Unique Geography Notes हिंदी में

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GEOMORPHOLOGY (भू-आकृति विज्ञान)

41. Morphometric Analysis of Drainage basin- Stream Order, Sinuosity Index and Drainage Density (अपवाह द्रोणी का आकारमिति विश्लेषण- धारा क्रम, सिनुओसिटी इंडेक्स एवं अपवाह घनत्व)

Morphometric Analysis of Drainage basin- Stream Order, Sinuosity Index and Drainage Density

(अपवाह द्रोणी का आकारमिति विश्लेषण- धारा क्रम, सिनुओसिटी इंडेक्स एवं अपवाह घनत्व)



Stream Order (धारा क्रम)

परिचय

   भू-आकृतिक (Geomorphic) अध्ययन में किसी क्षेत्र की सतही जल निकासी प्रणाली (Drainage System) का विश्लेषण अत्यंत महत्वपूर्ण है। जलधारा या नदी का विकास भू-आकृति विज्ञान का मूल आधार है, क्योंकि यह न केवल स्थलाकृति को आकार देती है बल्कि भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाओं को भी प्रभावित करती है।

   किसी भी नदी या जलधारा का संगठन, संरचना और स्वरूप, उसके ड्रैनेज बेसिन तथा उसके अंतर्गत आने वाले स्ट्रीम ऑर्डर पर निर्भर करता है।

⇒ मोर्फोमेट्रिक विश्लेषण का आशय है- ड्रैनेज बेसिन और उसकी धाराओं की आकृति, आयाम एवं मापन संबंधी पहलुओं का अध्ययन।

इसमें प्रमुख मापदंडों में-

(i) स्ट्रीम ऑर्डर (Stream Order),

(ii) स्ट्रीम संख्या (Stream Number),

(iii) स्ट्रीम लंबाई (Stream Length),

(iv) ड्रैनेज घनत्व (Drainage Density),

(v) सिनुओसिटी इंडेक्स (Sinuosity Index),

(vi) सर्कुलैरिटी रेशियो (Circulatory Ratio),

(vii) एलॉन्गेशन रेशियो (Elongation Ratio),

(viii) बिफरकेशन रेशियो (Bifurcation Ratio) आदि शामिल हैं।

       इनमें से स्ट्रीम ऑर्डर को मूल आधार माना जाता है, क्योंकि यह किसी भी नदी तंत्र की संरचना और विकास को समझने का पहला कदम है।

परिभाषा-

    ड्रैनेज बेसिन को सामान्यतः जलागम क्षेत्र कहा जाता है। यह स्थल की वह इकाई है जहाँ गिरने वाली समस्त वर्षा किसी न किसी नदी, धारा या झील के माध्यम से एक ही निकासी बिंदु की ओर प्रवाहित होती है। अर्थात् “किसी विशेष नदी या धारा को पोषित करने वाला सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र, जिसमें वर्षा जल का संग्रहण और निकास एक ही आउटलेट से होता है, ड्रैनेज बेसिन कहलाता है।”

स्ट्रीम ऑर्डर निर्धारित करने की विधियाँ

1. हॉर्टन विधि (Horton’s Method, 1945)

      हॉर्टन की धारा क्रम (Stream Order) विधियाँ धारा नेटवर्क का विश्लेषण करने के तरीके हैं, जिनमें धाराओं को उनके आकार के अनुसार क्रमबद्ध किया जाता है, हालाँकि इस विधि को स्ट्राहलर विधि ने संशोधित किया है जो धारा क्रम निर्धारण का सबसे आम तरीका है।

     हॉर्टन की विधि का उपयोग करने के लिए, सबसे छोटी और सबसे बाहरी धाराओं को प्रथम-क्रम (Order 1) माना जाता है। जैसे-जैसे ये धाराएँ मिलती हैं, उनका क्रम बढ़ता है। जब दो प्रथम-क्रम की धाराएँ मिलती हैं, तो वे एक द्वितीय-क्रम की धारा बनाती हैं; और जब दो द्वितीय-क्रम की धाराएँ मिलती हैं, तो वे एक तृतीय-क्रम की धारा बनाती हैं। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक उच्चतम क्रम वाली धारा तक नहीं पहुँच जाते।

⇒ सबसे छोटी और उद्गम पर स्थित धाराओं को पहले क्रम (1st Order) की धारा माना।

⇒ दो पहले क्रम की धाराओं के मिलने पर दूसरे क्रम (2nd Order) की धारा बनती है।

⇒ इसी प्रकार क्रम बढ़ते जाते हैं।

2. स्ट्राहलर विधि (Strahler Method, 1952-57)

      स्ट्रीम ऑर्डर निर्धारित करने की सबसे आम और उपयोगी विधि स्ट्राहलर विधि है, जिसमें सबसे छोटी, बिना सहायक नदियों वाली धाराओं को प्रथम-क्रम की धारा माना जाता है, जब दो प्रथम-क्रम की धाराएँ मिलती हैं, तो वे एक द्वितीय-क्रम की धारा बनाती हैं, और इसी तरह समान क्रम की धाराओं के मिलने पर क्रम बढ़ता रहता है। यदि अलग-अलग क्रम की धाराएँ मिलती हैं, तो उच्चतम क्रम वाली धारा का ही क्रम बना रहता है। इसके नियम इस प्रकार हैं-

⇒ सभी सबसे छोटी और उद्गम धाराओं को पहला क्रम (1st Order) माना जाता है।

⇒ जब दो समान क्रम की धाराएँ मिलती हैं तो उनका क्रम एक बढ़ जाता है

उदाहरण:- 1st + 1st → 2nd Order

⇒ यदि असमान क्रम की धाराएँ मिलती हैं, तो उच्च क्रम को ही बरकरार रखा जाता है।

उदाहरण:- 2nd + 1st → 2nd Order

⇒ मुख्य धारा का क्रम उसके अंतिम संगम तक बढ़ता जाता है।

3. श्रेव  विधि (Shreve Method, 1966)

     श्रेव प्रणाली भी सबसे बाहरी सहायक नदियों को “1” संख्या देती है। स्ट्राहलर विधि के विपरीत, संगम पर दोनों संख्याओं को जोड़ दिया जाता है।

⇒ इसमें सभी उद्गम धाराओं को मान 1 दिया जाता है।

⇒ जैसे-जैसे धाराएँ मिलती हैं, उनके मान जोड़ दिए जाते हैं

⇒ इससे स्ट्रीम ऑर्डर का आकलन अधिक संख्यात्मक और सटीक माना जाता है।

स्ट्रीम ऑर्डर का महत्व

(i) नदी तंत्र का संगठन- यह बताता है कि किसी ड्रैनेज बेसिन में कितनी श्रेणियों की धाराएँ हैं और उनका आपसी संबंध कैसा है।

(ii) हाइड्रोलॉजी और प्रवाह विश्लेषण- जल प्रवाह, बाढ़ की तीव्रता और अवसादन (Sedimentation) के आकलन में सहायक।

(iii) जियोमॉर्फिक अध्ययन- स्थलाकृति के विकास, अपरदन चक्र, भू-आकृतिक चरण की पहचान में सहायक।

(iv) प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन- जल संसाधन योजना, सिंचाई, बांध निर्माण और वाटरशेड प्रबंधन में आवश्यक।

(v) पर्यावरणीय अध्ययन- भूमि उपयोग, मृदा संरक्षण और पारिस्थितिकी में ड्रैनेज पैटर्न की समझ आवश्यक है।

स्ट्रीम ऑर्डर और अन्य मोर्फोमेट्रिक पैरामीटर

1. स्ट्रीम संख्या (Stream Number, Nu)

⇒ किसी बेसिन में प्रत्येक क्रम की धाराओं की कुल संख्या को दर्शाता है।

⇒ Horton (1945) ने बताया कि जैसे-जैसे क्रम बढ़ता है, धाराओं की संख्या घटती जाती है।

2. स्ट्रीम लंबाई (Stream Length, Lu)

⇒ प्रत्येक क्रम की धाराओं की औसत लंबाई मापी जाती है।

  • Strahler (1964) ने पाया कि उच्च क्रम की धाराएँ लंबी होती हैं।

3. बिफरकेशन रेशियो (Bifurcation Ratio, Rb)

⇒ यह अनुपात दर्शाता है कि एक क्रम की धाराएँ अगले क्रम में कितनी बार विभाजित होती हैं।

⇒ यह बेसिन की संरचना और भूगर्भीय नियंत्रण को प्रदर्शित करता है।

4. ड्रैनेज डेंसिटी (Drainage Density, Dd)

⇒ कुल धारा की लंबाई को बेसिन क्षेत्रफल से विभाजित करने पर प्राप्त मान।

⇒ यह बेसिन की जल निकासी क्षमता और भूपर्पटी की पारगम्यता दर्शाता है।

5. स्ट्रीम फ्रीक्वेंसी (Stream Frequency, Fs)

⇒ प्रति इकाई क्षेत्र में धाराओं की संख्या।

⇒ अधिक मान होने का अर्थ है- अधिक अपवाह, कम अवशोषण।

स्ट्रीम ऑर्डर का व्यावहारिक अनुप्रयोग

(i) बाढ़ क्षेत्रों की पहचान:

⇒  स्ट्रीम ऑर्डर का उपयोग करके, वैज्ञानिक संभावित बाढ़ वाले क्षेत्रों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।

(ii) तलछट अध्ययन: 

⇒ स्ट्रीम नेटवर्क का विश्लेषण करके, वैज्ञानिक किसी क्षेत्र में तलछट की मात्रा का अधिक आसानी से अध्ययन कर सकते हैं। 

(iii) मछली आवास का मूल्यांकन: 

स्ट्रीम वर्गीकरण मछली आवास की क्षमता को दर्शाता है, जो जलीय जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।

(iv) पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य का आकलन:

 वैज्ञानिक नदी के व्यवहार और समग्र पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को समझने के लिए स्ट्रीम ऑर्डर का उपयोग करते हैं।

(v) कार्बनिक पदार्थों की गतिशीलता: 

⇒ स्ट्रीम ऑर्डर कार्बनिक पदार्थों और ऊर्जा स्रोतों की गतिशीलता को समझने में मदद करता है, जो पारिस्थितिकी तंत्र की निरंतरता के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

(vi) संसाधन योजना:

स्ट्रीम ऑर्डर प्राकृतिक संसाधनों के रूप में जलमार्गों का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने में मदद करता है।

(vii) जल प्रबंधन में सुधार: 

⇒ यह जल प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण घटक है, जिससे वैज्ञानिक और जल प्रबंधक नेटवर्क के भीतर विशिष्ट जलमार्गों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। 

(viii) भू-आकृतियों का विश्लेषण: 

यह नदी नेटवर्क की संरचना और आकार में बदलाव को समझने में भी सहायता करता है, जो भूगोलविदों के लिए उपयोगी है।

(ix) डिजिटल एलिवेशन मॉडल (DEM) का उपयोग:

स्ट्रीम ऑर्डर टूल का उपयोग डिजिटल एलिवेशन मॉडल से चैनल नेटवर्क निकालने के लिए किया जाता है, जो भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझने में सहायक होता है। 

(x) मृदा एवं जल संरक्षण

⇒ प्रथम और द्वितीय क्रम की धाराएँ अधिक अपरदन करती हैं, अतः मृदा संरक्षण के लिए इन क्षेत्रों की पहचान आवश्यक है।

केस स्टडी (Case Study Example)

    मान लीजिए किसी बेसिन का आँकड़ा इस प्रकार है-

क्रम धाराओं की संख्या औसत लंबाई (किमी)
1st 120 0.9
2nd 60 2.0
3rd 25 4.5
4th 10 8.2
5th 2 15.0

⇒ इससे स्पष्ट है कि जैसे-जैसे क्रम बढ़ा, संख्या घटी और लंबाई बढ़ी।
⇒ Horton’s Law की पुष्टि होती है।

निष्कर्ष:

   स्ट्रीम ऑर्डर ड्रैनेज बेसिन के मोर्फोमेट्रिक विश्लेषण का मूलभूत आधार है। यह न केवल किसी नदी तंत्र के संगठन एवं विकास को समझने में सहायक है, बल्कि जल संसाधन प्रबंधन, बाढ़ नियंत्रण, मृदा संरक्षण और पर्यावरणीय योजना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

    Horton और Strahler द्वारा दी गई पद्धतियाँ आज भी सर्वाधिक प्रचलित हैं और इनके माध्यम से भू-आकृतिक अध्ययन अधिक वैज्ञानिक एवं सटीक बनते हैं।



Sinuosity Index (सिनुओसिटी इंडेक्स)

परिचय

        सिनुओसिटी इंडेक्स (Sinuosity Index) एक अनुपात है जो नदी के वास्तविक घुमावदार मार्ग की लंबाई और उसके शुरुआती और अंतिम बिंदुओं के बीच सीधी रेखा की दूरी की तुलना करता है। यह दर्शाता है कि नदी अपने सीधे मार्ग से कितनी दूर भटकती है और नदी के प्रवाह के घुमावदारपन (घुमावदार) की डिग्री को मापता है।

      सिनुओसिटी इंडेक्स का मान 1 से शुरू होकर अनंत तक जा सकता है; 1 का मान एक बिल्कुल सीधी नदी को दर्शाता है, जबकि एक उच्च मान अत्यधिक घुमावदार प्रवाह को इंगित करता है।

    अर्थात सिनुओसिटी इंडेक्स (Sinuosity Index) किसी नदी की वास्तविक लंबाई (Channel Length) और उसके स्रोत से मुहाने तक खींची गई सीधी रेखा (Valley Length ) के अनुपात को दर्शाता है। इस सूचकांक से यह मापा जाता है कि नदी कितनी वक्राकार है या कितनी सीधी है।

परिभाषा (Definition)

    सिनुओसिटी इंडेक्स वह मानक है जिसके द्वारा नदी चैनल की वास्तविक लंबाई को उसकी घाटी लंबाई से विभाजित करके निकाला जाता है।

सूत्र (Formula):

जहाँ –

= Sinuosity Index

Lc = Channel Length (नदी की वास्तविक लंबाई)

Lv = Valley Length या Air Length (स्रोत से मुहाने तक सीधी रेखा की दूरी)

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background)

⇒ सबसे पहले Leopold और Wolman (1957) ने नदियों के मेअंडर और वक्रता का वैज्ञानिक अध्ययन किया।

⇒ Schumm (1963) ने नदियों के प्रकार (Straight, Sinuous, Meandering, Braided) को वर्गीकृत करने के लिए Sinuosity Index का उपयोग किया।

⇒ इसके बाद से यह सूचकांक जलोढ़ मैदानों, पथरीली घाटियों और तटीय क्षेत्रों की नदियों के अध्ययन में व्यापक रूप से अपनाया जाने लगा।

सिनुओसिटी के प्रकार (Types of Sinuosity)

        सिनुओसिटी इंडेक्स के मान के आधार पर नदियों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जाता है- 

(i) सीधी नदियाँ (Straight Rivers):

  • S ≤ 1.05
  • नदी लगभग सीधी रेखा में बहती है।
  • प्रायः तीव्र ढाल वाले पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं।

(ii) सिनुअस नदियाँ (Sinuous Rivers):

  • 1.05 < S < 1.50
  • इनमें हल्की वक्रता होती है।
  • प्रायः मध्य प्रवाह क्षेत्रों (middle course) में विकसित।

मियंडरिंग नदियाँ (Meandering Rivers):

  • S ≥ 1.50
  • इनमें बड़े-बड़े मोड़ और घुमाव पाए जाते हैं।
  • प्रायः मैदान क्षेत्रों (lower course) में मिलती हैं।

गणना विधि (Method of Calculation)

  1. नदी का मानचित्र (टोपोशीट, सैटेलाइट इमेज या GIS डाटा) लिया जाता है।
  2. नदी के स्रोत से मुहाने तक की वास्तविक लंबाई Lc मापी जाती है।

  3. उसी स्रोत और मुहाने के बीच सीधी रेखा खींची जाती है।

  4. उपरोक्त सूत्र के आधार पर S का मान निकाला जाता है।

  5. परिणाम को तालिका एवं ग्राफ में प्रदर्शित कर नदी की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया जाता है।

सिनुओसिटी को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Sinuosity)

(i) भूगर्भीय संरचना (Geological Structure):

⇒ कठोर चट्टानों वाली घाटियों में नदियाँ अपेक्षाकृत सीधी रहती हैं।

⇒ शैल संरचना में भंगाल और भ्रंश (faults) होने पर मोड़ अधिक आते हैं।

(ii) ढाल (Gradient):

⇒ तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में नदी सीधी रहती है।

⇒ कम ढाल वाले मैदान क्षेत्रों में नदी अधिक मेअंडर करती है।

(iii) जलविज्ञान (Hydrology):

⇒ प्रवाह की गति और जल की मात्रा भी वक्रता को प्रभावित करती है।

(iv) अवसादन (Sedimentation):

⇒ अधिक अवसादन वाली नदियाँ नए-नए चैनल बनाकर अधिक घुमावदार हो जाती हैं।

(v) वनस्पति एवं जलवायु (Vegetation & Climate):

⇒ अधिक वर्षा और सघन वनस्पति वाले क्षेत्रों में नदी का मार्ग अधिक नियंत्रित रहता है।

सिनुओसिटी इंडेक्स का महत्व (Significance of Sinuosity Index)

(i) नदी वर्गीकरण (River Classification): इससे नदियों को सीधी, सिनुअस और मेअंडरिंग में बाँटा जा सकता है।

(ii) बाढ़ अध्ययन (Flood Analysis): अधिक सिनुओस नदियाँ बाढ़ प्रवण होती हैं।

(iii) अपक्षय और निक्षेपण (Erosion & Deposition): मोड़दार नदियों में अपरदन और निक्षेपण की दर अधिक रहती है।

(iv) भू-आकृतिक विकास (Geomorphic Evolution): किसी क्षेत्र की भू-आकृति के विकास क्रम को समझने में सहायक।

(v) इंजीनियरिंग परियोजनाएँ (Engineering Projects): बाँध, पुल और नहर योजना बनाने में आवश्यक।

(vi) पर्यावरणीय अध्ययन (Environmental Studies): नदी पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव का विश्लेषण।

अनुप्रयोग (Applications in Geomorphology and Hydrology)

(i) Geomorphic Mapping: GIS और Remote Sensing तकनीकों से नदियों के मेअंडरिंग पैटर्न का अध्ययन।

(ii) River Basin Management: सिंचाई, जल प्रबंधन और हाइड्रोपावर परियोजनाओं में योजना निर्माण।

(iii) Climate Change Studies: समय के साथ सिनुओसिटी इंडेक्स में परिवर्तन जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाता है।

(iv) Hazard Mitigation: बाढ़ एवं तटीय कटाव के प्रबंधन में उपयोगी।

(v) Historical River Courses: प्राचीन नदी पथों की पहचान करने में सहायक।

अध्ययन क्षेत्र उदाहरण (Case Studies)

1. गंगा नदी (Gangetic Plains):

⇒ गंगा मैदान में सिनुओसिटी इंडेक्स 1.5 से अधिक पाया गया है।

⇒ यहाँ बड़े पैमाने पर मेअंडर और ऑक्स-बो झीलें मिलती हैं।

2. ब्रहमपुत्र नदी (Brahmaputra):

⇒ उच्च अवसादन और चौड़े मैदान के कारण इसकी सिनुओसिटी उच्च है।

3. नर्मदा और ताप्ती नदियाँ:

⇒ भ्रंश रेखाओं के कारण सीधी प्रवृत्ति अधिक।

⇒ सिनुओसिटी इंडेक्स अपेक्षाकृत कम।

सीमाएँ (Limitations of Sinuosity Index)

⇒ केवल लंबाई माप पर आधारित होने से यह सूचकांक नदी की त्रि-आयामी जटिलताओं को नहीं दर्शा पाता।

⇒ मौसमी और बाढ़जन्य परिवर्तनों से इंडेक्स में समय-समय पर अंतर आ सकता है।

⇒ मानवीय हस्तक्षेप (जैसे तटबंध, नहरें) नदी की प्राकृतिक सिनुओसिटी को प्रभावित करते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)

    सिनुओसिटी इंडेक्स नदी विज्ञान (Fluvial Geomorphology) का एक महत्वपूर्ण मात्रात्मक सूचकांक है जो नदी की वक्रता अथवा मेअंडरिंग की प्रवृत्ति को मापने में सहायक है।

    इसके माध्यम से किसी नदी की प्रवाह गतिशीलता, अवसादन की स्थिति, बाढ़ की प्रवृत्ति और भू-आकृतिक विकास की दिशा का आकलन किया जा सकता है। यद्यपि इसमें कुछ सीमाएँ हैं, फिर भी यह भूगोल, पर्यावरण विज्ञान, जल संसाधन प्रबंधन और इंजीनियरिंग के लिए एक अनिवार्य उपकरण है।



Drainage Density (अपवाह घनत्व)

परिचय

      अपवाह घनत्व (Drainage Density) एक मापक है जो किसी जल निकासी बेसिन (drainage basin) के कुल क्षेत्रफल में सभी धाराओं और नदियों की कुल लंबाई के अनुपात को दर्शाता है। इसकी गणना करने के लिए, बेसिन में सभी धाराओं की कुल लंबाई को बेसिन के कुल क्षेत्रफल से विभाजित किया जाता है। उच्च अपवाह घनत्व का अर्थ है अधिक धाराएँ जो तेज़ी से वर्षा जल को बाहर निकालती हैं, जिससे उच्च शिखर प्रवाह होता है। 

    जल-अपवाह प्रणाली (Drainage System) किसी भी भू-भाग के भौतिक स्वरूप, जलवायु, शैल संरचना तथा समय के सामूहिक प्रभाव का परिणाम होती है। किसी नदी-घाटी या जलागम क्षेत्र (Drainage Basin) का वैज्ञानिक अध्ययन मॉर्फोमेट्रिक विश्लेषण कहलाता है। इसमें नदी नेटवर्क के स्वरूप, संरचना और मापदंडों को संख्यात्मक रूप से परखा जाता है।

      इनमें से अपवाह घनत्व (Drainage Density- Dd) एक प्रमुख मानक है, जो किसी जलागम क्षेत्र की सतह पर उपस्थित नदियों एवं नालों की लम्बाई और उनके क्षेत्रफल के अनुपात को दर्शाता है। यह सूचकांक भूमि की अपवाह प्रवृत्ति, सतही जल प्रवाह, अपरदन क्षमता तथा भू-आकृतिक विकास की दिशा को स्पष्ट करता है।

परिभाषा-

⇒ अपवाह घनत्व को सबसे पहले Horton (1945) ने परिभाषित किया।

“किसी जलागम क्षेत्र में उपस्थित सभी धाराओं (streams) की कुल लम्बाई और उस जलागम क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल का अनुपात ही अपवाह घनत्व कहलाता है।”

सूत्र:

जहाँ- 

⇒ Dd = अपवाह घनत्व

⇒ Lu = क्षेत्र में सभी धाराओं की कुल लम्बाई

⇒ A = जलागम क्षेत्र का क्षेत्रफल

माप की इकाई – km/km² या m/m²

अपवाह घनत्व की अवधारणा

⇒ यदि किसी क्षेत्र में धाराओं का जाल अधिक सघन है, तो वहाँ अपवाह घनत्व अधिक होगा।

⇒ यदि धाराएँ विरल हैं, तो अपवाह घनत्व कम होगा।

⇒ यह न केवल धाराओं की संख्या पर निर्भर करता है बल्कि उनकी औसत लम्बाई और भू-आकृतिक परिस्थिति पर भी आधारित है।

अपवाह घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक

अपवाह घनत्व अनेक प्राकृतिक और मानव-निर्मित कारकों पर निर्भर करता है। प्रमुख कारक निम्न हैं –

(i) जलवायु (Climate)

⇒ शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में वर्षा कम होने से अपवाह घनत्व अधिक होता है क्योंकि जल सतह पर अधिक समय नहीं टिकता।

⇒ आर्द्र क्षेत्रों में अधिक वर्षा और वनस्पति आवरण के कारण जल का भूमिगत रिसाव अधिक होता है, जिससे अपवाह घनत्व अपेक्षाकृत कम होता है।

(ii) शैल संरचना (Rock Structure)

⇒ अभेद्य शैलों (impermeable rocks) जैसे ग्रेनाइट, बेसाल्ट आदि क्षेत्रों में अपवाह घनत्व उच्च होता है।

⇒ जबकि छिद्रयुक्त और भंगुर शैलों (permeable rocks) जैसे बलुआ पत्थर, चूना पत्थर में जल का अवशोषण अधिक होने से अपवाह घनत्व कम होता है।

(iii) स्थलाकृति (Relief)

⇒ उच्च ढाल (high relief) वाले क्षेत्रों में जल तीव्र गति से बहता है, जिससे नदियों का नेटवर्क घना होता है और Dd अधिक होता है।

⇒ समतल क्षेत्रों में ढाल कम होने से नदियों का विकास धीमा होता है, जिससे Dd कम होता है।

(iv) मृदा एवं वनस्पति आवरण (Soil & Vegetation)

⇒ रेतीली व भुरभुरी मिट्टी में जल अवशोषण अधिक होने से अपवाह घनत्व कम।

⇒ चिकनी मिट्टी या शिल्ट वाले क्षेत्रों में अपवाह घनत्व अधिक।

⇒ घने वनस्पति आवरण वाले क्षेत्र में जल भूमिगत चला जाता है, जिससे अपवाह घनत्व घटता है।

(v) समय (Time Factor)

⇒ नवनिर्मित पर्वतीय क्षेत्रों (Youth stage) में अपवाह घनत्व अधिक।

⇒ प्रौढ़ और वृद्धावस्था वाली नदियों के मैदान क्षेत्रों में अपवाह घनत्व कम।

अपवाह घनत्व के मापन की विधि

(i) स्थलाकृतिक मानचित्र पर आधारित मापन

⇒ संबंधित जलागम क्षेत्र की सीमा निर्धारण।

⇒ सभी धाराओं की पहचान कर उनकी लम्बाई मापना।

⇒ कुल क्षेत्रफल निकालना।

⇒ सूत्र का प्रयोग कर अपवाह घनत्व ज्ञात करना।

(ii) जीआईएस एवं रिमोट सेंसिंग आधारित तकनीक

आज के समय में उपग्रह चित्रों, DEM (Digital Elevation Model) तथा GIS सॉफ्टवेयर के प्रयोग से Drainage Density का सटीक मापन किया जाता है।

अपवाह घनत्व का वर्गीकरण

        हॉर्टन एवं स्ट्राहलर के आधार पर 

⇒ अल्प अपवाह घनत्व (Low Dd): 2 km/km² से कम

⇒ मध्यम अपवाह घनत्व (Moderate Dd): 2 – 5 km/km²

⇒ उच्च अपवाह घनत्व (High Dd): 5 km/km² से अधिक

अपवाह घनत्व का महत्व

(i) जलविज्ञानिक महत्व

⇒ सतही अपवाह की दर ज्ञात होती है।

⇒ बाढ़ की संभावना का आकलन किया जा सकता है।

⇒ जल संसाधन प्रबंधन की योजना में सहायक।

(ii) भू-आकृतिक महत्व

⇒ स्थलाकृति विकास की अवस्था का अनुमान।

⇒ अपरदन एवं निक्षेपण की दर का पता चलता है।

⇒ शैल संरचना एवं ढाल का प्रभाव ज्ञात होता है।

(iii) पर्यावरणीय महत्व

⇒ मृदा अपरदन व भूमि अवनयन का अध्ययन।

⇒ वनस्पति संरक्षण और भूमि उपयोग की योजना।

विश्व एवं भारत के संदर्भ में

⇒ रेगिस्तानी क्षेत्र (राजस्थान, सहारा, अटाकामा): शुष्कता व अभेद्य सतह के कारण उच्च अपवाह घनत्व।

हिमालयी क्षेत्र: तीव्र ढाल एवं अपरदन के कारण उच्च Dd।

⇒ गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान: समतल स्थलाकृति व छिद्रयुक्त निक्षेप के कारण निम्न Dd।

⇒ दक्षिण भारत का दक्कन ट्रैप: बेसाल्टिक संरचना के कारण मध्यम से उच्च Dd।

अपवाह घनत्व और जलागम प्रबंधन

⇒ उच्च Dd वाले क्षेत्रों में वर्षा का जल शीघ्र बह जाता है, अतः वहाँ जल-संरक्षण तकनीक आवश्यक।

⇒ निम्न Dd वाले क्षेत्रों में भू-जल पुनर्भरण संरचनाएँ उपयुक्त।

⇒ यह सूचकांक सिंचाई, जलविद्युत एवं बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं के लिए आधार बनता है।

आलोचनात्मक मूल्यांकन

⇒ अपवाह घनत्व एक मात्रात्मक सूचकांक है, परंतु यह अकेले किसी क्षेत्र की सम्पूर्ण जलविज्ञानिक स्थिति नहीं बताता।

⇒ इसे अन्य मॉर्फोमेट्रिक मानकों (जैसे Stream Frequency, Bifurcation Ratio, Elongation Ratio) के साथ मिलाकर देखना आवश्यक है।

⇒ आधुनिक युग में GIS आधारित अध्ययन इसे अधिक सटीक एवं व्यावहारिक बनाते हैं।

निष्कर्ष

   अपवाह घनत्व किसी भी जलागम क्षेत्र के भौतिक-भूगर्भिक स्वरूप, वर्षा, शैल संरचना एवं अपरदन क्षमता का दर्पण है। यह नदी-तंत्र की प्रकृति और क्षेत्र की जलविज्ञानिक विशेषताओं को मापने का सर्वाधिक सरल एवं प्रभावी साधन है। 

    उच्च और निम्न अपवाह घनत्व का तुलनात्मक अध्ययन हमें न केवल क्षेत्रीय भू-आकृतिक विकास की जानकारी देता है, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में भी सहायक होता है।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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