37. Geomorphic Evolution of Shillong Plateau (शिलांग पठार का भू-आकृतिक विकास)
Geomorphic Evolution of Shillong Plateau
(शिलांग पठार का भू-आकृतिक विकास)
परिचय
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में अवस्थित शिलांग पठार (Shillong Plateau) भू-आकृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। यह पठार मेघालय राज्य का प्रमुख भाग बनाता है तथा भौगोलिक, भूवैज्ञानिक एवं स्थलाकृतिक दृष्टि से अद्वितीय विशेषताएँ प्रस्तुत करता है। इसे भारत के प्राचीनतम भूखंडों में गिना जाता है जो अर्ध-गोलाकार रूप में उत्तर में ब्रह्मपुत्र घाटी, दक्षिण में बांग्लादेश का मैदान, पश्चिम में गारो के पहाड़ी तथा पूर्व में नगालैंड-मणिपुर के पहाड़ी प्रदेशों से घिरा हुआ है।
भू-आकृतिक विकास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि शिलांग पठार भारतीय प्रायद्वीप के पूर्वोत्तर विस्तार का भाग है जो विवर्तनिक गतिविधियों के कारण ब्रह्मपुत्र घाटी और बंगाल बेसिन से पृथक हुआ। इसकी संरचना मुख्यतः प्राचीन आर्कियन चट्टानों, ग्रेनाइट-निस और कार्बोनेट शैलों से बनी है। मानसूनी वर्षा और तीव्र अपरदन प्रक्रियाओं ने इसे विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया है।
इस पठार का भू-आकृतिक विकास केवल स्थानीय प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं है बल्कि इसका सीधा संबंध हिमालय के उत्थान, इंडो-बर्मा शृंखला तथा ब्रह्मपुत्र-गंगा-बांग्लादेश डेल्टा के निर्माण से भी है।
भौगोलिक स्थिति
शिलांग पठार मेघालय राज्य का केंद्रीय भाग है।
⇒ अक्षांशीय विस्तार – 25°00′ से 26°15′ उत्तरी अक्षांश
⇒ देशांतरीय विस्तार – 90°45′ से 92°15′ पूर्वी देशांतर
⇒ ऊँचाई – औसतन 1500 मीटर से 1961 मीटर (शिलांग पीक)
⇒ क्षेत्रफल – लगभग 8,500 वर्ग किमी०
स्थलाकृतिक स्वरूप
स्थलाकृतिक दृष्टि से यह पठार खंडित एवं असमान है। इसकी सतह पर अनेक ऊँची-नीची पहाड़ियाँ, संकरी घाटियाँ, गहरी खाइयाँ तथा जलप्रपात पाए जाते हैं। दक्षिणी भाग तीव्र ढाल लिए हुए बांग्लादेश मैदान की ओर गिरता है। इस कारण यहाँ अनेक झरने जैसे- नोहकलिकाई फॉल्स, एलिफेंट फॉल्स, सेवन सिस्टर्स फॉल्स इत्यादि विकसित हुए हैं।
पठार का पश्चिमी भाग गारो पहाड़ी, मध्य भाग खासी पहाड़ी तथा पूर्वी भाग जयंतिया पहाड़ी कहलाता है। इन तीनों क्षेत्रों में स्थलरूपों की विविधता स्पष्ट देखी जा सकती है।
भूगर्भीय संरचना (Geological Structure)
शिलांग पठार की भूगर्भीय संरचना अत्यंत प्राचीन एवं जटिल है।
1. प्राचीन चट्टानें (Archaean Complex):-
⇒ मुख्यतः निस, ग्रेनाइट, शिस्ट और क्वार्टजाइट।
⇒ इनका निर्माण लगभग 2500-3000 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ।
2. विवर्तनिकी ढाँचा (Tectonic Framework):
⇒ यह पठार शिलांग मासिफ (Shillong Massif) के रूप में जाना जाता है।
⇒ उत्तरी भाग में ब्रह्मपुत्र घाटी इसे हिमालय से अलग करती है।
⇒ दक्षिण में डौकी भ्रंश (Dauki Fault) इसे बंगाल बेसिन से अलग करता है।
3. भ्रंश एवं भ्रंशन:
⇒ डौकी भ्रंश (Dauki Fault): सबसे महत्त्वपूर्ण, जिसने पठार को अचानक उठाकर बांग्लादेश मैदान से अलग किया।
⇒ शिलांग भ्रंश (Shillong Fault) एवं बारपानी भ्रंश (Barapani Fault): आंतरिक उत्थान एवं भूकंपीय गतिविधि के लिए उत्तरदायी।
इन भूगर्भीय प्रक्रियाओं ने पठार को स्थिर नहीं रहने दिया बल्कि निरंतर उत्थान, झुकाव एवं भूकंप जैसी घटनाओं से प्रभावित किया।
शिलांग पठार का भू-आकृतिक विकास
शिलांग पठार का विकास कई चरणों में हुआ-
(i) प्राचीन काल (Precambrian to Gondwana)
⇒ यहाँ की आधारभूत चट्टानें प्रीकैम्ब्रियन युग की हैं।
⇒ प्रारंभिक काल में यह क्षेत्र समुद्री अवसाद था।
⇒ गोंडवाना काल (लगभग 250 मिलियन वर्ष पूर्व) में यहाँ कोयला एवं बलुआ पत्थर के निक्षेप बने।
(ii) विवर्तनिक उत्थान (Tectonic Uplift)
⇒ प्लेट विवर्तनिकी के परिणामस्वरूप हिमालय के उत्थान के साथ-साथ शिलांग पठार भी ऊँचा उठा।
⇒ डौकी भ्रंश ने इसे दक्षिण की ओर तीव्र ढाल प्रदान की।
⇒ ब्रह्मपुत्र घाटी का निर्माण इसी उत्थान के कारण हुआ।
(iii) अपरदन एवं अपक्षय
⇒ भारी मानसूनी वर्षा (12,000 मिमी से अधिक) के कारण तीव्र अपक्षय और अपरदन हुआ।
⇒ नदियों ने गहरी घाटियाँ काटीं।
⇒ दक्षिणी भाग में तीव्र ढाल से जलप्रपात बने।
(iv) नदी अपरदन और घाटी निर्माण
⇒ उम्गोट, बारापानी, उमियम और कपिली नदियों ने गहरी घाटियाँ निर्मित कीं।
⇒ कुछ घाटियाँ V-आकार की हैं जो नदी अपरदन की तीव्रता को दर्शाती हैं।
(v) करस्ट एवं चूना पत्थरीय रूपरेखाएँ
⇒ जयंतिया पहाड़ी में चूना पत्थर की प्रचुरता है।
⇒ यहाँ गुफाएँ (मावसमाई गुफा, सिजू गुफा) एवं स्टैलेग्माइट-स्टैलेक्टाइट रूप रेखाएँ पाई जाती हैं।
(vi) झरने एवं जलप्रपात
⇒ दक्षिणी ढाल पर अनेक भव्य जलप्रपात विकसित हैं।
⇒ इनमें नोहकलिकाई फॉल्स (1115 फीट) भारत का सबसे ऊँचा जलप्रपात है।
शिलांग पठार एवं हिमालय-ब्रह्मपुत्र-गंगा जियोडायनामिक्स
⇒ शिलांग पठार का भू-आकृतिक विकास केवल स्थानीय नहीं है।
⇒ हिमालय के उत्थान और ब्रह्मपुत्र घाटी के निर्माण से इसका सीधा संबंध है।
⇒ इंडो-बर्मा पर्वत शृंखला से भी इसका जियो-टेक्टोनिक संबंध है।
⇒ ब्रह्मपुत्र घाटी का अवसादन और डौकी भ्रंश से बंगाल बेसिन की रचना, पठार की आकृति निर्धारण में निर्णायक रहे।
⇒ भारतीय प्लेट का उत्तर की ओर बढ़ना (लगभग 5 सेमी/वर्ष) हिमालय को निरंतर ऊँचा कर रहा है।
⇒ शिलांग पठार इसका क्रस्टल ब्लॉक है, जो भ्रंशों के बीच फँसकर ऊपर उठा है।
⇒ गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन इन उत्थानों से निकले अवसादों का विशाल भंडार है।
⇒ पूरा क्षेत्र विश्व के सबसे सक्रिय टेक्टोनिक एवं सेस्मिक जोन में आता है।
जलवायु का प्रभाव
⇒ शिलांग पठार विश्व के सर्वाधिक वर्षावन क्षेत्रों में आता है।
⇒ मासिनराम और चेरापूंजी में 12,000 मिमी से अधिक वर्षा होती है।
⇒ भारी वर्षा के कारण तीव्र अपरदन, गहरी घाटियाँ और उर्वर मिट्टी का क्षरण हुआ।
⇒ मानसूनी जलप्रपात इस क्षेत्र की विशिष्ट पहचान हैं।
भू-आकृतिक विशेषताएँ (Major Landforms)
1. घाटियाँ और नदी नेटवर्क- उम्गोट, कपिली, उमियम जैसी नदियों की गहरी घाटियाँ।
2. जलोढ़ मैदान- नदी घाटियों में सीमित जलोढ़ निक्षेप।
3. कार्स्ट स्थलरूप- जयंतिया हिल्स में गुफाएँ और कार्स्ट क्षेत्र।
4. झरने एवं जलप्रपात- Nohkalikai, Seven Sisters, Elephant Falls।
5. टेबललैंड और पहाड़ी ढाल- गारो, खासी और जयंतिया की पहाड़ियों का विभाजन।
मानव-भू-आकृतिक अंतःक्रिया
⇒ यहाँ के खासी, गारो एवं जयंतिया जनजातियों ने सीढ़ीदार खेती (Terrace Farming) विकसित की।
⇒ कोयला, चूना पत्थर, यूरेनियम जैसी खनिज संपदा का खनन भू-आकृतिक असंतुलन पैदा कर रहा है।
⇒ पर्यटन (झरने, गुफाएँ) स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण है।
वर्तमान समस्याएँ और भू-आकृतिक संकट
⇒ भूमि कटाव और मिट्टी का क्षरण
⇒ भूस्खलन और बाढ़
⇒ खनन से स्थलरूपों का विनाश
⇒ जलवायु परिवर्तन का प्रभाव- झरनों के जल प्रवाह में कमी
निष्कर्ष
शिलांग पठार का भू-आकृतिक विकास प्राचीन आर्कियन काल से आरंभ होकर आज तक चलता आ रहा है। विवर्तनिक उत्थान, भ्रंश गतिविधि, भारी वर्षा और अपरदन प्रक्रियाओं ने इसे विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया। इसका भू-आकृतिक महत्व केवल स्थानीय नहीं बल्कि हिमालय, ब्रह्मपुत्र घाटी और बंगाल बेसिन के जियोडायनामिक्स से जुड़ा है।
मानव गतिविधियाँ (खनन, भूमि उपयोग परिवर्तन) इसके प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित कर रही हैं। भविष्य में यहाँ सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण की नीतियों की आवश्यकता है ताकि इस भू-आकृतिक धरोहर को संरक्षित रखा जा सके।