25. Social change and its patterns (सामाजिक परिवर्तन तथा इसके प्रतिरूप)
Social change and its patterns
(सामाजिक परिवर्तन तथा इसके प्रतिरूप)
Q. सामाजिक परिवर्तन से क्या तात्पर्य है? सामाजिक परिवर्तन के प्रतिरूप लिखिए।
Ans- परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। जीवन और समाज गतिशील है, परिवर्तनशील है। प्रत्येक समाज में परिवर्तन होता है। सामाजिक परिवर्तन वह परिवर्तन है जिसका सम्बन्ध समाज एवं सामाजिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन से है। परिवर्तन समाज एवं जीवन का आधार है। सामाजिक परिवर्तन समाज से सम्बन्धित है। समाज, सामाजिक संगठन सामाजिक सम्बन्ध और सामाजिक ढांचे का सम्मिलित रूप है। समाज के इन भागों में जब परिवर्तन होता है तो इसे सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है।
किंग्सले डेविस के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन से हम केवल उन्हीं परिवर्तनों को समझते हैं जो सामाजिक संगठन अर्थात् समाज के ढांचे और प्रकार्यों में घटित होते हैं।”
गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन जीवन की मानी हुई रीतियों में परिवर्तन को कहते हैं। चाहे ये परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन से हों या सांस्कृतिक साधनों, जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन से या प्रसार से या समूह के अन्दर ही आविष्कारों के फलस्वरूप हुए हों।”
समाज की भौगोलिक दशाओं में परिवर्तन होने से जीवन की स्वीकृत प्रणालियों एवं मान्य रीतियों में परिवर्तन होने लगता है।
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-
(1) सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है। प्रत्येक समाज में प्रत्येक काल में परिवर्तन होता रहता है। सामाजिक जनसंख्या में परिवर्तन होता है, उसकी कार्य पद्धतियां बदलती हैं।
यदि परिवर्तन न होता तो आज भी समाज उसी आखेट की अवस्था में होता। मानव की आवश्यकताओं, विचार एवं उसकी मनोवृत्तियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
(2) सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य तो है, किन्तु उसकी गति समान नहीं है। एक समाज में परिवर्तन दूसरे समाज से भिन्न होता है अर्थात् एक समाज में परिवर्तन की गति तीव्र हो सकती है जबकि दूसरे में बन्द।
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आए आर्थिक परिवर्तन के साथ उसी गति से सामाजिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आया है।
(3) सामाजिक परिवर्तन प्रत्येक देश, काल और परिस्थितियों में होता रहा है और होता भी रहेगा। समाज चाहे शिक्षित हो अथवा अशिक्षित, आदिम हो या आधुनिक, सभ्य हो या असभ्य परिवर्तन तो सभी में होता रहता है।
(4) सामाजिक परिवर्तन समाज में होने वाले अन्तर से सम्बन्धित होता है। समाज में अन्तर होने से सामाजिक परिवर्तन होता है। जो अन्तर कल था, वह आज नहीं है। सामाजिक संगठन, परिवार, विवाह-प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज और रहन-सहन, आदि में होने वाले अन्तर ही सामाजिक अन्तर हैं।
(5) सामाजिक परिवर्तन वैयक्तिक नहीं होता अर्थात् किसी एक व्यक्ति के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन तो समुदाय के जीवन में आने वाले अन्तरों या विचलनों को कहा जाता है।
(6) सामाजिक परिवर्तन निश्चित नहीं होता है। इसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता है। समाज में परिवर्तन अनेक ऐसे कारकों द्वारा होता है जो अचानक होते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित नहीं होता कि इसके परिणाम क्या होंगे ?
(7) परिवर्तन भौतिक एवं अभौतिक दोनों वस्तुओं में होता है। भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों को नापा जा सकता है जबकि अभौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों को नापा नहीं जा सकता है।
व्यक्ति के आचार-विचार, रीति-रिवाज तथा मनोवृत्तियों में होने वाले परिवर्तनों को नापा नहीं जा सकता है।
(8) समाज सामाजिक सम्बन्धों की एक सुसम्बद्ध व्यवस्था है। जब समाज के किसी एक भाग में परिवर्तन उत्पन्न होता है तो वह सम्बन्धित दूसरे भागों को भी प्रभावित करता है। इससे सामाजिक परिवर्तन एक श्रृंखलाबद्ध क्रम में होता है।
(9) सामाजिक परिवर्तन से समाज संगठित होता है और कभी-कभी विघटित भी होता है। परिवर्तन की प्रकृति के अनुसार समाज उन्नति एवं अवनति दोनों करता है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रतिरूप
सामाजिक परिवर्तन इतनी तीव्रता से हो रहे हैं कि उनका प्रतिरूप जानना कठिन हो रहा है। मैकाइवर एवं पेज ने परिवर्तन के तीन प्रतिरूप बताए हैं:-
(1) औद्योगिक प्रतिरूप:-
इस प्रतिरूप में परिवर्तन की दिशा निरन्तर ऊपर ही रहती है। समाज में होने वाले आविष्कार निरन्तर प्रगतिशील होंगे। मानव ने बैलगाड़ी से लेकर वायुयान तक बना लिए हैं जो उसकी प्रगति के सूचक हैं।
(2) उत्थान एवं पतन प्रतिरूप:-
समाज में परिवर्तन की गति एक निश्चित सीमा तक बढ़कर विपरीत दिशा की ओर मुड़ जाती है। यह उत्थान एवं पतन प्रत्येक क्षेत्र में देखा जा सकता है। आर्थिक क्रियाओं से भी जिस गति से उन्नति होती है, उसी गति से अवनति भी हो जाती है।
(3) चक्रीय परिवर्तन प्रतिरूप:-
इस प्रतिरूप में सामाजिक परिवर्तन की गति एक चक्र की भांति चलती है। विल्फ्रेडो पैरेटो ने अभिजात वर्ग के परिभ्रमण की चर्चा की है। जब अभिजात वर्ग निष्क्रिय हो उठता है तो वह सत्ता पर से अपनी पकड़ खो बैठता है। नीचे से दलित वर्ग ऊपर उठता है और अभिजात वर्ग नीचे लुढ़क जाता है। इसी तरह के परिवर्तन समाज में निरन्तर चलते रहते हैं।
स्प्रंगलर ने अनेक सभ्यताओं का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि सभ्यताओं का उद्भव व विकास प्राणियों के समान ही होता है। सभ्यता बाल्यावस्था एवं तरुणाई पार करके परिपक्व अवस्था में आती है अन्ततः उसका क्षय होकर विघटन हो जाता है। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है।
जोसेफ आर्नोल्ड टायनबी ने सभ्यता के उद्भव को चुनौती और प्रत्युत्तर का काल माना है। इसमें प्रकृति चुनौती देती है और समाज उस चुनौती का सामना करता है और प्रत्युत्तर देता है। प्रकृति उच्च स्तर पर चुनौती देती है और समाज उसी स्तर पर प्रत्युत्तर देता है। परिपक्वावस्था में समाज में पूर्व जैसी ताकत नहीं रहती, किन्तु पूर्व अनुभवों के आधार पर वह कठिनाइयों का सामना करता रहता है।
अन्त में समाज की सभ्यता और संस्कृति का पतन हो जाता है। इस पुरानी संस्कृति के आधार पर नई संस्कृति का पुनः उद्भव व विकास होता है। इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रतिरूप चक्रीय प्रतिरूप कहलाते हैं।