12. राज्यों की उत्पत्ति के सिद्धान्तों का विवरण
12. राज्यों की उत्पत्ति के सिद्धान्तों का विवरण
रक्त सम्बन्ध से समाज बनता है और समाज से अन्ततः राज्य बनता है। मानव अपने जन्म से ही समुदाय में रहता आया है और इसमें अपने साथियों से सामूहिक प्रगति तथा कल्याण के लिए भौतिक लाभ प्राप्त करता है। राज्यों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक धारणाएँ एवं विचार बने। इन्हें दो वर्गों में से रखा गया है:-
(1) परिकलित सिद्धान्त एवं
(2) ऐतिहासिक सिद्धान्त।
सामान्य तौर पर राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्त निम्नांकित हैं:
(1) दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त (Theory of Divine Origin):-
यह सबसे प्राचीन सिद्धान्त है। इसके अनुसार राज्य मानवीय नहीं अपितु ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है। ईश्वर राजा के रूप में अपने किसी प्रतिनिधि को नियुक्त करता है। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है अतः वह ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी है।
राजा की आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का परम कर्तव्य है। यहूदी धर्म ग्रन्थ के अनुसार स्वयं ईश्वर ने अपनी जनता पर राज किया, मिस्र में राजा को सूर्यदेव का पुत्र कहा गया, चीन में सम्राट को स्वर्ग पुत्र माना गया, बाइबिल के अनुसार सत्ता ईश्वर के आदेश से बनी।
राज्य विकास में यह सिद्धान्त मनुष्य के योगदान की उपेक्षा करता है जबकि राज्य के विभिन्न स्वरूप का परिवर्तन मानवीय लक्षण है, ईश्वरीय नहीं।
आज के वैज्ञानिक और प्रगतिशील विश्व ने राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त को अस्वीकार कर दिया, जबकि प्रारम्भिक समय में यह सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी रहा।
गिलक्राइस्ट के शब्दों में “यह सिद्धान्त चाहे कितना ही गलत और विवेकशून्य क्यों न हो, अराजकता के अन्त का श्रेय इसे अवश्य ही जाता है।”
(2) शक्ति सिद्धान्त (Force Theory):-
शक्ति सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का कारण शक्ति है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य और शासन शक्ति पर आश्रित हैं। जब शक्ति सम्पन्न लोगों ने अपनी शक्ति द्वारा निर्बलों को अपने अधीन कर लिया, तब राज्य की उत्पत्ति हुई। शक्ति सिद्धान्त के अनुसार मानव विकास के प्रारम्भ में कुछ शक्तिशाली मनुष्यों ने निर्बल मनुष्यों को अपने अधीन कर लिया।
शक्तिशाली समूह का नेता पराजित समूह का भी नेता बन गया। धीरे-धीरे वही नेता इन समूहों का शासक हो गया। इसी क्रम से जनपद, राज्य व साम्राज्य उत्पन्न हुए। सभी राज्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस सिद्धान्त का न्यूनाधिक समर्थन करते हैं। इससे निरंकुशता को प्रोत्साहन मिला है। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी शक्ति के आधार पर राजा की स्थापना की बात कही गई है।
जैसे-ऐतरेय ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में बताया गया है कि देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता पराजित हो गए तो उन्होंने शक्तिशाली इन्द्र को अपना राजा बनाया और उसके नेतृत्व में विजय प्राप्त की।
मध्य युग में भी राजा को पाशविक शक्ति का परिणाम बताया गया। पोप ग्रेगरी सप्तम के अनुसार, “राजाओं और सामन्तों की उत्पत्ति उन क्रूर आत्माओं से हुई है जो परमात्मा को भूलकर उद्दण्डता, लूटमार, कपट, हत्या और प्रत्येक अपराध से संसार के शासक के रूप में बुराई का प्रसार करते हुए अपने साथी मनुष्यों पर मदांधता और असहनीय धारणा के साथ राज्य करते रहे हैं।”
आधुनिक युग में ट्रीटस्के, बनहार्डी, मारगेंथो तथा नीत्शे आदि विचारकों ने भी शक्ति सिद्धान्त का समर्थन किया है।
यद्यपि यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण कारक है तथा राज्य के अस्तित्व के लिए शक्ति अनिवार्य है तथापि हमें स्वीकर करना पड़ेगा कि केवल शक्ति के प्रयोग से ही राज्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं हुई है। इसमें लोक कल्याण तथा जनमत की उपेक्षा की जाती है। फलतः राज्यास्था नहीं पनपती और राष्ट्रत्व के गुण उत्पन्न नहीं होते।
(3) सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त (Social Contract Theory):-
इस सिद्धान्त के अनुसार जब राज्य नहीं था तब प्राकृतिक अवस्था से समुदाय के लोग तंग आ गए और मिल जुलकर एक समझौता किया जिसके आधार पर राज्य का जन्म हुआ। इस सिद्धान्त का सूत्रपात 17वीं व 18वीं शताब्दी में हुआ और थॉमस हॉब्स, लॉक, जीन जेक्स रूसो इसके प्रबल समर्थक रहे। हॉब्स समझौते से पूर्व मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था को दुखद व असुरक्षित बताता है जबकि लॉक इस अवस्था को सुख, शान्ति व पारस्परिक आदर पर आधारित मानते हैं।
हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक अवस्था ‘शक्ति ही सत्य है’ की धारणा पर आधारित है।
हॉब्स के शब्दों में “वहाँ कोई व्यवस्था नहीं थी, कोई संस्कृति नहीं थी कोई विद्या नहीं थी कोई भवन निर्माण कला न थी और न कोई समाज था। मानव जीवन अत्यन्त दीन मलिन, पाशविक तथा अल्पकालिक था।” अतः मनुष्यों ने अपने जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा करके अपने दुखी जीवन से छुटकारा पाने के लिए परस्पर एक समझौता किया और एक राजनीतिक समाज का निर्माण हुआ।
लॉक के अनुसार प्राकृतिक दशा में मनुष्य सुख और शान्ति का जीवन व्यतीत करता था। वह उस समय के नियम, “तुम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा व्यवहार तुम दूसरों से अपने प्रति चाहते हो” का पालन करते थे। लॉक के अनुसार, इस प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक नियमों की स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी, इन नियमों की व्याख्या करने के लिए कोई सभा नहीं थी तथा इन नियमों का पालन करवाने वाली शक्ति का अभाव था।
अतः समझौता द्वारा राज्य का निर्माण किया गया। रूसो ने हॉब्स तथा लॉक के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित किया तथा बताया कि राज्य की उत्पत्ति की अवस्था मानव अधिकारों के उपयोग हेतु आदर्श थी, किन्तु कालान्तर में जनसंख्या वृद्धि के कारण मनुष्य को प्राकृतिक अवस्था से शिष्ट अवस्था की ओर अग्रसर होने को बाध्य होना पड़ा।
(4) आनुवंशिक सिद्धान्त (Genetic Theory):-
आनुवंशिक सिद्धान्त का समर्थन हेनरीमेन, मैकलेनन, जेक्स मोरगन आदि ने किया। दैवी शक्ति एवं सामाजिक समझौता सिद्धान्तों के विपरीत यह सिद्धान्त काल्पनिक तर्कों पर आधारित नहीं है, किन्तु इसका आधार आरम्भिक कबाइली जनसमूहों के जीवन से सम्बन्धित ऐतिहासिक खोजें या कल्पनाएँ हैं। इस सिद्धान्त के दो रूप हैं-
(1) मातृ सत्तात्मक एवं
(2) पितृ सत्तात्मक।
आरम्भिक परिवार मातृ सत्तात्मक थे तथा सत्ता भी उन्हीं के हाथ रहती थी। परिवार तथा कबीला सामाजिक जीवन की ऐसी प्रथम इकाइयाँ हैं जो मानव की सामाजिकता की प्राकृतिक प्रकृति के फलस्वरूप गठित होती हैं और उनकी व्यवस्था तथा संचालन प्रक्रिया में राज्य के संगठन तथा संचालन प्रक्रिया के लक्षण से विद्यमान रहते हैं। कालान्तर में जब ये जनसमूह विस्तृत हो गए तो निश्चित भूखण्डों में रहने लगे।
आरम्भिक परिवारों को मातृ सत्तात्मक मानने की कल्पना भले ही हो या न हो, परन्तु तर्क की दृष्टि से सही प्रतीत होती है। यह सम्भव है कि कालान्तर में इन परिवारों एवं कबीलों में स्थायी विवाह प्रथा प्रचलित हो गई होगी एवं परिवार बनने से परिवार के वृद्ध पुरुष को ही सत्ता सौंपी जाती थी।
हेनरीमेन के अनुसार, “प्रारम्भिक जनसमूह ऐसा परिवार है जो सर्वोच्च पुरुष पूर्वज के सामूहिक आधिपत्य के अधीन संयुक्त था। परिवारों के साथ योग से गोत्र या कुल बनता है। कुलों के योग से कबीला। कबीलों के योग से राज्य बनता है।”
(5) विकासवादी सिद्धान्त (Evolutionary Theory):-
राज्य का विकास धीरे-धीरे हुआ है। राज्य के विकास में निम्नांकित तत्व सहायक हैं:
(i) मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने की मूल प्रवृत्ति ने ही राज्य को जन्म दिया।
अरस्तू के शब्दों में “यदि कोई मनुष्य ऐसा हो जो समाज में न रह सकता हो अथवा जो यह कहता है कि मुझे केवल अपने ही साधनों की आवश्यकता है तो उसे मानव समाज का सदस्य मत समझो। वह या तो जंगली जानवर है या देवता।”
(ii) रक्त सम्बन्ध ने जातियों और कुलों को एकता के बन्धन में बांधा और उन्हें संगठन का रूप दिया तथा दृढ़ता प्रदान की। सामाजिक संगठन रक्त सम्बन्ध से ही उत्पन्न होता है।
(iii) धर्म ने समाज को एकता के बन्धन में बांधा है। प्रारम्भिक समाज में रक्त सम्बन्ध तथा धर्म एक ही वस्तु के दो पहलू थे। धर्म संगठन एवं एकता के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व रहा है। धर्म ने मनुष्य को अनुशासन तथा आज्ञापालन का पाठ पढ़ाया। इस प्रकार धर्म ने राज्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
(iv) राज्य के विकास में शक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक व्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था में बदलने का कार्य युद्ध द्वारा ही किया गया। युद्ध विजय और आज्ञापालन के फलस्वरूप कुटुम्ब जाति में, जाति कबीलों में तथा कबीले बड़े संगठनों में विस्तृत होते गए तथा राज्य का रूप धारण करते गए।
(v) राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्लेटो, मैकियावली, हॉब्स, लॉक, एडम स्मिथ और माण्टेस्क्यू ने भी राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में आर्थिक तत्वों के योगदान को स्वीकार किया है।
(vi) राज्य के विकास में योगदान देने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व राजनीतिक चेतना है।