18. प्राचीन भारत में भौगोलिक विचारों का विकास (Development of Geographical ideas in Ancient India)
18. प्राचीन भारत में भौगोलिक विचारों का विकास
प्राचीन भारत में भौगोलिक विचारों का विकास
प्राचीन भारत की कई हजार वर्ष ईसा पूर्व की संस्कृति व नगरीय निर्माण कला के अवशेष देखकर आज विकसित पाश्चात्य देशों के महान विद्वान भी असमंजस की स्थिति में आ जाते हैं। पुरातनकालीन भारतीय भौगोलिक ज्ञान का विवरण विभिन्न स्थलों की खुदाई से प्राप्त सामग्री तथा तत्कालीन विभिन्न ग्रन्थों से प्राप्त होता है।
प्राचीनकालीन भारतीय भौगोलिक ज्ञान को संक्षेप में निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है:-
(1) सौरमण्डलीय ज्ञान:-
प्राचीन काल में ही ब्रह्माण्ड विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने पर्याप्त उन्नति कर ली थी। सूर्य, चन्द्र व पृथ्वी के सम्बन्धों, ऋतु परिवर्तनों, दिवस-रात्रि, उषः, मध्याह्न अपरान्ह, आदि के प्रसंग ऋग्वेद, यजुर्वेद व अथर्ववेद में, बहुत से मन्त्रों में आते है। पृथ्वी, अन्तरिक्ष के वर्णन तथा मृगशिरा, कृत्तिका, चित्रा, रेवती आदि सत्ताईस नक्षत्रों के वेदों व ब्रह्माण्ड ग्रन्थों में पढ़े जा सकते हैं। विषुव दिवस (Equatorial Day) का उल्लेख वेदों में अनेक स्थानों पर है। सौर वर्ष (Solar Year), सौर मास (Solar Month), आदि की गणनाओ, सत्ताइस नक्षत्रों की चालों और सूर्य नक्षत्रों की गणनाओं के आधार पर वैदिक ज्योतिष का प्रतिपादन किया गया।
ईसा की पांचवीं सदी से सातवीं सदी तक भारतीय विद्वानों ने खगोलीय भूगोल (Astronomical Geography) में बहुत उन्नति की। इसी काल में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, आदि विख्यात गणितज्ञ थे। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में ‘सूर्य सिद्धान्त’ प्रमुख है।
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पृथ्वी की उत्पत्ति पर भी प्रकाश डाला गया है। ऋग्वेद के मन्त्रों से अनुमान लगाया गया है कि आर्यों ने पृथ्वी के पिघले रूप की कल्पना की थी, जिसे आज सभी स्वीकार करते हैं। रामायण-महाभारत में भूचाल तथा ज्वालामुखी के प्रसंग हैं। “जब शक्तिशाली गज थक कर सिर हिलाता है, तब भूचाल आता है।’ यही कारण बताया गया है भूचाल का। महाभारत में ज्वालामुखी पर्वत के उभार की चर्चा है- “पृथ्वी अपने सातों महाद्वीपों के साथ उठ गई, जिसके साथ पर्वत, नदियां, वन, आदि भी ऊंचे उठ गए।’
पुराणों में महाद्वीपों व पर्वतों की उत्पत्ति विषयक कल्पनाएं की हैं- ‘पृथ्वी महासागर में एक बृहत् नौका के रूप में तैरती है। ब्रह्मा ने पृथ्वी का समतलन किया व उसे सात द्वीपों में विभक्त किया।’ इससे पृथ्वी के तैरने की वर्तमान संकल्पना (सियाल के बने महाद्वीप सीमा पर तैरते हैं) के समकक्ष विचारधारा का अनुमान होता है। पृथ्वी की आयु की कल्पना भी प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में की गई है। ‘मनुस्मृति’ उल्लेख है कि पृथ्वी अब तक 1,96,91,03,000 वर्ष पूर्ण कर चुकी है। समकालीन विद्वान भी पृथ्वी की आयु करीब दो अरब मानते हैं। रामायण में सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण की भी चर्चा है। इसके कारण राहु-केतु बताए गए हैं। सौरमण्डल के अन्य ग्रहों- मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, आदि की चर्चा भी कई स्थलों पर है।
(2) वायुमण्डलीय ज्ञान:-
ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय के आर्यों को वायुमण्डल के सम्बन्ध में अच्छा ज्ञान था। उन्होंने वर्ष को छः ऋतुओं में विभक्त किया था। मन्त्रों में 49 से 63 प्रकार की पवनों की चर्चा है। वाल्मीकि रामायण में बादलों का वर्णन है। इसमें तीन प्रकार के बादल व सात प्रकार की पवन की चर्चा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा का वितरण समझाया गया है जो आज के वितरण के अनुकूल है। कृषि तथा वर्षा का सम्बन्ध स्थापित करते हुए कौटिल्य ने लिखा है- कुछ ऐसे बादल होते हैं जो क्रमशः सात दिन तक वर्षा करते हैं, 80 ऐसे हैं जिनमें कम वर्षा होती है, 60 ऐसे होते हैं जो खेतों को जोतने योग्य बनाते हैं। कौटिल्य ने वर्षा मापक यन्त्र भी तैयार किया था।
(3) जलमण्डलीय ज्ञान:-
वैदिक मन्त्रों में महासागरों का वर्णन है। सामवेद तथा अथर्ववेद में महासागरों की संख्या 4 बताई गई है, परन्तु अन्य वेदों में इनकी संख्या 7 बताई गई है। सामवेद में महासागरों में जल के उठने का वर्णन मिलता है, जिससे ज्वार-भाटा की कल्पना की जा सकती है। रामायण में कई स्थानों पर ज्वार-भाटा का उल्लेख है, इसका कारण चन्द्रमा बताया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मूंगा, मोती की चर्चा है। महासागरों में किन स्थानों पर ये मिलते हैं, इसका भी विस्तृत वर्णन ग्रन्थ में पढ़ा जा सकता है।
(4) स्थलमण्डलीय ज्ञान (सामान्य भौगोलिक वर्णन):-
प्राचीन काल के स्थलमण्डलीय ज्ञान को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-
(i) भौतिक भूगोल- भौतिक भूगोल विषयक ज्ञान में पर्वतों, नदियों व वनस्पति का वर्णन मिलता हैं:-
(क) पर्वत- पुराणों के अनुसार संसार की समस्त पर्वत श्रृंखलाएं पामीर (मेरु) के चारों ओर जाती हैं। पर्वतों को पांच प्रकारों में विभक्त किया गया है- मध्य पर्वत (मेरु), विषकम्भ पर्वत (जो मेरु के चतुर्दिक विस्तृत हैं), वर्ष पर्वत (विभिन्न देशों की कुल पर्वत (मुख्य पर्वत श्रृंखलाएं) तथा मर्यादा पर्वत (सीमा पर स्थित पर्वत)।
भारत के पर्वतों का पुराणों में विस्तृत वर्णन है। इनमें महेन्द्र (पूर्वी घाट), मलय (पश्चिमी घाट का दक्षिणी भाग), सह्य (पश्चिमी घाट का उत्तरी भाग), रिक्ष (मध्य विंध्य), आदि प्रमुख है।
(ख) नदियां- वेदों में नदियों के विस्तृत वर्णन हैं। वेदों व उपनिषदों में अफगानिस्तान, पंजाब व गंगा-यमुना क्षेत्र की नदियों का वर्णन है। पुराणों के अनुसार मेरु (पामीर) के दिशाओं में नदियां प्रवाहित होती हैं। दक्षिण की ओर गंगा, पश्चिम की ओर चक्षु, पूर्व की और सीता व उत्तर की ओर भद्रसोन नदी बहती है। मार्कण्डेय पुराण में भारतीय नदियों का विस्तृत वर्णन है। गंगा की उत्पत्ति का विस्तृत वर्णन है। अन्य नदियों में यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी, कृष्णा व ताम्रपर्णी का विशेष वर्णन है।
(ग) वनस्पति- मार्कण्डेय पुराण में विभिन्न प्रकार की वनस्पति का वर्णन मिलता है। तत्कालीन फसलों का भी वर्णन है। शिव पुराण में दुग्ध वृक्ष (रबर) का प्रसंग है।
(ii) मानव भूगोल विषयक ज्ञान-
ऋग्वेद में पृथ्वी पर पांच प्रकार के लोगों के निवास का वर्णन है। इनमें असुर तथा दास भी सम्मिलित हैं। वाजसनेयि संहिता में चार वर्णों का उल्लेख है: ब्राह्मण्ड, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र। रामायण में अनेक भारतीय आदिम जातियों के वर्णन है। इनमें राक्षस, वानर, निषाद, किन्नर, सावर, गन्धर्व, नाग, असुर, देव, आदि जातियां मुख्य हैं। विदेशी जातियों में शक एवं यवनों को गौर वर्ण की जातियां कहा गया है। राक्षसों का रंग काला व रूप भयानक बताया गया है।
महाभारत में भी अनेक जातियां, उनके रूप-रंग, विवाह पारिवारिक सम्बन्धों आदि के वर्णन है। मनु के धर्म शास्त्र में आठ प्रकार के विवाह बताए गए हैं: ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गन्दर्व, पैशाच व राक्षस। इनमें से छः को सामाजिक समर्थन प्राप्त था। कौटिल्य ने भी विवाह पद्धति व स्त्री-पुनर्विवाह की चर्चा की है।
(iii) सांस्कृतिक भूगोल विषयक ज्ञान-
प्राचीन समय से ही कृषि भारतीयों का मुख्य व्यवसाय रहा है। अथर्ववेद में वर्णन है कि कृषि में किन सावधानियों की आवश्यकता होती है। ऋग्वेद में खेत जोतने का आदेश दिया गया है। पातञ्जलि के महाभाष्य में फसलें बोने की विधियों, कृषि क्षेत्रों, बीजों व अनाज भण्डारण का वर्णन है। पाणिनि प्रातञ्जलि व मनु ने भूमि का वर्गीकरण भी किया है। बाढ़ से प्रभावित भूमि द्वारा अनुपयोगी भूमि ऊसर, पशुचारण के लिए प्रयुक्त भूमि गोचर व जोतने योग्य भूमि (शील्य) कही गई। पातञ्जलि ने फसलों के प्रादेशिक वितरण का भी वर्णन किया है। सिंचाई के साधनों पर भी प्रकाश डाला गया है। कुएं व तालाब सिंचाई के प्रमुख साधन थे।
प्राचीन भारत में विभिन्न उद्योग धन्धे भी पर्याप्त विकसित अवस्था में थे। वर्तन, वस्त्र निर्माण, सिक्के, आभूषण आदि सम्बन्धी उद्योगों का वर्णन वेदों में है। भवन निर्माण, काष्ट शिल्प, मृतिका शिल्प, लौह शिल्प भी इस समय अपनी उन्नति की चरम सीमा पर थे। दिल्ली में कुतुबमीनार के समीप स्थापित जंगरहित लौह स्तम्भ, जो कि गुप्त काल में निर्मित बताया जाता है, भारतीय लौह-शिल्पियों की दक्षता का प्रमाण हैं।
परिवहन मार्ग भी प्राचीन भारत में अच्छी अवस्था में थे। ब्रह्माण्ड पुराण में दस प्रकार की सड़कों का वर्णन है: दिशा मार्ग, ग्राम मार्ग, सीमा मार्ग, राज, पथ, शाखा रथ्या, रथोपरथ्या, उपरथ्या, जंघापथ, गृहान्तपथ तथा धृति मार्ग।
विदेशी व्यापार भी प्राचीन काल से भारतीय विशेषता है। विष्णु पुराण में कम्बोज के घोड़ों तथा मत्स्य पुराण में नेपाल के कम्बलों का उल्लेख है।
अधिवास सम्बन्धी ज्ञान भी प्राचीन भारतीय साहित्य से प्राप्त होता है। मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से प्राचीन भारतीय नगर नियोजन व भवन निर्माण कला का परिचय मिलता है। मानवीय बस्तियों का वर्गीकरण ‘मायामतम’ में किया गया है।
(iv) राजनीतिक व प्रादेशिक भूगोल विषयक ज्ञान-
वैदिक साहित्य में भारतीय जनपद प्रदेशों के वर्णन हैं। इनमें काशी, कोशल, मगध, पांचाल, विदर्भ, सौराष्ट्र व आन्ध्र प्रमुख थे।
निष्कर्ष:
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारतीय भौगोलिक ज्ञान उच्चकोटि का था परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि भौगोलिक विचारधाराओं के विकास के इतिहास में उसे स्थान नहीं दिया गया है।