Unique Geography Notes हिंदी में

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GEOGRAPHY OF INDIA(भारत का भूगोल)भारतीय संसाधन

2. Distribution, use, related prmobles and conservation of land resources in India. (भारत में भूमि संसाधन के वितरण, उपयोग, संबंधित समस्या तथा संरक्षण)

 Distribution, use, related problems and conservation of land resources in India.

(भारत में भूमि संसाधन के वितरण, उपयोग, संबंधित समस्या तथा संरक्षण)



             भूमि एक प्राकृतिक संसाधन है। धरातल के सबसे ऊपरी सतह में मिलने वाला असंगठित पदार्थ को मृदा कहते हैं। चूंकि मृदा में आर्थिक लगान देने की क्षमता होती है। इसलिए इसे संसाधन की श्रेणी में रखते हैं।

     भारत मृदा संसाधन के मामले में एक समृद्ध राष्ट्र है। क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भारत विश्व का 7वाँ सबसे बड़ा देश है। विश्व के कुल क्षेत्रफल का 2.4% भूभाग भारत के पास उपलब्ध है। इसका क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किमी० है।

     मुख्य भूमि का विस्तार 8°4′ N से 37°6’N अक्षांश है। जबकि देशान्तरीय विस्तार 687′ से 97°25′ तक है। इसके सीमा का विस्तार 15200 किमी० है। भारत के कुल क्षेत्रफल का 58% भूभाग कृषि योग्य भूमि के अन्तर्गत आता है। यह विश्व के कुल कृषि योग्य भूमि का 11% है।

Distribution

     विशालकाय भूभाग होने के कारण मृदा के ऊपर अनेक प्रकार के भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कारकों का प्रभाव पड़ता है। इन कारकों के कारण ही अलग-2 क्षेत्र में अलग-2 प्रकार से भूमिका उपयोग किया जाता है।

     भारतीय मृदा संसाधन उपयोग को चार शीर्षकों में बाँटकर अध्ययन करते हैं:-

(1) वनीय भूमि के रूप में

(2) कृषि कार्य के रूप में

(3) निर्मित भूमि के रूप में

(4) अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष आर्थिक लगान न देने वाली भूमि।

(1) वनीय भूमि के रूप में:-

     पर्यावरण के दृष्टिकोण से भारत में कम से कम 33% भूभाग पर वन होना चाहिए। इसमें भी मैदानी भारत में 20% और पठारी भाग में 60% भूभाग पर वन होना चाहिए। लेकिन भारत के कुल क्षेत्र के मात्र 22.1% भारत पर वन उपलब्ध है। इसमें पंजाब एवं हरियाणा ऐसे राज्य हैं जो वन विहीन है। पूर्वोत्तर, छतीसगढ़, MP, ओडिशा इत्यादि ऐसे राज्य है जहाँ के भूमि पर वन का विस्तार अधिक है।

(2) कृषि वर्ष के रूप में:-

     कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी देश के कुल क्षेत्रफल का 40% भूभाग को ही कृषि कार्य में लगाया जाना चाहिए। लेकिन भारत अपने कुल क्षेत्रफल का 58% भूमि का प्रयोग कृषि क्षेत्र में कर रहा है। इसमें 47% भूभाग प्रत्यक्ष कृषि के रूप में, 7.5% परती भूमि के रूप में, 25% चारे भूमि के रूप में उपयोग किया जा रहा है।

      भारत में सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि मैदानी क्षेत्र में उपलब्ध है। भारतीय मृदा पर अनेक प्रकार के फसलों की कृषि की जाती है जिनमें खाद्यान्न फसल, तेलहन, दलहन एवं नगदी फसल प्रमुख है।

(3) निर्मित क्षेत्र के रूप में:-

      इसके अन्तर्गत भूमि का प्रयोग अधिवासीय माकान के रूप में परिवहन मार्ग में खनन भूमि के रूप में, नगर एवं औद्योगिक क्षेत्रों के विकास में किया जा रहा है। भूगोलवेत्ताओं के अनुसार किसी भी देश के कुल क्षेत्रफल का 14% भूभाग का प्रयोग निर्मित क्षेत्र के रूप में किया जाना चाहिए। लेकिन वर्तमान समय में 13.5% भूमि प्रयोग इस रूप में कर रहा है।

(4) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लगान न देने वाली भूमि के रूप में:-

      इसके अन्तर्गत हिमाच्छादित भूमि, चट्टानी भूमि, मरुस्थलीय भूमि, दलदली भूमि में शामिल करते है। पर्यावरणवादियों के अनुसार किसी भी देश में 13% भूभाग पर ऐसी भूमि होनी चाहिए। वर्तमान समय में भारत के पास 13% ऐसे भूमि उपलब्ध है।

     भारत के भूमि प्रयोग प्रतिरूप से स्पष्ट है कि भारत में भू-उपयोग काफी असंतुलित है जिसके कई कारण है। जैसे-

(i) भारत की लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या,

(ii) प्रति इकाई भूमि पर बढ़ता हुआ जनसंख्या दबाव,

(iii) कृषि योग्य भूमि में लगातार कमी,

(iv) प्रति वर्ष बड़े पैमाने पर वनों की कटाई,

(v) अवैज्ञानिक कृषि पद्धति, जैस- झूम कृषि, सीढ़ीनुमा कृषि।

(vi) अत्याधिक पशुचारण,

(vii) बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग,

(viii) किसानों के द्वारा फसल चक्र को अपनाया नहीं जाना,

(ix) तीव्र औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण,

(x) बाढ़, सूखाड़, मरुस्थलीकरण, हिमस्खलन, भूस्खलन जैसे प्राकृतिक कारण।

भारतीय मृदाओं की समस्याएँ

      भारतीय मृदा कई मानवीय कारक प्राकृतिक कारक से प्रभावित होती रही है जिसके कारण भारतीय मृदा के समक्ष निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न हुई है-

(1) मृदा अपरदन की समस्या,

(2) घटती मृदा उर्वरता,

(3) जल जमाव की समस्या

(4) भूमि लवणीकरण की समस्या

(5) मरुस्थलीयकरण की समस्या

(1) मृदा अपरदन की समस्या:-

     मृदा के ऊपरी सतह के हटने की क्रिया ‘मृदा अपरदन’ कहलाता है। जब मृदा का ऊपरी भाग एक चादर रूप में फटता है तो उसे ‘परत अपरदन’ या ‘चादर अपरदन’ कहते हैं। अगर जल बहाव के कारण छोटे-बड़े नाली के रूप में मृदा अपरदन होता है, तो उसे गली एवं अवनालिका अपरदन कहते है। चम्बल नदी घाटी क्षेत्र इसके लिए विश्व प्रसिद्ध है।

        भारत में मृदा अपरदन के कई कारक सक्रिय है। जैसे- मरुस्थलीय क्षेत्र में शुष्क वायु और आकस्मिक वर्षा, तटीय क्षेत्र में समुद्री तरंग पर्वतीय क्षेत्र में हिमानी और झूम कृषि मैदानी क्षेत्र में बाढ़ एवं अवैज्ञानिक कृषि पद्धति, पठारी क्षेत्र में खनन कार्य इत्यादि प्रमुख है। अत्याधिक चराई के कारण भारत में सबसे अधिक मृदा का अपरदन शिवालिक क्षेत्र में उत्पन्न हुआ है।

(2) घटती मृदा उर्वरता:-

      भारतीय भूमि पर सैकड़ों वर्षों से कृषि कार्य किया जा रहा है। पुन: हरित क्रांति के दौरान बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किये जाने के  कारण एवं वनीय ह्रास के कारण मृदा के उर्वरता में लगातार कमी आ रही है। किसानों के द्वारा अवैज्ञानिक कृषि पद्धति अपनाये जाने के कारण भी यह समस्या गंभीर होती जा रही है।

      रासायनिक उर्वरक के  प्रयोग किये जाने से मृदा के उर्वरता में सर्वाधिक कमी पंजाब, हरियाणा, प० उत्तर प्रदेश तथा कमाण्ड एरिया प्रोजेक्ट वाले क्षेत्र में उत्पन्न हुई है। अत्यधिक भूमिगत जल संसाधन के दोहन से मृदा में नमी की कमी होने लगती है। कृषि अर्थ में पशुओं के स्थान पर यंत्रों के प्रयोग से भूमि तथा पशु के बीच के सहचर्य में कमी आयी है जिसके चलते भूमि की उर्वरता में लगातार कमी हो रही है।

नोट: भारत में कमांड एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम (सीएडीपी) 1974 में भूमि और जल प्रबंधन में सुधार के लिए व्यापक कार्यक्रम के हिस्से के रूप में शुरू किया गया था। इसका प्राथमिक उद्देश्य प्रमुख और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के कमांड क्षेत्रों में पानी के उपयोग की दक्षता में सुधार करके कृषि उत्पादकता को बढ़ाना था।

(3) जल जमाव के समस्या:-

         भारत में कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ पर जल जमाव की गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है। जैसे- इंदिरा गाँधी नहर के अतिरिक्त जल को जैसलमेर और बाडमेर को छोड़ दिया जाता है जिसके कारण वहाँ जल जमाव की समस्या उत्पन्न हो गई है। इसी तरह से बहुदेशीय नदी घाटी परियोजना के तहत बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण किया जाता है और बाँधों के पीछे बड़ी मात्रा में जल का भण्डारण किया जाता है जिसके कारण उसके इर्द-गिर्द के क्षेत्र में भूमिगत जल ऊपर उठ जाते हैं और जल-जमाव की समस्या उत्पन्न करते है।

(4) भूमि लवणीकरण के समस्या:-

     मृदा में लवण बढ़ने की क्रिया को लवणीकरण कहते हैं। भारत में यह समस्या उन क्षेत्रों में उत्पन्न हुई है जहाँ वर्षा कम और वाष्पीकरण अधिक होती है। पुनः नहरी जल से सिंचाई का कार्य होता है। हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में यह एक गंभीर समस्या है।

(5) मरुस्थलीकाण की समस्या:-

      मरुस्थल का विस्तार मरुस्थलीकरण कहलाता है। थार मरुस्थल के पूर्वी उतरी सीमावर्ती क्षेत्रों में यह एक गंभीर समस्या है।

      इस तरह ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत की मृदा कई समस्याओं से ग्रसित है। 

मृदा संरक्षण

     भारत की एक अरब से भी अधिक जनसँख्या के सुपोषण को ध्यान में रखते हुए मृदा संसाधनों के उचित उपयोग तथा संरक्षण पर ध्यान देने की आवश्यक है। मृदा संरक्षण के दिशा में कई उपाय किये जा रहे हैं। जैसे-

(1) वृक्षों  के कटाई पर प्रतिबंध:-

      वृक्षों की कटाई रोकने हेतु कई प्रकार के कानून का निर्माण किया गया है। इस कानून उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को दण्ड देने के प्रावधान है। ‘चिपको आंदोलन’ इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर रहा।

(2) वृक्षारोपण:-

     गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, प० मध्य प्रदेश के किसानों के द्वारा तेज हवाओं से होने वाला मृदा अपरदन को रोकने के लिए मेढ़ वानिकी, कृषि वानिकी का सफल प्रयोग किया गया है। मृदा अपरदन को रोकने हेतु वृक्षारोपण सबसे उपयुक्त उपाय है। अतः इस कार्य के लिए सामजिक वानिकी कार्क्रम को चलाकर वनीय भूमि को बढ़ाया जा रहा है।

(3) स्थानान्तरित कृषि पर प्रतिबंध:-

     इस कृषि के अन्तर्गत नाजूक पर्यावरण में निवास करने वाले आदिवासी समाज जंगलों को काटकर जलाता है और उस पर कृषि का कार्य करता है जिसके कारण बड़े पैमाने पर भूमि की सक्षमता में कमी आती है। अत: भारत सरकार ने 1976 ई० में ही झूम कृषि निषेध कानून बनाकर इस पर निषेध लगाती है।

(4) समोच्च रेखीय जुलाई:-

     पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों को समोच्च के अनुरूप हल जुताई के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

(5) बाढ़ नियंत्रण:-

     मृदा ह्रास तथा बाढ़ के बीच में गहरा सह-संबंध है। अतः बाढ़ नियंत्रण हेतु बहुद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना, उचित जल प्रबंधन, नदी जोड़ों कार्यक्रम को लागू किया जा रहा है।

(6) परती भूमि पुर्नोद्वार:-

     भारत में लगभग 96 लाख हेक्टेयर भूमि परती भूमि के अन्तर्गत आता है। भारत में सबसे ज्यादा परती भूमि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक में उपलब्ध है। परती भूमि पर चारागाह फलोद्यान में विकास दर उसे उपयोग में लाया जा सकता है। बंजर भूमि पर जल भण्डारण कर उर्वर भूमि के रूप में रखा जा सकता है। चम्बल नदी घाटी क्षेत्र में भूमि के समतलीकरण कर अवनलिका अपरदन से निपटा जा रहा है।

(7) लवणीय मृदा उद्धार:-

      भारत में सर्वाधिक लवणीय मृदा UP, पंजाब तथा पश्चिम बंगाल में है। भारत में 80 लाख हेक्टेयर भूमि पर लवणीय मिट्टी के विस्तार हुआ है। लवणीय भूमि पर जिप्सम का प्रयोग कर, गोबर एवं जैविक उर्वरक प्रयोग कर उर्वर भूमि बदला जा सकता है।

(8) अन्य उपाय:-

    मृदा संरक्षण के कई अन्य उपाय भी लाये जा रहे है या लाये जा सकते हैं। जैसे- 

(i) सहायक नदियों पर छोटे-2 बाँधों का निर्माण करना।

(ii) मरुस्थलीय क्षेत्रों में ग्रीन बोल्ट तथा बाड़ का निर्माण करना।

(iii) पशुओं तथा मृदा के बीच में सहचर्य को बढ़ाना।

(iv) जैविक उर्वरक का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करना।

(v) फसल चक्र के उपयोग को बढ़ावा देना।

(vi) सतत् कृषि विकास को बढ़ावा देना।

(vii) Soil Clinic का निर्माण करना।

(viii) USA के तर्ज पर भारत में भी मृदा सेवा केन्द्र तथा मृदा सेवा आन्दोलन को चालाया जाना।

निष्कर्ष:

    इस तरह ऊप के तथ्यों से स्पष्ट‌ है कि भात में मृदा से संबंधित जहाँ कई समस्याएँ उत्पन्न हुई है वहीं उससे निपटने के दिशा में कई संस्थागत एवं संरचनात्मक प्रयास भी किये जा रहे है।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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