19. भारतीय जल विभाजक रेखा
19. भारतीय जल विभाजक रेखा
भारतीय जल विभाजक रेखा
जल विभाजक दो भौगोलिक प्रदेश के बीच वह उत्थित स्थलाकृति है, जो दो अपवाह प्रदेशों को अलग-अलग विभाजित करती है। अर्थात् यह दो विपरित ढाल वाले प्रदेश के मध्य उच्च भूमि है।
भारत में प्रमुख चार जल विभाजक रेखाएँ है। उसके आधार पर भारत को चार अपवाह प्रदेशों में विभाजित किया गया है। भारतीय जल विभाजक रेखा को मानचित्र में देखा जा सकता है-
(i) उत्तर भारतीय जल विभाजक रेखा
(ii) अरावली जल विभाजक रेखा
(iii) विन्ध्यन सतपुड़ा जल विभाजक रेखा
(iv) पश्चिमी पर्वतीय घाट जल विभाजक रेखा।
(i) उत्तर भारतीय जल विभाजक रेखा-
उत्तर भारत में उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र जल विभाजक रेखा का कार्य करती है। इसका विस्तार काराकोरम हिमालय से मणिपुर मिजो पहाड़ी तक है। काराकोरम हिमालय व पूर्वांचल हिमालय के श्रृंखलाओं में अवस्थित हिमयुक्त शिखर जल विभाजक रेखा का कार्य करती है। जिसकी औसत ऊँचाई काराकोरम से नामचा बरबा तक 6000 मी० है।
ब्रह्मपुत्र गार्ज के पास पर्वतीय श्रृंखला दक्षिण कि ओर मुड जाती है जिसकी औसत ऊँचाई 2600 मी० से 3000 मी० तक हैं। इसमें पटकोई बुम, नागा हिल, मणिपुर एवं मिजो पहाड़ियाँ शामिल हैं। मूलत: पूर्वांचल हिमालय, म्यानमार और पूर्वोत्तर भारत के बीच जल विभाजक रेखा का कार्य करती हैं। जबकि हिमालय पर्वत चीन एवं भारत के बीच जल विभाजक रेखा का कार्य करता है।
(ii) अरावली जल विभाजक रेखा-
इस जल विभाजक रेखा का विस्तार गुजरात के “इन आफ कच्छ” से लेकर अम्बाला सिटी तक हुआ है। इसकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व कि ओर हैं। जिसकी औसत लम्बाई 600 मी० से 1000 मी० तक है। यह सिंधु नदी तंत्र एवं गंगा यमुना नदी तंत्र के बीच जल विभाजक का कार्य करती है। यह एक प्राचीनतम श्रृंखला है। जो कि एक अवशिष्ट पहाड़ी का रूप धारण कर लिया है। इसका भौगोलिक विस्तार गुजरात, राजस्थान, हरियाणा व दिल्ली जैसे राज्यों तक हुआ है।
(iii) विन्ध्यन सतपुड़ा जल विभाजक रेखा-
इसका विस्तार मध्य भारत में हुआ है। इसकी कुल लम्बाई 1600 किमी० है। इस जल विभाजक रेखा का निर्माण विन्ध्यन, सतपुड़ा, महादेव, मैकाल आदि पर्वत श्रृंखलाओं के मिलने से हुआ है। यह जल विभाजक रेखा प्रायद्वीपीय भारत और उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र में बहने वाली नदी अपवाह तंत्र के बीच में जल विभाजक रेखा का कार्य करती हैं। इसी जल विभाजक रेखा का कुछ भाग टूटकर बिहार व बंगाल की सीमा पर राजमहल छोटी जल विभाजक रेखा का निर्माण हुआ है, जिसका विस्तार उत्तर से दक्षिण कि ओर हैं।
इसी जल विभाजक रेखा का कुछ भाग टूटकर गारो, खासी, जयन्तिया जल विभाजक रेखा का भी निर्माण हुआ है। यह जब विभाजक रेखा के दक्षिण से निकलने वाली नदियां बांग्लादेश में नई अपवाह तंत्र को जन्म देती हैं, जबकि उत्तर की ओर बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र का निर्माण करती हैं।
(iv) पश्चिमी पर्वतीय घाट जल विभाजक रेखा-
इसकी औसत लम्बाई 1600 किमी० है, इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण दिशा में है। इसकी औसत ऊँचाई 910 मी० हैं। पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट परस्पर नीलगिरी के पास मिलकर एक गाठ का निर्माण करते हैं। और एक सम्मिलित श्रृंखला के रूप में मिलकर क्रमश: अनामलाई, कोर्डेमम, पालनी नागर कोयल, श्रृंखला के रूप मे उत्तर से दक्षिण दिशा ने प्रक्षेपित हो गई हैं।
चुकिं यह जल विभाजक रेखा पश्चिमी समुद्र स्तर से काफी नजदीक है, साथ ही इसका पश्चिमी किनारा एक भ्रन्शोथ पर्वत के समान हैं। इसलिए अरब सागर में गिरने वाली नदियों की लम्बाई कम हो जाती है। जबकि बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ लम्बी दूरी को तय करने के बाद सागर में गिरती है।
महत्व:
चूंकि जल विभाजक रेखाएं दो भौगोलिक अपवाह प्रदेशों के बीच की उत्थित भूमि है, जिसके कारण नदी मार्ग मे ढाल तीव्र हो जाता है, जिसके कारण वर्षा का जल तेजी से बहते हुए समुद्र में चला जाता है। लेकिन जल विभाजक रेखा को प्राकृतिक सीमा मानते हुए “जल संभर प्रबंधन (WSM)” के माध्यम से जल संसाधन का उपयोग, संरक्षण एवं उचित संवर्धन किया जा सकता है। इससे कृषि, पशुपालन, मत्स्यन, सामाजिक वानिकी सिंचाई, विद्युत उत्पादन एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देकर पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ कई आर्थिक समस्याओं से निपटा जा सकता है।