्य पपड़ी में उत्पन्न होने वाले कम्पन को भूकम्प की संज्ञा दी जाती है।

♣ पारिस्थितिकी⇒ यह ऐसा तंत्र है जिसमें जीव एवं उनके वातावरण के पारस्परिक सम्बन्ध विद्यमान है।

♣ वातावरण⇒ जीवों के चारों ओर व्याप्त परिवेश वातावरण कहलाता है।

♣ भूमध्य रेखा या वृहत् वृत्त⇒ 0º अक्षाश रेखा, जो दोनों ध्रुवों से समान दूरी पर स्थित है तथा पृथ्वी के अक्ष को समकोण पर काटती है। इसकी लम्बाई 40,069 किलोमीटर है।

♣ ब्लॉक पर्वत⇒ दो समानान्तर भ्रंशों के मध्य का वृहत भाग के उत्थित होने से जिस पर्वत का निर्माण होता है, उसे ब्लॉक पर्वत की संज्ञा दी जाती है।

♣ वलित पर्वत⇒ अपरदन के विभिन्न कारकों के द्वारा मलवा का निक्षेपण भूसन्नति में होता है। प्लेटों के खिसकाव के कारण या अन्य भूगर्भिक कारणों से मलवा में वलन होता है, तब जिस पर्वत का निर्माण होता है, उसे दलित पर्वत की संज्ञा दी जाती है।

♣ भू-सन्नति⇒ भू-सन्नतियाँ लंबे, संकरे तथा उथले जलीय भाग होती है, जिनमें तलछटिय निक्षेप के साथ-साथ तली में धंसाव होता है। वर्तमान समय में प्राय: सभी विद्वानों की यह मान्यता है कि प्राचीन और नवीन वलित पर्वतों का आविर्भाव भू-सन्नतियाँ से हुआ है। जैसे- रॉकी भूसन्नति से रॉकी पर्वत, यूराल भू-सन्नति से यूराल पर्वत तथा टेथिस भू-सन्नति से महान हिमालय पर्वतों का निर्माण हुआ।

♣ हिमनदन⇒ वह समय जिसमें हिमानी क्षेत्रों में हिमानी क्रियाएं होती है।

♣ हिमानी या हिमनद⇒ हिम का विस्तृत खण्ड जो गुरुत्व के कारण हिम क्षेत्रों में गतिशील रहता है।

♣ हिम झंझावात⇒ सूक्ष्म हिमकणों के प्रचण्ड तूफान को हिम झंझावात कहते हैं।

♣ समीर⇒ हल्के वायुदाब प्रवणता के फलस्वरूप जब हवाएं एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवाहित होती हैं, तो उन्हें समीर की संज्ञा दी जाती है।

♣ स्थल समीर⇒ रात में जब स्थलीय भाग पर वायुदाब अधिक तथा सागरीय भाग में बायुदाब न्यून रहता है, तो हवाएं स्थल से जल की तरफ प्रवाहित होती है, इन्हें स्थल समीर कहते हैं।

♣ मानसून⇒ ये हवाएं मौसमी होती है। ग्रीष्मकाल में सागर से स्थल की ओर 6 महीने तथा शीतकाल में स्थल से सागर की ओर 6 महीने प्रवाहित होती है। इसकी उत्पत्ति में वायुदाब प्रवणता तिब्बत के पठार के ऊपर प्रतिचक्रवातीय दशाएं, पूर्वी जेट स्ट्रीम की स्थिति आदि महत्वपूर्ण कारक उत्तरदायी हैं।

♣ ध्रुवीय पवन⇒ अत्यन्त शीतल हवाएं जो ध्रुवों से शीतोष्ण प्रदेशों की ओर प्रवाहित होती है, उन्हें ध्रुवीय पवन कहते हैं।

♣ तूफानी चालीसा या गरजता चालीसा⇒ 40° से 60° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य तीव्र गति से प्रवाहित होने वाली पवन है।

♣ रेतीला तूफान⇒ मरु प्रदेशों में 15 मीटर की ऊंचाई तक बालू के कणों की आंधी चलती है जिसे रेतीला तूफान कहते हैं।

♣ सिमून⇒ सहारा मरुस्थल में कष्टप्रद, शुष्क तथा लू की भांति प्रवाहित होने वाली पवन को सिमून कहते हैं।

♣ पश्चिमी हवाएं⇒ दोनों गोलाद्धों में 35° से 65° अक्षांशों के मध्य प्रवाहित होने वाली पवनों को पछुवा पवन की संज्ञा दी जाती है।

♣ चिनूक⇒ संयुक्त राज्य अमेरिका में रॉकी पर्वत के पश्चिमी ढाल पर उतरने वाली पवन को चिनूक कहते हैं। ये हवाएं रॉकी के पूर्वी ढाल के सहारे आरोहण करती हैं। शुष्क रुद्धोष्म तापह्रास दर से शीतलन, संघनन तथा वर्षा होती है। ऊंचाई पर जाने पर इनकी आर्द्रता सामर्थ्य समाप्त हो जाती है तथा ये हवाएं गर्म होकर रॉकी के पूर्वी ढाल के सहारे नीचे उतरती हैं।

♣ शीत वाताग्र⇒ शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात में जिस वाताग्र के सहारे शीत वायु गति करती है, उसे शीत वाताग्र की संज्ञा दी जाती है। इस वाताग्र के आगमन से मौसम बदल जाता है।

♣ शीत ध्रुव⇒ उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में सबसे शीतल भाग को शीत ध्रुव की संज्ञा दी जाती है।

♣ संघनन⇒ वायु का आरोहण की प्रक्रिया के फलस्वरूप वायु में विद्यमान जल वाष्प ठोस रूप में परिवर्तित हो जाती है, इसे संघनन कहते हैं।

♣ चक्रवात⇒ चक्रवात उस वायुमण्डलीय परिस्थिति को कहते हैं जिसमें हवाएँ एक निम्न वायुदाब केन्द्र के चारों ओर घूमने की प्रवृत्ति रखती है। चक्रवात में ज्यों ही किसी स्थान पर निम्न वायुदाब केन्द्र का निर्माण होता है त्यों ही उच्च वायुदाब केन्द्र से हवाएँ निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर दौड़ने लगती है। उच्च वायुदाब केन्द्र से आने वाली हवाओं का मुख्य उद्देश्य निम्न वायुदाब केन्द्र को समाप्त करना होता है। लेकिन निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर दौड़ने वाली हवाएँ पृथ्वी की घूर्णन गति के प्रभाव में आकार उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई के विपरीत (Anticlock wise) और दक्षिण गोलार्द्ध में घड़ी की सुई की दिशा (Clock wise) में घुमने लगती हैं।

♣ डोलड्रम⇒ विषुवत रेखीय निम्न वायुदाब की पेटी जिसमें व्यापारिक व उत्तरी-पूर्वी हवाएं सम्मिलित रूप से प्रवाहित होती हैं। यहां पर वायु का आरोहण भी परिलक्षित होता है।

♣ तुषार⇒ जब वायुमण्डलीय तापमान OºC या इससे कम होता है, तो वायुमण्डल में व्याप्त वाष्प छोटे-छोटे वर्फ कणों में बदल कर धरातल, वनस्पतियों व घासों पर जमा हो जाता है, उसे तुषार कहते हैं। 

♣ ओला⇒ कपासी वर्षी मेघ से गिरने वाली 5 मिलीमीटर या इससे अधिक व्यास वाली बर्फ के कण को ओला की संज्ञा दी जाती है।

♣ हरीकेन⇒ मेक्सिको की खाड़ी में आने वाले चक्रवातीय तूफान को हरीकेन कहते हैं।

♣ हीदरग्राफ⇒ यह एक ऐसा रेखाग्राफ है जिसमें निश्चित अवधि के तापमान (ऊर्ध्वाधर रेखा) व वर्षा (क्षैतिज रेखा) को प्रदर्शित किया जाता है।

♣ हिमगव्हर⇒ हिमानी प्रदेशों में हिमानी द्वारा अपरदित वृत्ताकार गर्त को हिमगव्हर की संज्ञा की दी जाती है।

♣ भृगु⇒ सागरीय लहरें तटवर्ती क्षेत्रों में मुलायम चट्टानों का अपरदन कर लेती हैं, परन्तु कठोर चट्टाने सागर-जल के ऊपर निकली रहती है, उसे भृगु की संज्ञा दी जाती है।

♣ शंकु⇒ ज्वालामुखी के उदगार में निकले लावा के द्वारा कभी-कभी शंकु के आकार में निक्षेप होता है, जिसे शंकु की संज्ञा दी जाती है।

♣ क्रेटर⇒ ज्वालामुखी शिखर में कीपाकार गर्त, जिससे कभी-कभी ज्वालामुखी उद्गार होता है, उसे क्रेटर कहते हैं।

♣ डेल्टा⇒ नदियाँ अपनी अन्तिम अवस्था में मुहाने पर ग्रीक अक्षर डेल्टा की भांति जमाव करती हैं, जिन्हें डेल्टा की संज्ञा दी जाती है।

♣ निक्षेपण⇒ यह वह क्रिया है, जिसमें अपरदनात्मक प्रक्रम पवन, हिमानी, परिहिमानी, सागरीय लहरें, नदियों, आदि के द्वारा मलवा जमाव होता है।

♣ मरुस्थल⇒ यह ऐसा विस्तृत भू-भाग है, जिसमें न्यून वर्षा, बालू की अधिकता, छोटी व कंटीली झाडियाँ विद्यमान होती हैं।

♣ टिब्बा⇒ मरुस्थलीय प्रदेशों में पवन के जमाव द्वारा निर्मित गुम्बदाकार छोटी-छोटी बालू की पहाड़ियों को टिब्बा कहा जाता है।

♣ डाइक⇒ ज्वालामुखी के उद्गार के बाद लावा के शीतल तथा उसके अपरदन के बाद कठोर ग्रेनाइट का निकला हुआ भाग डाइक कहलाता है। अर्थात जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर लम्बत ठोस होता है तो उसे डाइक कहते है।

♣ कगार⇒ सारगीय लहरें अपरदन करके तटवर्ती क्षेत्रों में काफी दूर खोखला भाग बना देती है, जबकि ऊपर चट्टानें विद्यमान रहती हैं, जिसे कगार की संज्ञा दी जाती है।

♣ एस्कर⇒ हिमानी क्षेत्रों में हिम नदियाँ अपरदित पदार्थों को कटक के रूप में जमा करती है, जिसे एस्कर की संज्ञा दी जाती है।

♣ एस्चुअरी⇒ सागरीय क्षेत्रों में नदी का यह मुहाना, जिसमें प्रायः ज्वार आता रहता है। इसका निर्माण उच्च ज्वार वाले क्षेत्र में होता है तथा ऐसे नदियाँ इनका निर्माण करती हैं जो रिफ्ट घाटी से होते हुए बहती हैं। अरब सागर में गिरने वाली सभी नदियाँ एस्चुअरी का निर्माण करती है।

♣ भ्रंशन⇒ ऐसी दरार जो चट्टानों में भूगर्भिक या बाह्य कारणों से निर्मित होती है, उसे भ्रंशन की संज्ञा दी जाती है।

♣ फियोर्ड⇒ सागर तटवर्ती क्षेत्रों में ऐसा समतल मैदान जो हिमनदियों की घाटियों के धंसाव के फलस्वरूप निर्मित होता है।

♣ वलन⇒ भूगर्भिक या बाह्य शक्तियों द्वारा चट्टानों में दबाव की क्रिया होती है तो तोड़-मरोड़ उठती है, जिससे इनका कुछ भाग ऊंचा तथा कुछ भाग नीचा हो जाता है, इसे वलन कहते हैं।

♣ गॉर्ज⇒ तीव्र पार्श्ववर्ती ढालों वाली गहरी व संकीर्ण घाटी को गॉर्ज कहते हैं।

♣ खाड़ी⇒ समुद्र तटीय क्षेत्रों में जल स्थलीय भागों में इस तरह प्रवेश किए हुए रहता है, जिसके तीन ओर सागर रहता है। प्रत्येक खाड़ी कोई न कोई वृहत सरिता अपना मुहाना अवश्य बनाती है। इसका निर्माण भूपटल विभंजन तथा धरातलीय अवतलन के फलस्वरूप होता है।

♣ केन्द्र स्थल⇒ किसी प्रदेश का वह भाग जो उसकी समृद्धि व विकास का आधार हो तथा उस प्रदेश की अधिकांश सेवाएं वहां से प्रदान की जाती हों।

♣ हार्स्ट⇒ दो दरारों या भ्रंशों का मध्य भाग जब ऊपर उठ जाता है, तो वह हार्स्ट कहलाता है।

टेकरी⇒ अपरदन के अवशिष्ट भाग जो गोल व लघु पहाड़ी के रूप में होता है, उसे टेकरी कहते हैं।

♣ सिन्धु पंक⇒ समुद्र तल में समुद्री निक्षेप जो अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, वे सिन्धु पंक कहलाते हैं।

♣ प्रायद्वीप⇒ यह वह स्थलीय भाग है जो तीन और समुद्रों से घिरा रहता है।

♣ पठार⇒ कठोर, समतल पृष्ठ से युक्त, तीव्र ढाल वाले किनारों से युक्त उत्थित या अपरदित स्थलखण्ड जो लगभग 300 मीटर से 900 मीटर ऊंचा हो उसे पठार कहते हैं।

♣ प्रदेश⇒ भूपृष्ठ की यह लघु इकाई, जिसमें साम्यता विद्यमान हो तथा अपने निकटवर्ती क्षेत्रों से सर्वथा भिन्न हो, उसे प्रदेश की संज्ञा दी जाती है।

♣ युवाला⇒ घोलीकरण द्वारा निर्मित विस्तृत गर्त जो डोलाइन से बड़ा होता है, उसे युवाला कहते हैं। यह स्थलाकृति कार्स्ट प्रदेश में होती है।

♣ घाटी⇒ उच्च भूमि से घिरी निम्न भूमि जिसका निर्माण नदियाँ अपनी अपरदनात्मक प्रक्रिया द्वारा करती है।

♣ अवशोषण⇒ वायुमण्डल में विद्यमान जलवाष्प तथा गैसें और विकिरण की लघु तरंगों का शोषण करते हैं, जो वायुमंडलीय अवशोषण कहलाता है।

♣ अभिवहन⇒ वायुमण्डल में ऊष्मा का क्षैतिजवत् एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण होता है, तब इस क्रिया को अभिवहन करते हैं।

♣ आर्द्रता⇒ गैंसों के साथ वायु में जो जलवाष्प की मात्रा होती है, उसे वायुमण्डलीय आर्द्रता कहते हैं।

♣ आयनमण्डल⇒ धरातल से लगभग 80 किलोमीटर से 500 किलोमीटर तक मध्य्मंडल के ऊपर स्थित वायुमण्डलीय स्तर को आयनमण्डल कहते हैं। निम्न वायुदाब के कारण पराबैगनी फोटान्स तथा तीव्रगति वाले कणों के द्वारा वायुमण्डल पर अनवरत प्रहार से गैसों का आयनन जाता है। इसी आयनन के प्रभाव से इस स्तर का नामकरण आयनमण्डल किया गया।

♣ उष्मा स्थानांतरण⇒ ऊष्मा का एक स्थान से दूसरे स्थान, एक वस्तु से दूसरी वस्तु में संचार उष्मा का स्थानान्तरण कहलाता है।

♣ एल्बिडो⇒ अन्तरिक्ष की ओर परावर्तित विकिरण तथा आपतित विकिरण की मात्रा के अनुपात को पृथ्वी का एल्बिडो कहा जाता है।

♣ ओस⇒ स्वच्छ तथा शान्त मौसम में सूर्यास्त के पश्चात् धरातल के सन्निकट वायु में निहित जलवाष्प के संघनन द्वारा क्षैतिज तल में संचित शीतलित जल की बूंदों को ओस करते हैं।

♣ कोहरा⇒ धरातल के सत्रिकट आर्द्र वायु में शीतलन तथा संघनन की क्रिया होती है, तो जल या हिम के असंख्य सूक्ष्म कण उपस्थित हो जाते हैं, जिससे वायुमण्डल की पारदर्शकता एक किलोमीटर से कम हो जाती है, तब इसे कोहरा कहा जाता है।

♣ धुन्ध⇒ जब जल या हिम कणों की संख्या इतनी कम रहती है कि इसकी पारदर्शीकता एक किलोमीटर से अधिक हो जाती है, तब उसे घुन्ध कहते हैं।

♣ कृष्णिका विकिरण⇒ विकिरण की अधिकतम मात्रा जो किसी दिये गये तापक्रम पर होती है, उसे कृष्णिका विकिरण कहते हैं।

♣ मौसम विज्ञान⇒ मौसम विज्ञान वह विज्ञान है जो मौसम के प्रत्येक तत्व का वैज्ञानिक विश्लेषण करता है।

♣ मेट्रोलॉजी⇒ मेट्रोलॉजी (मौसम विज्ञान) शब्द ‘मेटोलॉजी’ से लिया गया है जिसका तात्पर्य है- ‘ऊपर की वस्तुओं का विवेचन’। अर्थात् वायुमण्डल की दशाओं का विश्लेषण इसके अन्तर्गत किया जाता है।

♣ रुद्धोष्म ताप परिवर्तन⇒ किसी वस्तु का ऐसा परिवर्तन जिसमें वह वस्तु किसी बाहरी माध्यम से न ऊष्मा ग्रहण करे न तो उसे ऊष्मा दे, फिर भी उसका ताप बदल जाय, तब वह परिवर्तन रुद्धोष्म परिवर्तन कहलाता है।

       किसी वायु का आरोहण होता है तो उस वायु का शीतलन 1º सेन्टीग्रेड प्रति 165 मीटर की दर से होता है। इस ताप ह्रास दर को रुद्धोष्म ताप परिवर्तन कहते हैं। इसी प्रकार जब किसी वायु का अवरोहण होता है तो उसके ताप में 1º सेन्टीग्रेड प्रति 165 मीटर की दर से वृद्धि होती है।

♣ वर्षण⇒ धरातल पर वायुमंडल से जल तरलावस्था या ठोस रूप में गिरता है, तब इसे वर्षण या अवक्षेपण कहा जाता है।

♣ फुहार⇒ जब वायु प्रवाह की दिशा में उड़ती हुई जल वर्षा की बूंदे जो सूक्ष्म, सघन तथा समान आकार वाली होती हैं, धरातल पर गिरती है, तब उसे फुहार कहते हैं।

♣ जल वृष्टि⇒ तरलावस्था में होने वाली वृष्टि है। जब जल की बूँदें तथा हिम साथ-साथ धरातल पर गिरते हैं, तो इसे सहिम वृष्टि कहते हैं।

♣ वाताग्र⇒ जब विभिन्न तापमान, आर्द्रता तथा घनत्व वाली वायु राशियाँ परस्पर मिलती हैं तो इनका पृथकत्व एक सीमा प्रदेश के द्वारा होता है, जिसे वाताग्र कहते हैं।

      जब उष्ण वायु धरातल को छोड़ कर शीतल वायु के ऊपर उठती है तथा जिसके माध्यम से इन दोनों में पृथकत्व होता है तो उसे उष्ण वाताग्र कहते हैं। जब शीतल वायु गतिशील होकर गर्म वायु को प्रतिस्थापित करती है, तब शीतल वायु का अग्र बढ़ता हुआ किनारा शीत वाताग्र कहलाता है।

♣ वायु राशि⇒ किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में समान भौतिक विशेषताओं के साथ उपस्थित वायुपूँज को वायुराशि कहते हैं। यहाँ समान भौतिक विशेषता का तात्पर्य वायु के तापमान, आर्द्रता एवं स्थिरता जैसे गुणों से होता है। जहाँ इन गुणों में एकाएक असमानता प्रकट होती है वहीं वायुराशि की सीमा समझी जाती है। किसी भी वायुराशि की भौतिक गुण स्रोत क्षेत्र, सतह की विशेषता, निम्न अथवा उच्च अक्षांशीय क्षेत्र में गमन एवं समय पर निर्भर करता है।

♣ वायुदाब⇒ धरातल पर पड़ने वाला वायु के भार का दबाव ही वायुदाब है।

♣वायुमण्डल⇒ भू-पृष्ठ के चरों ओर हजारों किलोमीटर मोटे फैले गैसीय आवरण को वायुमण्डल कहा जाता है। इसमें मुख्यतः 9 प्रकार की गैसें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आर्गन, कार्बन डाइआक्साइड, हाइड्रोजन, नियॉन, हीलियम, क्रिप्टोन तथा जेनन पायी जाती हैं। वायुमण्डल में गैसों के अतिरिक्त जलवाष्प तथा धूलकण भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं।

♣ वाष्पीकरण⇒ किसी भी ताप पर जब कोई द्रव धीरे-धीरे गैस में परिवर्तित होता है, तब इस प्रक्रिया को वाष्पीकरण कहा जाता है। जल से जब गैस बनती है तो वह जल वाष्प कहलाती है।

♣ संघनन⇒ जल वाष्प गैसीय अवस्था से जिस प्रक्रिया द्वारा तरल अवस्था में परिवर्तित होता है, उस प्रक्रिया को संघनन कहते हैं।

♣ संतृप्त वायु⇒ किसी निश्चित वायु राशि में जल की इतनी मात्रा रहती है कि वह और जल वाष्प की मात्रा को ग्रहण नहीं कर सकती है, उसे संतृप्त वायु कहते हैं।

♣ समताप मण्डल⇒ वायुमण्डल में ट्रोपोपाज के बाद के स्तर को समताप मण्डल कहते हैं, जिसकी धरातल से औसत 50 किलोमीटर मानी जाती है। इस मण्डल के प्रत्येक भाग में ताप समान पाया जाता है। इसमें मेघ, जलवाष्प, धूलकण आदि नहीं होते हैं।

♣ सूर्यातप⇒ सूर्य विकीर्ण ऊर्जा का वह भाग जो पृथ्वी की ओर प्रवाहित होता है, उसे सूर्यातप कहते हैं।

♣ सौर स्थिरांक⇒ वायुमण्डल के वाह्य भाग में एक वर्ग सेन्टीमीटर तल पर एक मिनट तक लम्बवत् पड़ने वाली सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा की मात्रा को सौर स्थिरांक (ऊष्मांक) कहते हैं।

♣ कृत्रिम वर्षा⇒ कृत्रिम वर्षा एक प्रक्रिया है, जिसमें एक विशेष प्रकार के मेघों में (जिसमें वर्षा की संभावना रहती है) कृत्रिम तरीकों से संतृप्त करके वर्षा करायी जाती है।

♣ जलवायु⇒ किसी प्रदेश की वायुमण्डलीय दशाओं का दीर्घकालीन औसत को उस प्रदेश की जलवायु कहा जाता है। जलवायु को आंग्ल भाषा में ‘क्लाइमेट’ कहा जाता है।

    क्लाइमेट शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के ‘क्लाइमा’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ झुकाव होता है। ग्रीक विद्वानों ने सूर्य की किरणों के झुकाव से उत्पन्न तापमान की विषमता के लिए इसका प्रयोग किया था।

♣ जलवायु प्रदेश⇒ भू-पृष्ठ का वह भाग, जिसमें जलवायवीय तत्वों में स्थानीय विभेदों के बावजूद इनमें अनेक समानताएं विद्यमानहती है, जिससे वह अपने निकटवर्ती क्षेत्रों से भिन्न होता है, उसे जलवायु प्रदेश कहते है।

♣ जल-वाष्प⇒ वायु में उपस्थित जल की मात्रा को जलवाष्प कहते हैं। वायुमण्डल में 8,000 मीटर तक जल वाष्प की 90 प्रतिशत मात्रा विद्यमान होती है।

♣ जलवायु के तत्व⇒ 1. वायुदाब, 2. पवन, 3. आर्द्रता तथा वर्षण, 4. मेघ, 5. वायु का तापमान, 6. सौर विकिरण।

♣ जेट स्ट्रीम⇒ ऊपरी वायुमण्डल में अर्थात क्षोभमंडल के ऊपर तथा समताप मंडल के नीचे क्षैतिज एवं तीव्र गति से चलने वाले वायु को जेट स्ट्रीम कहते हैं। यह हवा प्रायः 9-18 km की ऊँचाई के बीच चलती है।

     इस जेटस्ट्रीम की खोज द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों ने किया था। कालान्तर में स्वीडिश वैज्ञानिक रॉक्सबी (स्वेडेन) ने इसका व्यापक अध्ययन किया। इसलिए उनके नाम पर इसे रॉक्सबी तरंग भी कहते हैं।

♣ जल-स्तम्भ⇒ जापान, चीन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तटों से थोड़ी दूर सागर-तल पर उत्पन्न टॉरनेडो, जो अपने कीप में समुद्र के जल को कुछ ऊपर तक उठा लेते हैं तथा जिनका ऊपरी भाग अपने निचले भाग की अपेक्षा अधिक तीव्रगति से गतिशील होता है, को जल-स्तम्भ कहते हैं।

♣ टॉरनेडो⇒ संयुक्त राज्य अमेरिका के तटीय क्षेत्रों में अल्प अवधि वाला प्रचण्ड तूफान टॉरनेडो कहलाता है, जिसका व्यास 30 मीटर से 1,500 मीटर, लम्बाई 150 से 600 मीटर, ऊंचाई 320 किलोमीटर तथा गति 32 से 64 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। इसमें तेज आंधी, मूसलाधार वर्षा, ओले, मेघ गर्जन तथा बिजली की चमक सभी लक्षण विद्यमान रहते हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन-काल लगभग 3 मिनट तक का होता है।

♣ टाइफून (हरीकेन)⇒ टाइफून उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात होता है, जिसे जापान में टाइफून के नाम से जाना जाता है। एक प्रचण्ड एवं गहरा चक्रवातीय भ्रमिल होता है, जिसके केन्द्र में न्यून वायुदाब होता है, जिससे केन्द्रोन्मुखी प्रवाह, मध्य में तीव्रगति से ऊपर की ओर प्रवाह तथा शीर्ष भाग में वायु का निःस्राव होता है। इसका व्यास 500 से 800 किलोमीटर तथा ये 120 से 240 किलोमीटर प्रति घण्टा की गति से 10 से 15 किलोमीटर की ऊंचाई तक विस्तीर्ण 8° से 15° उत्तरी अक्षांशों के मध्य चलते हैं।

♣ तड़ित झंझा⇒ तड़ित झंझा मेघ गर्जन तथा बिजली की चमक से युक्त प्रचण्ड स्थानीय तूफान एवं वायुमण्डलीय विक्षोभ है, जिसका व्यास 4 किलोमीटर होता है। उष्ण कटिबन्धीय तथा शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में ग्रीष्म ऋतु में वायु राशियों के अभिसरण द्वारा इनकी उत्पत्ति होती है।

♣ तापमान⇒ वायुमण्डल की ऊष्मीय अवस्था बतलाने वाला तापमान होता है। तापमान किसी पदार्थ के अणुओं की औसत गतिज ऊर्जा का मापन करता है।

♣ ऊष्मा⇒ किसी पदार्थ के अणुओं की सम्पूर्ण गतिज ऊर्जा की द्योतक है।

♣ दैनिक तापचक्र⇒ सूर्योदय से आकाश में सूर्य की ऊंचाई बढ़ने से तापमान में तीव्रगति वृद्धि, दो से तीन बजे तक अधिकतम तापमान, तत्पश्चात् सूर्योदय तक ताप ह्रास होता है, जिसे दैनिक ताप चक्र कहा जाता है।

♣ दैनिक तापान्तर⇒ किसी स्थान विशेष दैनिक का तापान्तर उस स्थान के अधिकतम तापमान तथा न्यूनतम् तापमान के अन्तर को कहते हैं।

    औसत दैनिक तापांतर उस स्थान के औसत उच्चतम तापमान तथा औसत न्यूनतम तापमान के अन्तर को औसत दैनिक तापान्तर कहते हैं।

♣ तापमाप्रवणता⇒ तापमान की भिन्नता के कारण उच्च तथा निम्न वायु दाब स्थापित होते हैं, जिससे उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर ढाल बन जाता है, जिसे तापमान प्रवणता कहते हैं।

      तापमान में ऊपर की ह्रास दर को ऊर्ध्वाधर तापमान प्रवणता तथा क्षैतिजवत् तापमान के ह्रास को तापमान की क्षैतिज प्रवणता कहते हैं।

♣ तापमान-व्युत्क्रमणता⇒ वायुमण्डल में धरातल के निकट शीतल वायु तथा ऊपर उष्ण वायु की स्थिति जब सामान्य ताप ह्रास के विपरीत होती है, तब उसे तापमान की व्युक्रमणता कहते हैं।

♣ वार्षिक तापांतर⇒ एक वर्ष में किसी स्थान का सबसे गर्म महीने तथा सबसे ठंडे महीने के औसत तापमान का अन्तर किसी स्थान का वार्षिक तापान्तर कहलाता है।

♣ धूल कण⇒ वायुमण्डल में जल-वाष्प या गैसों के अतिरिक्त जितने भी ठोस पदार्थ कण के रूप में में विद्यमान रहते हैं, उनको धूल कण कहते हैं।

♣ पर्वतीय वर्षा⇒ वाष्प से युक्त प्रवाहित पवनों के मार्ग में पर्वतों के अवरोध से व्यवधान उत्पन्न होता है, जिससे ये पवनें उछाल दी जाती हैं, जिनका शीतलन रुद्धोष्म ताप ह्रास दर से होता है, जिससे संघनन की क्रिया तथा वर्षा होती है। इस प्रकार की वर्षा को पर्वतीय वर्षा कहते हैं।

♣ पछुवा पवन⇒ दोनों गोलर्द्धों में 35° से 60° अक्षांशों के बीच, कोरियालिस बल के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने वाली पवनों को पछुवा पवन कहते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में इसका वेग अत्यन्त तीव्र होता है जिस कारण इसे गरजने वाली चालीसा, प्रचण्ड पचासा आदि नामों से सम्बोधित करते हैं।

♣ प्रकीर्णन⇒ वायुमण्डल में वायु के अणु, जल वाष्प, धूल-कण आदि के सूक्ष्म कण तैरते रहते हैं, जिनसे सौर ऊर्जा की लघु तरंगों का चारो तरफ बिखराव होता है। यह प्रक्रिया प्रकीर्णन कहलाती है।

♣ पार्थिव विकिरण⇒ सौर विकिरण से ऊर्जा की जितनी मात्रा सम्पूर्ण पृथ्वी को वर्ष भर में प्राप्त होती है, पृथ्वी उसे पुनः विकिरण द्वारा वापस लौटा देती है, उसे पार्थिव विकिरण कहते हैं।

♣ फॉन⇒ जब वायु राशि या चक्रवात आल्प्स पर्वत के उत्तर से गुजरता है तो दक्षिण से आने वाली पवनों को इस पर्वत को पार करना पड़ता है, परन्तु ऊंचाई अधिक होने के कारण इसे पार नहीं कर पाती, बल्कि इससे टकरा जाती हैं, जिससे उछाल दी जाती हैं। उछाली गई वायु का आरोहण तथा रुद्धोष्म ताप ह्रास दर से शीतल होता है, जिससे संघनन तथा वृष्टि होती है। जब गर्म होती है तथा आल्प्स के विमुख ढाल पर उतरती हैं तो रुद्धोष्म दर से इनके ताप में वृद्धि होती है। ये हवाएं गर्म तथा झोकेदार होती हैं जिसे फॉन कहा जाता है। इस वायु का प्रवाह बसन्त ऋतु के प्रारम्भ में होता है, जिससे बर्फ पिघल जाती है।

♣मानसून⇒ मानसून मौसमी पवनें होती हैं जो शीत ऋतु में महाद्वीपों से महासागर की ओर तथा ग्रीष्म ऋतु में महासागरों से महाद्वीपों की ओर प्रवाहित होती हैं।

   ऋतु परिवर्तन से वायुदाब में परिवर्तन हो जाता है जिससे इनकी दिशा परिवर्तित हो जाती है, फलतः 6 महीने स्थल से जल तथा अगले 6 महीने जल से स्थल की ओर प्रवाहित होती हैं।

♣ मेघ⇒ वायुमण्डल में विभिन्न ऊंचाइयों पर जल-वाष्प के संघनन की प्रक्रिया के फलस्वरूप निर्मित हिमकणों या जलसीकरों की राशि को मेघ कहते हैं। जलवायविक दृष्टि से मेघों का अत्यन्त महत्त्व होता है।

♣ मौसम⇒ मौसम किसी स्थान की अल्पकालिक वायुमण्डलीय दशा (तापमान, वायु दाब, पवन, आर्द्रता एवं वृष्टि) है।

♣ मौसम के तत्व⇒ तापमान, आर्द्रता, वायुदाब, पवन, वृष्टि आदि मौसम के तत्व है।

♣ बेलांचली धारा (Littoral Current)⇒ बेलांचली धारा तट के समानान्तर प्रवाहित होती है तथा अपरदित पदार्थों के परिवहन में अत्यधिक महायता करती है, इसकी उत्पत्ति दो रूपों में होती है-

(i) जब पवन वेग से प्रभावित होकर जल, तट से टक्कर खाता है, तो वह मुड़कर तट के समानान्तर बेलांचली धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है।

(ii) पवन वेग के परिणामस्वरूप सागरीय तरंगें तट में तिरछे रूप में टकराती हैं, तो अधिकांश जल तट के समानान्तर बेलांचली धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है।

♣ तरंगिका (Rip Current)⇒ सागरीय लहर का जल जब सर्फ (Surf) के रूप में तट से टकराता है, तो उसका जल कई रूपों में बंट जाता है, कुछ जल बेलांचली धारा के रूप में प्रवाहित हो जाता है और कुछ जल अधः प्रवाह (undertow) के रूप में प्रवाहित होता है तथा कुछ जल तट से लौटकर जल की सतह पर तरंग के रूप में सागर की ओर लौट जाता है. इसी तरंग को तरंगिका कहते हैं।

♣ तटीय क्लिफ (Coastal Cliffs)⇒ सागरीय तरंगों के अपरदन द्वारा उत्पन्न क्लिफ सागर तटीय दृश्यावली का एक प्रमुख तथा विचित्र स्थल रूप है। क्लिफ का निर्माण तरंग द्वारा अपरदन के कारण तट-रेखा के सहारे होता है। अतः इसका निर्माण चट्टान के प्रकार, संरचना तथा स्वभाव और सागरीय अपरदन तथा भूपृष्ठीय अनाच्छादन के सापेक्षिक रूप पर आधारित होता है।

♣ तटीय कन्दरा⇒ सागर तटीय भाग की चट्टानों में जब सन्धियां पूर्णतया विकसित होती हैं, तो सागरीय तरंगें इन संधियों में प्रविष्ट होकर अपरदन करती है, जब इस तरह की कठोर शैलों में कोमल शैलें स्थित होती हैं, तो तरंगें उन्हें शीघ्र काटकर एक छोटी कन्दरा का निर्माण कर देती हैं। धीरे-धीरे अपरदन चलता रहता है और कन्दरा की गहराई तथा आकार दोनों में विस्तार होता रहता है। एक निश्चित समय में पूर्ण विकसित तटीय कन्दरा का निर्माण हो जाता है।

♣ अण्डाकार कटान तथा लघुनिवेशिका (Cove)⇒ जब तट के समानान्तर क्रमशः कठोर तथा कोमल चट्टानों की परतों का विस्तार होता है, तो तरंग का जल कठोर चट्टान की संधियों में प्रविष्ट होकर भीतर चला जाता है। इस कठोर शैल के नीचे कोमल शैल है। अतः प्रविष्ट जल कोमल शैल को भीतर ही भीतर अपरदित करके खोखला बनाता रहता है। इस प्रकार कोमल चट्टान वाले भागों में अण्डाकार कटान तथा उससे निर्मित आकृति को लघु निवेशिका या लघु खाड़ी कहा जाता है।

♣ तरंग-घर्षित वेदी (Wave-cut platform)⇒ जब सागरीय तरंगें क्लिफ से टकराकर उसके आधार पर दांत या खांच का निर्माण करती हैं। तब धीरे-धीरे खांच के विस्तृत होने पर क्लिफ का लटकता हुआ ऊपरी भाग टूटकर गिरने लगता है तथा क्लिफ निरन्तर पीछे हटता जाता है। इस क्रिया के परिणामस्वरूप क्लिफ के सामने के तटीय भाग पर जल के अन्दर एक मैदान का निर्माण हो जाता है जिसको तरंग-घर्षित मैदान या तरंग घर्षित प्लेटफार्म या बेदी कहते हैं।

♣ पुलिन कूट (Beach Ridges)⇒ जिन पुलिन तटों पर निरन्तर पदार्थों का निक्षेपण होता रहता है। वहां पर पुलिन कूटों की रचना हो जाती है, फ्लोरिडा तथा डंगनेश जैसी चौड़ी पुलिनों पर प्रायः कई कूटें देखी जाती हैं।

♣ पुलिन उभयाग्र⇒ जब पुलिन तट के सहारे लगभग समान दूरी पर बालू तथा अन्य अवसाद का त्रिकोण के रूप में निक्षेपण होता है, जिसे पुलिन उभयाग्र कहते हैं। इनकी रचना लहरों के द्वारा समुद्र की ओर प्रक्षिप्त स्थल के अपरदन तथा खाड़ियों में निक्षेपण के फलस्वरूप होती है।

♣ पुलिन (Beaches)⇒ समुद्री लहरों द्वारा तट के अपरदन से जो पदार्थ प्राप्त होता है, वह अधिकांशतः तट के समीप जमा हो जाता है, इस निक्षेप के कारण तट के समीप का क्षेत्र उथला हो जाता है। जलमग्न तट के इस उथले क्षेत्र को ही पुलिन कहते हैं।

♣ अपतटीय बलुई भित्तियाँ (Offshore Bar)⇒ जब लहरों द्वारा निर्मित बलुई भित्ति तट से दूर खुले समुद्र में बनती है, तो उसे अपतटीय बलुई भित्ति कहते हैं। सामान्यतः यह तट रेखा के समानान्तर होती है। इसका ऊपरी भाग जल की सतह से ऊपर उठा हुआ रहता है।

♣ भूजिह्वा (Spit)⇒ जब सागरीय मलवा (कंकड़, पत्थर आदि) का निक्षेप इस तरह होता है कि वह रोधिका के रूप में जल की ओर निकला रहता है, उसे भूजिह्वा (spit) कहते हैं।

♣ संयोजक रोधिका या अर्गला (Connecting Bar or Tombolo) ⇒ जब कभी लहरों द्वारा ऐसी संलग्न भित्तियों का निर्माण होता है, तो तटवर्ती छोटे-छोटे द्वीपों के परस्पर हों अथवा किसी द्वीप को मुख्य स्थल से जोड़ती हों, तो उन्हें संयोजक रोधिका कहा जाता है। इटली में ऐसी भित्तियों को संयोजक अर्गला (Tombolo) कहते हैं।

♣ अंकुश (Hook) ⇒ जब मोड़ने वाली तरंग या धारा अधिक प्रबल हो जाती है तो स्पिट का अग्र भाग तट की ओर मुड़ जाता है। धीरे-धीरे यह मोड़ बढ़ता जाता है तथा कुछ समय बाद यह अंकुश के आकार का हो जाता है। इंगलैण्ड में हम्बर नदी के मुहाने से कुछ दूर स्पर्न हेड के समीप अंकुश के सुन्दर रूप देखे जा सकते हैं।

♣ वात गर्त (Blow out) ⇒ उष्ण मरुस्थली भागों में धरातल के ऊपर बिछी हुई कोमल और असंगठित चट्टानों के टीलों और हल्के कणों को हवा अपने साथ उड़ा ले जाती है, जिससे चट्टानों में पहले छोटे-छोटे गर्तों का आविर्भाव होता है, धीरे-धीरे इन गर्तों के आकार और गहराई में वृद्धि होती जाती है। यद्यपि इन वात गर्तों की गहराई भौम-जल स्तर के नीचे नहीं होती, किन्तु मरुस्थलों में कई जगह ये वात गर्त समुद्र जल से भी नीचे तक पाए जाते हैं। इस प्रकार के वात गर्त सहारा, कालाहारी, मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी शुष्क भाग में अधिक पाए जाते हैं।

छत्रक या गारा (Mushrooms or Gara)⇒ मरुस्थलीय प्रदेशों में बालू से लदी हुई हवा चट्टानों के निचले भाग को तीव्रता से घिसती रहती है। हवा के इस अपघर्षण से ऊपर उठे हुए चट्टानी भागों में विशेष आकृतियाँ बन जाती हैं, चारों ओर से हवा के सतत प्रहार से चट्टानों का निचला भाग कटकर संकीर्ण हो जाता है और उसके ऊपर का भाग विशाल मेज की भांति सपाट तथा चौड़ा बना रहता है। कभी-कभी ऊपरी भाग वर्षा से गोलाकार तथा चिकना भी हो जाता है। जो कुकुरमुत्ता नामक पौधे के सदृश प्रतीत होती है। इन्हीं चट्टानों को छत्रक (Mushrooms Rocks) कहा जाता है।

♣ ज्यूगेन (Zeugen)⇒ जिन मरुस्थली प्रदेशों में कठोर चट्टानों के परत कोमल चट्टानों के ऊपर क्षैतिज (horizontal) रूप में बिछे हुए पाए जाते हैं। सर्वप्रथम अपक्षय के कारण ऊपर कठोर चट्टानों की संधि चौड़ी होती हैं, जब धीरे-धीरे संधि काफी चौड़ी हो जाती हैं, तो नीचे की कोमल चट्टानी परत निकल आती है, जिसे हवा शीघ्र ही काट देती है और चट्टानों के बीच-बीच में घाटियाँ-सी बन जाती हैं। इस प्रकार कठोर चट्टानी भाग कोमल चट्टानों के ऊपर टोपी की तरह अवस्थित रहता है। सहारा में इस प्रकार की चट्टानों की आकृतियों को ज्यूगेन (Zeugen) कहते हैं।

♣ यारडांग (Yardangs)⇒ जब कहीं कठोर और कोमल शैलों की पट्टियाँ प्रचलित हवा की दिशा के अनुरूप फैली हुई पाई जाती हैं, तो वहां ‘कटक और खांचे’ के समरूप भू-दृश्य उत्पन्न हो जाता है। हवा के अपघर्षण से कटकों के पवनाभिमुख अग्र सुघड़ एवं गोलाकार तथा उनके शिखर सुई के समान नुकीले बन जाते हैं। इन्हें यारडांग कहते हैं।

♣ अनुप्रस्थ परिच्छेद (Cross Section)⇒ किसी सरल रेखा पर उर्ध्वाधर कटी हुई भूमि का पार्श्वचित्र। इसे परिच्छेद अथवा परिच्छेदिका भी कहते हैं।

♣ अपवाह (Drainage) ⇒ नदियों अथवा सरिताओं का वह तंत्र जो किसी प्रदेश के सम्पूर्ण वर्षा-जल को बहाकर ले जाता है।

♣ अवस्थिति खण्ड (Location Quotient)⇒ किसी क्षेत्र विशेष के कुछ अभिलक्षकों के प्रतिशत और उन्हीं के पूरे प्रदेश के प्रतिशत के बीच अनुपात को अवस्थिति खण्ड कहते हैं।

♣ अक्षांशीय पैमाना (Parallel Scale) ⇒ किसी अक्षांश रेखा पर की वह दूरी जो दो देशान्तर रेखाओं के बीच नापी जाए। अक्षांशीय पैमाना मानक अक्षांश रेखा पर सर्वदा शुद्ध रहता है।

आपेक्षित परिक्षेपण (Relative Dispersion) ⇒ किसी बारम्बारता बंटन के परिक्षेपण का माप और उसकी केन्द्रीय प्रवृत्ति की माप के बीच के अनुपात को आपेक्षिक परिक्षेपण कहते हैं।

♣ आयतचित्र (Histogram)⇒ बारम्बारता बंटन, जैसे वर्षा की ऋतु के अनुसार बारम्बारता का ग्राफीय प्रदर्शन।

♣ उच्चावच (Relief) ⇒ पृथ्वी के धरातलीय लक्षण जैसे, पर्वत, पठार, मैदान, घाटी तथा जलाशय के लिए दिया गया सामूहिक नाम। भू-सतह की ऊंचाइयों एवं गर्तों को उच्चावच-लक्षण कहते हैं।

♣ उच्चावच मानचित्र (Relief Map)⇒ समोच्च रेखा, आकृति रेखा, स्तर-रंजन, हैश्यूर, पहाड़ी-छायाकरण जैसी विधियों में से किसी एक अथवा इन विधियों के मिश्रण द्वारा एक समतल धरातल पर किसी क्षेत्र के उच्चावच को निरूपित करने वाला मानचित्र।

♣ एकदिश नौपथ (Rhumb Line)⇒ किसी प्रक्षेप पर सभी देशान्तर रेखाओं को एक ही कोण पर काटने वाली नियत दिगंशीय रेखा।

♣ केन्द्रीय देशान्तर रेखा (Central Meridian)⇒ किसी भी मान की देशान्तर रेखा जब प्रक्षेप के केन्द्र या मध्य भाग में स्थित होती है तो इसे केन्द्रीय देशान्तर रेखा या मध्य देशान्तर रेखा कहते हैं। इसका प्रधान मध्याह्न रेखा से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

♣ केन्द्रीय प्रवृत्ति (Central Tendency)⇒ सांख्यिकीय आंकड़ों की प्रवृत्ति जो किसी मान के आस-पास गुच्छित होती है।

♣ ग्रिड (Grid)⇒ पृथ्वी पर अक्षांश और देशान्तर रेखाओं का जाल पृथ्वी का ‘ग्रिड’ कहलाता है।

♣ चक्रारेख (Wheel Diagram)⇒ वृत्तीय आरेख जिसमें आंकड़े को प्रतिशत के रूप में प्रदर्शित करने के लिए वृत्त की त्रिज्या खण्डों में विभाजित करते हैं।

♣ चतुर्षक (Quartile) ⇒ चतुर्थक चर संस्थाओं के वे मान हैं जो श्रृंखला के पदों को चार बराबर भागों में बांटते हैं।

♣ चुम्बकीय उत्तर (Magnetic North) ⇒ चुम्बकीय कम्पास की सुई द्वारा निर्देशित दिशा। चुम्बकीय उत्तरी ध्रुव यथार्थ उत्तर ध्रुब से भिन्न है और यह समय के साथ धीरे-धीरे खिसकता रहता है।

♣ चर (Variable)⇒ कोई भी अभिलक्षण जो बदलता रहता है। संख्यात्मक चर वह अभिलक्षण है जिसके अलग-अलग मान होते हैं और उनका अन्तर संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है। 

♣ जलवायु मानचित्र (Climatic Maps)⇒ संसार अथवा उसके किसी भाग पर किसी विशेष अवधि से विद्यमान तापमान, वायुदाब, वायु, वृष्टि एवं आकाश की सामान्य दशाओं को प्रकट करने वाला मानचित्र।

♣ जल विभाजक (Water Shed)⇒ परस्पर विरोधी दिशाओं में प्रवाहित जल का विभाजन करने वाला पतला एवं ऊंचा स्थलीय भाग।

♣ दण्ड आलेख (Bar Graph)⇒ स्तम्भों या दण्डों की एक श्रृंखला जिसमें दण्डों की लम्बाई उनके द्वारा प्रदर्शित मात्रा के अनुपात में होती है। ये स्तम्भ या दण्ड चुने हुए पैमाने के अनुसार खींचे जाते हैं। ये क्षैतिज या ऊर्ध्वाधर रूप से खींचे जा सकते हैं।

♣ देशान्तरीय पैमाना (Meridian Scale)⇒ किसी देशान्तर रेखा पर नापी गई दो अक्षांश रेखाओं के बीच की दूरी।

♣ पवनारेख (Wind Rose)⇒ किसी स्थान पर किसी अवधि में विभिन्न दिशाओं में बहने वाली वायु की आवृत्ति को प्रकट करने वाला आरेख।

♣ पेन्टोग्राफ (Panto Graph)⇒ मानचित्रों को शुद्धतापूर्ण बड़ा करने या छोटा करने के लिए प्रयोग में आने वाला यंत्र।

♣ प्रकीर्ण आरेख (Scatter Diagram) ⇒ एक प्रकार का आरेख जिसमें ग्राफ कागज पर दो अभिलक्षकों का विचलन दिखाया जाता है।

♣ प्रवाह मानचित्र (Flow Map) ⇒ मानचित्र जिसमें ‘प्रवाह’ अर्थात लोगों या वस्तुओं का गमनागमन रिबनों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इन रिबनों की मोटाई उनके द्वारा प्रदर्शित विभिन्न मार्गों पर आने जाने वाली वस्तुओं की मात्रा या लोगों की संख्या के अनुपात में होती है।

♣ बहुलक (Mode) ⇒ किसी श्रेणी में बहुलक चरांक का वह मान होता है, जो सबसे अधिक बार आता है। दूसरे शब्दों में बहुलक पद का वह मान है जिसकी बारम्बारता सबसे अधिक होती है।

♣ बरम्बारता बंटन सारणी (Frequency Distribution Table) ⇒ विभिन्न परिसरों में पड़ने वाले चर के विविध मानों के इन परिसरों को वर्ग कहते हैं और प्रत्येक वर्ग में पड़ने वाले विभिन्न मानों को बारम्बारता कहते हैं।

♣ बृहत् वृत्त (Great Circle)⇒ पृथ्वी की सतह पर वह काल्पनिक वृत्त जिसका तल पृथ्वी को समद्विभाग करता हुआ उसके केन्द्र से होकर गुजरे। पृथ्वी की सतह पर किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की लघुत्तम दूरी एक वृहत् वृत्त के चाप पर होगी।

♣ भू-कर मानचित्र (Cadastral Map)⇒ प्रत्येक खेत एवं भूमि के टुकड़े का विस्तार तथा माप के यथार्थ प्रदर्शनार्थ बहुत बड़े पैमाने पर खींचे गए मानचित्र भू-सम्पत्ति एवं उस पर लगाए जाने वाले कर निर्धारण के लिए इन मानचित्रों की आवश्यकता पड़ी थी। अतः इनका नाम भी भू-कर मानचित्र पड़ गया।

♣ भूमि उपयोग (Land Use)⇒ भूमि की सतह का मानव द्वारा उपयोग। विरल जनसंख्या वाले क्षेत्रों में प्राकृतिक एवं अर्ध- प्राकृतिक वनस्पति से आच्छादित भूमि भी इसके अन्तर्गत आ जाती है।

♣ माध्य विचलन (Mean Deviation)⇒ किसी केन्द्रीय मान से विचलनों के औसत द्वारा परिक्षेपण की माप। ऐसे विचलनों को निरपेक्ष रूप में लिया जाता है अर्थात् उनके धनात्मक अथवा ऋणात्मक चिह्नों पर ध्यान नहीं दिया जाता। केन्द्रीय मान सामान्यतः माध्यिका का माध्य होता है।

♣ माध्यिका (Median)⇒ जब किसी श्रेणी के पदों के विस्तार को आरोही अथवा अवरोही क्रम में रखा जाता है तो मध्य पद का मान माध्यिका कहलाती है। इससे स्पष्ट हुआ कि माध्यिका पूर्ण श्रेणी को दो बराबर भागों में बांटती है और इससे आधे पदों के मान ऊपर और आधे के नीचे होते हैं।

♣ मानक अक्षांश रेखा (Standard Parallel)⇒ किसी भी प्रक्षेप की वह अक्षांश रेखा जिस पर पैमाना शुद्ध हो।

♣ मानक विचलन (Standard Deviation)⇒ विक्षेपण के सर्वनिरपेक्ष मापकों में यह सबसे सामान्य मापक है। यह श्रेणी के समस्त पदों के माध्य से निकाले गए विचलनों के वर्गों के माध्य का धनात्मक वर्गमूल होता है।

♣ मानचित्र (Map)⇒ पृथ्वी के धरातल के छोटे या बड़े किसी क्षेत्र का एक चौरस सतह पर पैमाने के अनुसार रूढ़ निरूपण जैसा कि ठीक ऊपर से देखने पर प्रतीत होता है।

♣ मानचित्र कला (Cartography)⇒ सभी प्रकार के मानचित्र बनाने की कला। इसके अन्तर्गत मौलिक सर्वेक्षण से लेकर मानचित्र के अन्तिम मुद्रण तक की सभी क्रियाएं आती है।
♣ मानचित्र प्रक्षेप (Map Projection)⇒ अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के जाल को पृथ्वी की गोलाकार सतह से एक समतल पर स्थानान्तरित करने की विधि।

♣ मानचित्रावली (Atlas)⇒ एक पुस्तक के रूप में बंधा हुआ मानचित्रों का संग्रह। प्रायः ये मानचित्र छोटे पैमाने पर बनाए जाते हैं।

    एटलस शब्द सर्वप्रथम सन् 1595 ई. में मर्केटर के मानचित्रों के संग्रह के आवरण-पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था। इस शब्द की उत्पत्ति और भी प्राचीनतम है, क्योंकि पौराणिक विश्वासों के अनुसार यह आकाश को सहारा देने वाले एटलस पर्वत से सम्बन्धित है।

♣ मानारेख (Cartogram)⇒ किसी क्षेत्र की मूल आकृति को किसी विशेष उद्देश्य से विकृत कर सांख्यिकीय आंकड़ों का आरेखी विधि से मानचित्र पर प्रदर्शन।

    यह प्रायः किसी एक की कल्पना को आरेखी ढंग से प्रतिष्ठित करने वाला अति सारगर्भित एवं सरल मानचित्र होता है। यह आधुनिक भूगोल के प्रमुख तथा लोकप्रिय साधनों में से एक है।

♣ मापनी (Scale)⇒ मानचित्र पर किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की दूरी और भूमि पर के उन्हीं बिन्दुओं के बीच की वास्तविक दूरी का अनुपात।

♣ मिश्र माप (Composite Measurement)⇒ कई अंतर्सहसम्बन्धित चरांकों के व्यापक प्रभाव का मापन।

♣ रेखीय मापनी (Linear Scale)⇒ रेखा द्वारा मापनी प्रदर्शन करने की एक विधि जिसमें रेखा को सुविधानुसार प्रधान तथा द्वितीयक भागों में बांटा जाता है और जिससे मानचित्र पर दूरियां सीधे नापी और पढ़ी जा सकती हैं।

♣ रैखिक आलेख (Line Graph)⇒ X अक्ष और Y अक्ष पर दो निर्देशांकों की सहायता से निर्धारित बिन्दु-श्रृंखला को मिलाने वाली निष्कोण रेखा। इसमें एक चर में परिवर्तन दूसरे चर के निर्देशांक से दिखाया जाता है। इसका उपयोग प्रायः वर्षा, तापमान, जनसंख्या में वृद्धि, उत्पादन, इत्यादि से सम्बन्धित आंकड़ों को प्रकट करने में किया जाता है।

♣ लॉरेंज वक्र (Lorntz Curve) ⇒ अभिलक्षकों के संकेन्द्रण को दिखाने वाली एक ग्राफीय विधि।

♣ वर्ग-अन्तराल (Class-interval)⇒ किसी बारम्बारता बंटन के उपरि-वर्ग और निम्न वर्ग की सीमाओं के बीच का अन्तर वर्ग-अन्तराल कहलाता है।

♣ वर्णमापी मानचित्र (Choropleth Map) ⇒ मानचित्र जिनमें क्षेत्रीय आधार पर मात्राओं को प्रदर्शित किया जाता है। ये मात्राएं किसी विशिष्ट प्रशासनिक इकाइयों के भीतर प्रति इकाई क्षेत्र के औसत मान होते हैं। जैसे जनसंख्या का घनत्व, कुल जनसंख्या में नागरिक जनसंख्या का प्रतिशत आदि।

♣ वास्तविक उत्तर (True North) ⇒ पृथ्वी के उत्तर ध्रुव द्वारा संकेतित दिशा। इसे भौगोलिक उत्तर भी कहते हैं।

♣ विकर्ण मापनी (Diagonal Scale) ⇒ रेखीय-मापनी (ग्राफिक स्केल) का विस्तार, जिसमें एक सेण्टीमीटर या इंच का अल्पांश भी नापा जा सकता है। यह रेखीय मापनी के गौण भाग से भी छोटा भाग मापने में सहायक होती है।

♣ वितरण मानचित्र (Distribution Map) ⇒ बिन्दु तथा छायाकरण जैसी विधियों द्वारा विभिन्न भौगोलिक तत्वों एवं उनकी आवृत्ति, प्रबलता तथा घनत्व की अवस्थिति को प्रदर्शित करने वाला मानचित्र। उदाहरणार्थ इन मानचित्रों द्वारा किसी क्षेत्र की उपज, पशुधन, जनसंख्या, औद्योगिक उत्पादन, आदि के वितरण को प्रदर्शित किया जाता है।

♣ विक्षेपण या फैलाव (Dispersion)⇒ किसी चरांक के विभिन्न मानों में आन्तरिक विभिन्नताओं की गहनता।

♣ संचयी बारम्बारता (Cumulative Frequency)⇒ किसी निश्चित मान से अधिक अथवा कम मानों वाले कई प्रेक्षण।

♣ समकोण दर्शक यंत्र (Optical Square)⇒ जरीब सर्वेक्षण में जरीब से निकटवर्ती वस्तुओं के अन्तर्लंब नापने के काम में आने वाला यंत्र।

♣ सममान रेखा मानचित्र (Isopleth Maps)⇒ मानचित्र जिनमें एक से मानों या एकसमान संख्याओं वाले बिन्दुओं को मिलाने वाली काल्पनिक रेखाएं अर्थात् सममान रेखाएं बनी होती हैं, उदाहरणार्थ समताप रेखा मानचित्र।

♣ समोच्च रेखा (Contours)⇒ समुद्रतल से समान ऊंचाई पर स्थित बिन्दुओं को मिलाने वाली काल्पनिक रेखा। इसे समतल रेखा भी कहते हैं।

♣ समोच्च रेखा का अन्तर्वेशन (Interpolation of Contours)⇒ मानचित्र पर दी गई स्थान की ऊंचाइयों की सहायता से समोच्च रेखाएं खींचना।

♣ समोच्चरेखीय अन्तराल (Contour interval)⇒ दो उत्तरोत्तर समोच्च रेखाओं के बीच का अन्तर। इसे ऊर्ध्वाधर अन्तराल भी कहते हैं। यह प्रायः अंग्रेजी के अक्षरों द्वारा लिखा जाता है। किसी भी मानचित्र पर प्रायः इसका मान स्थिर होता है।

♣ सर्वेक्षण (Surveying)⇒ पृथ्वी की सतह पर विन्दुओं की सापेक्ष स्थिति निर्धारण के लिए प्रेक्षण तथा रैखिक एवं कोणात्मक मापन कला। भूपृष्ठ के किसी भाग की सीमा, विस्तार, स्थिति तथा उच्चावच के निर्धारण में यह लाभदायक होता है।

♣ सहसम्बन्ध गुणांक (Correlation Co-efficient)⇒ दो चरांकों के बीच सम्बन्धों की दिशा और गहनता की माप।

♣ सुदूर संवेदन (Remote Sensing)⇒ वस्तुओं को स्पर्श किए बिना दूर से ही उसके बारे में सूचनाएं प्राप्त करने के विज्ञान को सुदूर संवेदन कहते हैं। इसमें भूमि अथवा उसके ऊपर वस्तुओं से परावर्तित, प्रकीर्णित या उत्सर्जित विद्युत चुम्बकीय विकिरण का संवेदन विद्युत प्रकाशित यंत्रों तथा कैमरों द्वारा किया जाता है।

♣ स्तर रंजन (Layer Colouring)⇒ मानचित्र पर रंगों की सहायता से उच्चावच दिखाने की एक विधि जो विशेषतया एटलस के मानचित्रों तथा दीवारी मानचित्रों से अपनाई जाती है। रंग-व्यवस्था सर्वत्र समान रूप से मान्य होती है, उदाहरणार्थ, समुद्र के लिए नीले रंग की छटाएं, निम्न स्थलों के लिए हरा रंग, उच्च भूमि के लिए भूरा रंग तथा अत्यधिक ऊंची भूमि के लिए गुलाबी रंग।

♣ स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographic Map)⇒ भूसतह के प्राकृतिक एवं मानवकृत ब्यौरों को प्रदर्शित करने वाला बड़े पैमाने पर खींचा गया एक छोटे क्षेत्र का मानचित्र। इस मानचित्र पर उच्चावच समोच्च रेखाओं द्वारा प्रकट किया जाता है।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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