3. काण्ट की वायव्य राशि परिकल्पना (Kant’s Gaseous Hyphothesis)
3. काण्ट की वायव्य राशि परिकल्पना
(Kant’s Gaseous Hyphothesis)
काण्ट की वायव्य राशि परिकल्पना
पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जर्मन दार्शनिक काण्ट ने सन् 1755 ई० में अपनी ”वायव्य राशि परिकल्पना” का प्रतिपादन किया जो कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर आधारित थी। प्रारम्भ में इस मत की सराहना हुई, परन्तु बाद में इसे तर्कहीन प्रमाणित कर दिया गया, क्योंकि यह मत गणित के गलत नियमों पर कल्पित किया गया था।
प्रस्तुत परिकल्पना काण्ट द्वारा कल्पित अनेक तथ्यों पर आधारित है। सर्वप्रथम काण्ट ने यह मान लिया कि प्राचीन काल में (अतीत काल में) ब्रह्माण्ड में दैवनिर्मित आद्य पदार्थ (Premordial matter) बिखरे हुए थे। प्रारम्भ में ये पदार्थ अत्यन्त कठोर, शीतल तथा गतिहीन थे।
पुनः काण्ट ने यह मान लिया कि आपसी आकर्षण के कारण ये कण (आद्य पदार्थ) एक-दूसरे से टकराने लगे। इस आपसी टकराव के कारण ताप तथा भ्रमण गति का आविर्भाव हुआ। ताप में निरन्तर वृद्धि होती गयीं, जिस कारण आद्य पदार्थ एक वायव्य राशि में परिवर्तित होने लगे। ताप तथा भ्रमण गति (Rotation) के परिणामस्वरूप प्रारम्भिक शीतल तथा गतिहीन वायव्य पदार्थ एक तप्त तथा गतिशील निहारिका (Nebula) में परिवर्तित हो गया। निहारिका ताप के आविर्भाव के साथ ही घूमने लगी, उसके आकार में वृद्धि होने लगी, जिस कारण ताप में वृद्धि से निहारिका की परिभ्रमण गति में भी वृद्धि होने लगी।
इस प्रकार निहारिका इतनी तीव्र गति से घूमने लगी कि केन्द्रापसारित बल (केन्द्र से बाहर की ओर जाने वाला बल-Centrifugal force) के प्रभाव से निहारिका के मध्य भाग में उभार आने लगा तथा इस क्रिया की तीव्रता के कारण (अर्थात् केन्द्रापसारितबल की तीव्रता के कारण) पदार्थ का एक छल्ला निहारिका से बाहर निकल गया।
इसी क्रिया की पुनरावृत्ति (Repetition) के कारण पदार्थ के नौ (9) गोल छल्ले निहारिका से अलग हो गये। धीरे-धीरे एक छल्ला के सभी पदार्थ एक स्थान पर एकत्रित होकर एक गाँठ के रूप में शीतल होकर जमकर ठोस हो गये। इस तरह नौ छल्लों से (गाँठ के रूप में) नौ ठोस पदार्थों का निर्माण हुआ, जो कि आगे चलकर नौ ग्रह के रूप में बदल गये।
इस प्रकार काण्ट के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति, केन्द्रापसारित बल द्वारा निहारिका से अलग हुये छल्ले के पदार्थों के एक स्थान पर गाँठ के रूप में जमकर ठोस होने से हुई। मौलिक निहारिका का जो भाग अवशिष्ट रह गया, वह सूर्य के रूप में परिवर्तित हो गया।
उपर्युक्त प्रक्रिया की पुनरावृत्ति के कारण ग्रहों से उनके उपग्रहों का निर्माण हुआ अर्थात् नव-निर्मित गतिशील ग्रहों से केन्द्रापसारित बल के प्रभाव से पदार्थों के वलयाकार छल्ले अलग हो गये, जिनमें से प्रत्येक छल्ला के सभी पदार्थ एक स्थान पर घनीभूत होकर उपग्रह (Satellite) बन गये। इस तरह सम्पूर्ण सौर्य-मंडल का आविर्भाव हुआ।
आलोचना (Criticism):-
यद्यपि काण्ट महोदय ने पृथ्वी की उत्पत्ति की समस्या के समाधान के लिए विज्ञान के तथ्यों का सहारा लिया था तथापि इनका मत वर्तमान समय में आधारहीन प्रमाणित कर दिया गया है, क्योंकि इस पकिल्पना के निम्नलिखित कई तथ्य गणित के नियमों के विपरीत हैं:-
(1) सर्वप्रथम यह आरोप लगाया जाता है कि कणों के आपसी टकराव से भ्रमण गति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस प्रकार निहारिका की निरन्तर गति-वृद्धि त्रुटिपूर्ण है।
(2) काण्ट की यह परिकल्पना कि आद्य पदार्थ में गति कणों के आपसी टकराव से हुई, जो कि ”कोणीय आवेग की स्थिरता के सिद्धान्त” (Laws of conservation of angular momentum) के विपरीत है, क्योंकि आपसी टकराव से गति नहीं उत्पन्न हो सकती है।
(3) काण्ट की यह धारणा कि निहारिका के आकार में वृद्धि के साथ गति भी बढ़ती गयी जो कि इस सिद्धान्त के विपरीत है, क्योंकि ‘कोणीय आवेग की स्थिरता के सिद्धान्त’ के अनुसार यदि किसी पिंड का आकार बढ़ता है तो गति घटती है और यदि आकार बढ़ता है तब गति घटती है।
निष्कर्ष:
निष्कर्षत: कहा जा सकता है की वह मूल आधार ही, जिस पर काण्ट की परिकल्पना आधारित है, गलत प्रमाणित किया जाता है। काण्ट की परिकल्पना का महत्व इस बात में है कि उन्होंने इस क्षेत्र में प्रयास करके आगे आने वाले विद्वानों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। यह परिकल्पना आगे चलकर लाप्लास की निहारिका परिकल्पना की आधारशिला बनी।