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Human Geography - मानव भूगोल

23. Social Structure (सामाजिक संरचना)

Social Structure

(सामाजिक संरचना)



Q.- सामाजिक संरचना क्या है? सामाजिक संरचना की अवधारणा, विशेषताएँ एवं तत्त्व लिखिए।

Ans:- सामान्य व्यक्ति जिसे ढांचा कहता है, उसी को समाजशास्त्रीय संरचना कहता है। प्रत्येक भौतिक वस्तु की एक निश्चित संरचना होती है जिसका निर्माण विभिन्न इकाइयों के मिश्रण से होता है। ये निर्माणक इकाइयां सुव्यवस्थित रूप से परस्पर सम्बन्धित रहती हैं तथा इनमें स्थिरता पाई जाती है।

   संरचना के लिए आवश्यक होता है कि सभी इकाइयां सुनिश्चित स्थान पर रहते हुए अपनी-अपनी भूमिका का उचित निर्वाह करती रहें। जिस प्रकार शरीर का एक निश्चित ढांचा होता है ठीक उसी प्रकार समाज की भी संरचना होती है। मानव संरचना की भांति सामाजिक संरचना भी अनेक इकाइयों का मिश्रित रूप होती है।

    सामाजिक संरचना की विभिन्न इकाइयों में विभिन्न प्राथमिक व द्वितीयक समूह जैसे- परिवार, क्रीड़ा समूह, जाति, पड़ोस, सेना, व्यापारिक संगठन, औद्योगिक संस्थान, शिक्षण संस्थान, सामाजिक मूल्य, सामाजिक प्रतिमान, आदि को लिया जाता है।

    ये सभी समाज की इकाइयां व्यवस्थित रहते हुए तथा परस्पर सम्बन्धित होते हुए अपने-अपने सुनिश्चित स्थान पर रहते हुए अपने-अपने कार्यों को व्यवस्थित रूप से करती रहती हैं। तभी समाज का बाह्य स्वरूप दिखाई देता है, यही सामाजिक संरचना है।

    संक्षेप में सामाजिक संरचना (Social Structure) एक ऐसा शब्द है जो किसी समाज में व्यक्तियों और समूहों के बीच स्थापित संबंधों और संगठित पैटर्न को दर्शाता है। 

    यह समाज के विभिन्न हिस्सों, जैसे परिवार, स्कूल, धार्मिक संगठन, और सामाजिक क्लबों के बीच के संबंधों को संदर्भित करता है, जो समाज के सदस्यों को एक साथ बांधते हैं।

    सामाजिक संरचना समाज को एक ढांचा प्रदान करती है, जिसमें लोग अपने विभिन्न गुणों, रुचियों और व्यक्तिगत पहलुओं के आधार पर एक-दूसरे के साथ अंतःक्रिया करते हैं। 

सामाजिक संरचना की अवधारणा:-

   सामाजिक संरचना की अवधारणा को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाया है।

कार्ल मानहीम ने सामाजिक संरचना को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिससे निरीक्षण और चिन्तन की विभिन्न प्रणालियों का जन्म होता है।”

    स्पष्ट है कि सामाजिक संरचना का निर्माण सामाजिक शक्तियों के माध्यम से होता है। ये सामाजिक शक्तियां एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित रहती हुई कार्य करती रहती हैं तथा निरीक्षण एवं चिन्तन की पद्धतियों को जन्म देती रहती हैं।

मॉरिस जिन्सबर्ग के अनुसार, “सामाजिक संरचना का अध्ययन सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों अर्थात् समूह, समूहों के प्रकार, समितियों, संस्थाओं और इनके संकुलों से जिससे कि समाज का निर्माण होता है, से है।”

   इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सामाजिक संरचना का निर्माण उन विशिष्ट इकाइयों से होता है जिनसे कि समाज का निर्माण होता है।

जॉनसन के अनुसार, “किसी भी वस्तु की संरचना से हमारा आशय इसके भागों में सापेक्षिक रूप से पाए जाने वाले स्थायी अन्तः सम्बन्धों से होता है।”

रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, “संस्था द्वारा परिभाषित और नियमित सम्बन्धों में लगे हुए व्यक्तियों की क्रमबद्धता ही सामाजिक संरचना है।”

टालकोट पारसन्स के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, एजेन्सियों, सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समाज में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमवद्धता को कहते हैं।”

     इन विचारों से स्पष्ट है कि मात्र समाज की विभिन्न इकाइयों या तत्वों को जिनसे कि समाज का निर्माण होता है, सामाजिक संरचना के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, बल्कि जब समाज की विभिन्न निर्माणक इकाइयों में एक निश्चित रूप में क्रमबद्धता होती है तभी सामाजिक संरचना कहा जाता है।

एस. एस. नैडेल के अनुसार, “सामाजिक संरचना विभिन्न अंगों की क्रमबद्धता को स्पष्ट करती है, यह तुलनात्मक रूप से स्थायी होती है, किन्तु इसका निर्माण करने वाले अंग परिवर्तनशील होते हैं।”

    इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना की प्रकृति तो स्थायी होती है, किन्तु सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली इकाइयां चाहे कोई भी क्यों न हों, परिवर्तनशील प्रकृति की होती हैं या हो सकती हैं।

सामाजिक संरचना की विशेषताएँ

     सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं:

(1) समाज की बाह्य संरचना:-

    सामाजिक संरचना समाज के ढांचे से जानी जाती है। ढांचे के लिए आवश्यक निर्णायक इकाइयों में पाई जाने वाली क्रमबद्धता ही सामाजिक संरचना है। यद्यपि प्रत्येक समाज की संरचना में पर्याप्त समानता पाई जाती है, फिर भी वह दूसरे समाज से अलग अपनी पहचान बनाए रखता है। एक समाज दूसरे समाज से कुछ न कुछ बातों में भिन्न होता है जो व्यवहारों के प्रतिमानों के रूप में दिखाई देती है।

(2) विशिष्ट क्रमबद्धता:-

      पारसन्स ने परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं और समितियों की विशिष्ट क्रमबद्धता को सामाजिक संरचना कहा है। सामाजिक संरचना में विभिन्न इकाइयां एक-दूसरे से जुड़कर एक ढांचा तैयार करती हैं। यही सामाजिक संरचना है। स्पष्ट है कि सामाजिक संरचनाएं इकाइयों में पाई जाने वाली विशिष्ट क्रमबद्धता ही है।

(3) तुलनात्मक रूप से स्थिर:-

     नैडेल का मानना है कि संरचना अपने निर्माण करने वाले अंगों से अधिक स्थायी होती है। अंग परिवर्तनशील होते हुए भी अपने में विद्यमान क्रमबद्धता की दृष्टि से स्थिर होते हैं। मानव में आयु के अनुसार परिवर्तन आता है। यह परिवर्तन उसके आचार-विचारों में भी होता है, किन्तु इन व्यक्तियों द्वारा निर्मित होने वाले समूह अधिक स्थिर होते हैं।

(4) अमूर्तता:-

     जब किसी एक वस्तु को दूसरी वस्तु द्वारा परिभाषित किया जाता है तो उसे सम्बन्ध कहा जाता है। जब ये सम्बन्ध जागरूक चेतनायुक्त प्राणियों के मध्य पारस्परिक रूप में पाए जाते हैं तब उन्हें सामाजिक सम्बन्ध कहा जाता है। इन्हें अमूर्त सम्बन्ध कहा जाता है। इन सम्बन्धों द्वारा बनने वाले समाज की संरचना अमूर्त होती है।

    राइट महोदय ने सामाजिक संरचना के अमूर्त पक्ष को महत्व दिया। पारसन्स ने सामाजिक संरचना की इकाइयों में सामाजिक प्रतिमानों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। ये प्रतिमान अमूर्त एवं बाह्य होते हैं।

(5) खण्डात्मक विभाजन:-

      सामाजिक संरचना में खण्डात्मक विभाजन पाया जाता है। सामाजिक इकाइयों में अनेक उप संरचनाएं पाई जाती हैं। इसकी प्रत्येक इकाई में उप संरचनाएं होती हैं। धर्म, राजनीति, आर्थिक, पारिवारिक एवं सामाजिक संस्थाएं सामाजिक संरचनाओं की महत्वपूर्ण अंग होती हैं। ये सभी संस्थाएं अपनी व्यक्तिगत सामाजिक संरचनाएं रखती हैं।

(6) संघटन एवं विघटन:-

     सामाजिक संरचनाओं का आधार सामाजिक प्रतिमान होता है जो देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। पुराने मूल्यों का स्थान नवीन मूल्य ग्रहण करने लगते हैं। इससे समाज में पुराने मूल्यों के आधार पर विघटन प्रारम्भ हो जाता है। जबकि नवीन मूल्यों के आधार पर समाज की पुनर्रचना प्रारम्भ हो जाती है।

(7) सामाजिक प्रक्रियाएं:-

    सामाजिक संरचनाओं में सामाजिक प्रक्रियाओं का योगदान रहता है। सामाजिक प्रतिक्रियाओं द्वारा सामाजिक संरचनाओं का रूप निर्धारित होता है जबकि सामाजिक संरचनाएं इन प्रक्रियाओं का नियमन करती हैं।

(8) क्षेत्रीयता:-

    प्रत्येक संरचना अपना एक सामाजिक क्षेत्र रखती है। इस क्षेत्र की सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक, आदि संस्थाओं को वहां की भौगोलिक दशाएं प्रभावित करती हैं।

सामाजिक संरचना के तत्व

   सामाजिक संरचना का निर्माण समितियों एवं संस्थाओं के आधार पर होता है। सामाजिक संरचना के तत्व निम्नांकित हैं:-

(1) नियमात्मक प्रणाली:-

     प्रत्येक समाज की व्यवस्था वास्तविक व्यवहारों पर नियन्त्रण करती है। जिन नियमों द्वारा नियन्त्रण होता है, उन्हें ही नियमात्मक प्रणाली के अन्तर्गत जाना जाता है। समाज द्वारा स्वीकृत एवं मान्य मूल्यों के आधार पर ही व्यक्ति अपनी भूमिका अदा करता है। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था इन्हीं मूल्यों एवं नियमों पर आधारित है।

(2) पद व्यवस्था:-

    सामाजिक संरचना में व्यक्तियों की स्थिति उनके व्यक्तिगत गुण तथा किसी विशिष्टता के आधार पर होती है। इन्हीं विशिष्टताओं के आधार पर उनका पद सृजन होता है। व्यक्ति अपनी क्षमताओं के आधार पर इनमें परिवर्तन भी करता रहता है। व्यक्ति एक साथ कई प्रकार के सम्बन्धों में बंधा रहता है यथा पिता, पति, मित्र, अधिकारी, आदि। यह व्यवस्था सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण तत्व हैं।

(3) अनुशासित व्यवस्था:-

     यह व्यवस्था समूह के व्यक्तियों के कार्यों का मूल्यांकन कर उचित एवं अनुचित की मान्यता प्रदान करती है। सामाजिक संरचना के भाग एवं उपभाग सभी एक दूसरे से सम्बन्धित आदर्शों एवं मूल्यों के कारण होते हैं। समाज में इस व्यवस्था के कारण ही पुरस्कार एवं दण्ड व्यवस्था का प्रावधान है।

(4) अपेक्षाओं की व्यवस्था:-

     प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों के पारस्परिक प्रति उत्तरों का पूर्वानुमान लगाकर ही व्यवहारों का सन्तुलित नियमन होता है। मानव अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करता रहता है जिससे सामाजिक संरचना का स्वरूप निर्धारित होता है और कर्तव्य पालन से ही व्यवहारों के प्रति उत्तरों को निश्चित एवं नियमित किया जाता है।

(5) क्रिया व्यवस्था:-

     सामाजिक संरचना के लिए एक क्रिया व्यवस्था अत्यावश्यक होती है। इस क्रिया व्यवस्था में सामाजिक क्रियाओं का विशिष्ट स्वरूप पाया जाता है। किसी व्यक्ति द्वारा समाज के लिए किया गया कार्य सामाजिक क्रिया कहलाता है। इसके लिए कर्ता, उसकी प्रेरणा और उस क्रिया की पृष्ठभूमि या सन्दर्भ का होना आवश्यक होता है। समाज की क्रियाशीलता का प्रमुख कारण क्रिया व्यवस्था है जिसे जीवन्त रखने के लिए सामाजिक संरचना सर्वदा प्रयत्नशील रहती है। क्रिया व्यवस्था सामाजिक संरचना को गतिशील बनाती है।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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