3. Multidisciplinary Course (MDC-1) For Humanities
(Multidisciplinary Course (MDC-1) For Humanities)
Geomorphology (Theory)
Solved Questions Paper 2023
(Patliputra University Patna)
GROUP-A / समूह-अ
(Objective Type Questions)
( वस्तुनिष्ठ प्रश्न)
Note: All the questions are of equal value and are compulsory. Choose the correct answer from’ the given options.
[10×2=20]
सभी प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है तथा इनके मान समान हैं। दिये गये विकल्पों के आधार पर प्रश्नों का उत्तर दीजिए ।
1. (i) The closest planet to the Sun is:
(a) Venus
(b) Mercury
(c) Mars
(d) Earth
सूर्य का निकटम ग्रह है:
(a) शुक्र
(b) बुध
(c) मंगल
(d) पृथ्वी
उत्तर- (b) बुध
(ii) The origin of Earth is related to the origin of:
(a) Comet
(b) Nebula
(c) Solar system
(d) Stars
पृथ्वी की उत्पत्ति का सम्बन्ध ……की उत्पत्ति से है।
(a) धूमकेतु
(b) निहारिका
(c) सौर मण्डल
(d) तारे
उत्तर- (c) सौर मण्डल
(iii) A natural way of knowing about the internal structure of the Earth is:
(a) Density
(b) Volcano
(c) Pressure
(d) Temperature
पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में जानने का एक प्राकृतिक साधन है:
(a) घनत्व
(b) ज्वालामुखी
(c) दाब
(d) तापक्रम
उत्तर- (b) ज्वालामुखी
(iv) Igneous Rocks originated from:
(a) Fire
(b) Sun heat
(c) Ashes
(d) Magma
आग्नेय चट्टानों की उत्पत्ति हुई है:
(a) अग्नि से
(b) सूर्य ताप से
(c) राख से
(d) मैग्मा से
उत्तर- (d) मैग्मा से
(v) Granite is an example of:
(a) Sedimentary rock
(b) Igneous rock
(c) Metamorphic rock
(d) Residual rock
प्रेनाइट उदाहरण है।
(a) अवसादी चट्टान का
(b) आग्नेय चट्टान का
(c) कायान्तरित चट्टान का
(d) अवशिष्ट चट्टान का
उत्तर- (b) आग्नेय चट्टान का
(vi) The process of rusting of iron-rich r called:
(a) Carbonation
(b) Hydration
(c) Solution
(d) Oxidation
लौहयुक्त चट्टानों पर जंग लगने की क्रिया कहलाती है:
(a) कार्बोनेशन
(b) हाइड्रेशन
(c) विलयन
(d) ऑक्सीकरण
उत्तर- (d) ऑक्सीकरण
(vii) The most important factor of erosion on the Earth’s surface is:
(a) Ice
(b) Flowing water
(c) Wind
(d) Underground water
पृथ्वी की सतह पर सबसे महत्त्वपूर्ण अपरदन का कारक है:
(a) हिमानी
(b) प्रवाहित जल
(c) पवन
(d) भूमिगत जल
उत्तर- (b) प्रवाहित जल
(viii) How many main types of plate edges are there?
(a) 2
(b) 3
(c) 4
(d) 5
प्लेट किनारे मुख्यतः कितने प्रकार के है
(a) 2
(b) 3
(c) 4
(d) 5
उत्तर- (b) 3
(ix) Which scale is used to measure t of Earthquake?
(a) Reed scale
(b) Richter scale
(c) Holmes scale
(d) Vernier scale
भूकम्प की तीव्रता मापने के लिए किस मापक का प्रयोग करते हैं?
(a) रीड स्केल
(b) रिक्टर स्केल
(c) होम्स स्केल
(d) वर्नियर स्केल
उत्तर- (b) रिक्टर स्केल
(x) Volcanoes that remain quiet for long period of time and thereafter become are called:
(a) Active Volcano
(b) Waking Volcano
(c) Dormant Volcano
(d) Quiet Volcano
ऐसे ज्वालामुखी जो लम्बी अवधि तक शान्त रहने के बाद पुनः सक्रिय हो जाते हैं, कहलाते है:
(a) सक्रिय ज्वालामुखी
(b) जागृत ज्वालामुखी
(c) सुषुप्त ज्वालामुखी
(d) शान्त ज्वालामुखी
उत्तर- (c) सुषुप्त ज्वालामुखी
Group B / समूह-ब
(Short Answer Type Questions)
( लघु उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any four questions. Each question carries 5 marks. [4×5=20]
किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 5 अंक का है।
2. Discuss the Gaseous Hypothesis of Kant.
काण्ट द्वारा दी गयी वायव्य राशि परिकल्पना की चर्चा कीजिए।
3. Explain the importance of study of internal structure of Earth.
पृथ्वी की आंतरिक संरचना के अध्ययन के महत्व की व्याख्या कीजिए।
4. Discuss about the different types of Weathering.
अपक्षय के विभिन्न प्रकारों की चर्चा कीजिए।
5. Describe the characteristics of Divergent/Constructive Plate Margins.
अपसारी / रचनात्मक प्लेट किनारे की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
6. Give the definition of Earthquake.
भूकम्प की परिभाषा दीजिए।
7. Explain the effects of volcano on human activities.
ज्वालामुखी के मानवीय क्रियाकलापों पर होने वाले प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
Group-C / समूह-स
(Long Answer Type Questions)
(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any three questions. Each question carries 10 marks. [3×10 = 30]
किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 5 अंक का है।
8. Discuss the internal structure of Earth with suitable diagram.
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
9. Describe the solar system and any one theory regarding its origin
सौर मण्डल एवं उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिये गये किसी एक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
10. Explain the different types of rocks.
चट्टानों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
11. What is an Earthquake? Describe about the origin of Earthquake.
भूकम्प क्या है? भूकम्प की उत्पत्ति के कारणों की विवेचना कीजिए।
12. Describe the landforms made by volcanic activity with diagram.
ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
सभी लघु एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों का उत्तर सरल एवं आसान शब्दों में देना यहाँ सीखें
Group B / समूह-ब
(Short Answer Type Questions)
(लघु उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any four questions. Each question carries 5 marks. [4×5=20]
किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 5 अंक का है।
2. Discuss the Gaseous Hypothesis of Kant.
काण्ट द्वारा दी गयी वायव्य राशि परिकल्पना की चर्चा कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जर्मन दार्शनिक काण्ट ने सन् 1755 ई० में अपनी ”वायव्य राशि परिकल्पना” का प्रतिपादन किया जो कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर आधारित थी। प्रारम्भ में इस मत की सराहना हुई, परन्तु बाद में इसे तर्कहीन प्रमाणित कर दिया गया, क्योंकि यह मत गणित के गलत नियमों पर कल्पित किया गया था।
प्रस्तुत परिकल्पना काण्ट द्वारा कल्पित अनेक तथ्यों पर आधारित है। सर्वप्रथम काण्ट ने यह मान लिया कि प्राचीन काल में (अतीत काल में) ब्रह्माण्ड में दैवनिर्मित आद्य पदार्थ (Premordial matter) बिखरे हुए थे। प्रारम्भ में ये पदार्थ अत्यन्त कठोर, शीतल तथा गतिहीन थे।
पुनः काण्ट ने यह मान लिया कि आपसी आकर्षण के कारण ये कण (आद्य पदार्थ) एक-दूसरे से टकराने लगे। इस आपसी टकराव के कारण ताप तथा भ्रमण गति का आविर्भाव हुआ। ताप में निरन्तर वृद्धि होती गयीं, जिस कारण आद्य पदार्थ एक वायव्य राशि में परिवर्तित होने लगे। ताप तथा भ्रमण गति (Rotation) के परिणामस्वरूप प्रारम्भिक शीतल तथा गतिहीन वायव्य पदार्थ एक तप्त तथा गतिशील निहारिका (Nebula) में परिवर्तित हो गया। निहारिका ताप के आविर्भाव के साथ ही घूमने लगी, उसके आकार में वृद्धि होने लगी, जिस कारण ताप में वृद्धि से निहारिका की परिभ्रमण गति में भी वृद्धि होने लगी।
इस प्रकार निहारिका इतनी तीव्र गति से घूमने लगी कि केन्द्रापसारित बल (केन्द्र से बाहर की ओर जाने वाला बल-Centrifugal force) के प्रभाव से निहारिका के मध्य भाग में उभार आने लगा तथा इस क्रिया की तीव्रता के कारण (अर्थात् केन्द्रापसारितबल की तीव्रता के कारण) पदार्थ का एक छल्ला निहारिका से बाहर निकल गया।
इसी क्रिया की पुनरावृत्ति (Repetition) के कारण पदार्थ के नौ (9) गोल छल्ले निहारिका से अलग हो गये। धीरे-धीरे एक छल्ला के सभी पदार्थ एक स्थान पर एकत्रित होकर एक गाँठ के रूप में शीतल होकर जमकर ठोस हो गये। इस तरह नौ छल्लों से (गाँठ के रूप में) नौ ठोस पदार्थों का निर्माण हुआ, जो कि आगे चलकर नौ ग्रह के रूप में बदल गये।
इस प्रकार काण्ट के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति, केन्द्रापसारित बल द्वारा निहारिका से अलग हुये छल्ले के पदार्थों के एक स्थान पर गाँठ के रूप में जमकर ठोस होने से हुई। मौलिक निहारिका का जो भाग अवशिष्ट रह गया, वह सूर्य के रूप में परिवर्तित हो गया।
उपर्युक्त प्रक्रिया की पुनरावृत्ति के कारण ग्रहों से उनके उपग्रहों का निर्माण हुआ अर्थात् नव-निर्मित गतिशील ग्रहों से केन्द्रापसारित बल के प्रभाव से पदार्थों के वलयाकार छल्ले अलग हो गये, जिनमें से प्रत्येक छल्ला के सभी पदार्थ एक स्थान पर घनीभूत होकर उपग्रह (Satellite) बन गये। इस तरह सम्पूर्ण सौर्य-मंडल का आविर्भाव हुआ।
आलोचना (Criticism):-
यद्यपि काण्ट महोदय ने पृथ्वी की उत्पत्ति की समस्या के समाधान के लिए विज्ञान के तथ्यों का सहारा लिया था तथापि इनका मत वर्तमान समय में आधारहीन प्रमाणित कर दिया गया है, क्योंकि इस पकिल्पना के निम्नलिखित कई तथ्य गणित के नियमों के विपरीत हैं:-
(1) सर्वप्रथम यह आरोप लगाया जाता है कि कणों के आपसी टकराव से भ्रमण गति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस प्रकार निहारिका की निरन्तर गति-वृद्धि त्रुटिपूर्ण है।
(2) काण्ट की यह परिकल्पना कि आद्य पदार्थ में गति कणों के आपसी टकराव से हुई, जो कि ”कोणीय आवेग की स्थिरता के सिद्धान्त” (Laws of conservation of angular momentum) के विपरीत है, क्योंकि आपसी टकराव से गति नहीं उत्पन्न हो सकती है।
(3) काण्ट की यह धारणा कि निहारिका के आकार में वृद्धि के साथ गति भी बढ़ती गयी जो कि इस सिद्धान्त के विपरीत है, क्योंकि ‘कोणीय आवेग की स्थिरता के सिद्धान्त’ के अनुसार यदि किसी पिंड का आकार बढ़ता है तो गति घटती है और यदि आकार बढ़ता है तब गति घटती है।
निष्कर्ष:
निष्कर्षत: कहा जा सकता है की वह मूल आधार ही, जिस पर काण्ट की परिकल्पना आधारित है, गलत प्रमाणित किया जाता है। काण्ट की परिकल्पना का महत्व इस बात में है कि उन्होंने इस क्षेत्र में प्रयास करके आगे आने वाले विद्वानों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। यह परिकल्पना आगे चलकर लाप्लास की निहारिका परिकल्पना की आधारशिला बनी।
3. Explain the importance of study of internal structure of Earth.
पृथ्वी की आंतरिक संरचना के अध्ययन के महत्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने हेतु अप्रत्यक्ष साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के सम्बंध में अधिकतर ज्ञान अनुमान पर आधारित है। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने में भूकम्पीय विज्ञान (Seismology) या भूकम्पीय तरंग को सबसे सटीक वैज्ञानिक साधन माना जाता है। पृथ्वी के आंतरिक संरचना के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है। पृथ्वी के धरातल से केंद्र की ओर जाने पर घनत्व में लगातार बढ़ोतरी होते जाती है क्योंकि ऊपर से नीचे जाने पर चट्टान के दबाव एवम भार में बढ़ोतरी होते जाती है।
⇒ सामान्य नियम के अनुसार दाब बढ़ने से तापमान में बढ़ोतरी होती है। अतः प्रत्येक 32 मी० की गहराई पर 1℃ तापमान में बढ़ोतरी होती है।
स्वेस महोदय ने पहली बार पृथ्वी की रासायनिक संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि रासायनिक संरचना के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक भागों को तीन परतों में बाँटा जा सकता है।
(1) सियाल (SIAL)
पृथ्वी का सबसे ऊपरी परत सिलिकन & अलुमिनियम से निर्मित है।
(2) सिमा (SIMA)
स्वेस ने मध्यवर्ती परत को सिमा से संबोधित किया है और उन्होंने बताया कि सिमा सिलिकन & मैग्नेशियम से बना है।
(3) निफे (NIFE)
पृथ्वी के सबसे आंतरिक भाग को निफे से संबोधित किया है और बताया कि यह निकेल & लोहा से बना है।
भूकम्पीय साक्ष्यों के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना का सबसे अधिक वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। जिसके अनुसार पृथ्वी को तीन परतों में बाँटा गया है –
1. भूपर्पटी (Crust)
2. भूप्रावर (Mantle)
3. क्रोड (Core)
(1) भूपर्पटी (Crust):-
यह पृथ्वी का सबसे ऊपरी एवं पतली परत है। पृथ्वी के कुल आयतन का 0.5% और कुल द्रव्यमान का 0.2% Crust में शामिल है। इसकी औसत मोटाई 33 किमी० है। महाद्वीपों पर इसकी अधिकतम मोटाई 70 किमी० तक और महासागरीय क्षेत्र में औसत मोटाई 5 किमी० है। इसमें परतदार चट्टानों की प्रधानता होती है। लेकिन महाद्वीपीय भागों में परतदार चट्टानों के नीचे ग्रेनाइट चट्टान की परत मिलती है जबकि महासागरीय भूपटल पर बैसाल्ट चट्टाने मिलती है।
★ भूपर्पटी की रासायनिक संरचना से स्पष्ट होता है कि इसमें सर्वाधिक ऑक्सीजन (46.80%), सिलिकन (27.72%) अल्युमीनियम (8.13%) पायी जाती है। यह पृथ्वी का वह मण्डल है जिसमें प्राथमिक तरंग, द्वितीयक तरंग, सतही तरंग, P*, S*, Pg & Sg जैसे भूकम्पीय तरंग चला करते है।
भूपर्पटी भी दो भागों में विभक्त है:-
1. महासागरीय भूपटल
2. महाद्वीपीय भूपटल
महाद्वीपीय भूपटल का घनत्व कम (2.75) है जबकि महासागरीय भूपटल का घनत्व अधिक (3.75) है। यही कारण है कि महाद्वीपीय भूपटल फुला/खुला हुआ है जबकि महासागरीय भूपटल धँसा हुआ है। महाद्वीपीय भूपटल में भी अलग-अलग घनत्व की चट्टाने पायी जाती है। जैसे:- पर्वतीय चट्टानों के घनत्व सबसे कम होता है। इससे अधिक घनत्व पठारों का और पठारों से ज्यादा घनत्व मैदानी चट्टानों में होता है।
(2) भुप्रावार (Mantle):-
भूप्रावार की मोटाई मोहो असम्बद्धता से 2900 KM तक है। पृथ्वी के कुल आयतन का 83% और कुल द्रव्यमान का 68% भाग भूप्रावार में शामिल है। यह अधिक तापमान के कारण पिघली हुई अवस्था (द्रव) के समान है। भूप्रावार पृथ्वी का वह मण्डल है जिसमें प्राथमिक तरंग तो संचरित होती है लेकिन द्वितीयक तरंग विलुप्त हो जाती है। इसका निर्माण सिलिकन & मैग्नेशियम जैसे तत्वों से हुआ है। भूप्रावार का घनत्व 3 से 5.5 तक मानी जाती है ।
★ भूपर्पटी और भूप्रावार के बीच एक संक्रमण पेटी पायी जाती है जिसे मोहोअसम्बद्धता (Moho Discontinuty) कहते है।
★ क्रस्ट और मेंटल के ऊपरी भाग को मिलाकर स्थलमण्डल/लिथोस्फेयर कहा जाता है।
★ स्थलमण्डल के नीचे वाले मण्डल को दुर्बलमण्डल (Aestheno Sphere) कहते है। होम्स ने बताया कि दुर्बलमण्डल में ही संवहन तरंगे चलती है। ये तरंगे इतनी शक्तिशाली होती है जो स्थलमण्डल को तोड़ने एवं मोड़ने की क्षमता रखती है।
(3) क्रोड(Core)/अंतरतम:-
यह पृथ्वी का केंद्रीय भाग है। इसका घनत्व -10 से 13.6 g/cm3 है। पृथ्वी के कुल आयतन का 16% एवं द्रव्यमान का 32% भाग क्रोड में शामिल है। क्रोड पृथ्वी का वह मण्डल है जसमें केवल प्राथमिक तरंगे गुजरती है। यह मण्डल निकेल & लोहा से निर्मित है। इसी कारण से पृथ्वी में चुम्बकीय गुण है। क्रोड अत्याधिक दबाव के कारण ठोस भाग के रूप में परिणत हो चुका है। क्रोड की औसत मोटाई 3471 KM है। Mantle और Core के बीच में एक संक्रमण पेटी पायी जाती है जिसे गुटेनबर्ग असम्बद्धता कहते हैं। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को नीचे के चित्रों में भी देखा जा सकता है।
निष्कर्ष:-
इस तरह उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में भूकम्पीय तरंग सबसे अधिक वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
4. Discuss about the different types of Weathering.
अपक्षय के विभिन्न प्रकारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर- अपक्षय के अन्तर्गत चट्टानों के अपने स्थान पर टूटने-फूटने की क्रिया तथा उससे उस चट्टान विशेष या स्थान विशेष के अनावरण की क्रिया को सम्मिलित किया जाता है। इसमें चट्टान-चूर्ण के परिवहन को सम्मिलित नहीं किया जाता है।
अपक्षयण के प्रकार (Types of Weathering)
1. भौतिक अपक्षयण (Physical or Mechanical Weathering):-
भौतिक ऋतुक्षरण में चट्टानें टूटती तो जरूर है साथ ही उनका भौतिक स्वरूप भी बदल जाता है, लेकिन उसमें रासायनिक परिवर्तन नहीं होता है। भौतिक ऋतुक्षरण तीन क्रियाओं से होता है
A. तुषार प्रक्रिया द्वारा
B. तापीय प्रक्रिया द्वारा
C. अपदलन प्रक्रिया द्वारा
A. तुषार प्रक्रिया द्वारा:-
तुषार क्रिया में क्रमिक रूप से जल जमता और पिघलता रहता है। जब तापमान हिमांक से नीचे चला जाता है तब जल बर्फ में बदल जाता है और उसका आयतन बढ़ जाता है। एक घन सेंटीमीटर जब जल जमता है तो डेढ़ सौ किलोग्राम के बराबर चट्टानों पर प्रहार करता है। इससे स्पष्ट होता है कि तुषार की क्रिया चट्टानों को तोड़ने में सक्षम है। उच्च अक्षांशीय प्रदेश में और पर्वतीय भाग के ऊंचे क्षेत्रों में इस प्रकार की घटनाएं देखी जा सकती है।
B. तापीय प्रक्रिया द्वारा:-
यह क्रिया मुख्यत: उष्ण एवं शीतोष्ण मरुस्थलीय क्षेत्र में सक्रिय रहती है। तापीय प्रभाव के कारण चट्टानें फैलती और सिकुड़ती है। अधिक तापमान पर चट्टानें फैलती है और निम्न तापमान पर सिकुड़ती है।
मरुस्थलीय क्षेत्रों में तापमान दिन में अधिक हो जाता है और रात में अत्यधिक कम हो जाता है जिसके चलते चट्टानें टूटकर बालू का निर्माण करते हैं।
C. अपदलन प्रक्रिया द्वारा:-
यह क्रिया ग्रेनाइट चट्टानों वाले क्षेत्र में होता है। ग्रेनाइट चट्टानी अगर बड़ी एवं मोटी हो तो तापीय प्रभाव के कारण चट्टान का ऊपरी भाग गर्म होकर फैल जाता है जबकि उसे चट्टान के आंतरिक भाग में तापमान कम रहने के कारण फैल नहीं पता है जिसके परिणामस्वरुप चट्टान का ऊपरी परत प्याज के छिलके की भांति टूटती रहती है। इसी प्रक्रिया को अपदलन कहते हैं। इसे प्याज ऋतुक्षरण भी कहा जाता है।
2. रासायनिक अपक्षयण (Chemical weathering):-
जब रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा चट्टानों का विखंडन (Disintegration) होता है तो उसे रासायनिक अपक्षयण कहा जाता है। जब विभिन्न कारणों से चट्टानों के अवयवों में रासायनिक परिवर्तन होता है तो उनका बंधन ढीला हो जाता है तो रासायनिक अपक्षयण की क्रिया होती है।
तापमान एवं आर्द्रता अधिक रहने पर रासायनिक अपक्षयण की क्रिया तीव्र गति से होती है। यही कारण है कि विश्व के उष्ण एवं आर्द्र प्रदेशों में यह क्रिया अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। शुष्क अवस्था में ऑक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड का चट्टानों पर कोई रासायनिक प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु नमी की उपस्थिति में ये सक्रिय रासायनिक कारक (Active chemical Agent) बन जाते हैं।
(i) विलयन (Solution):-
चट्टानों में उपस्थित विभिन्न खनिजों के जल में घुलने की क्रिया को विलयन कहा जाता है। उदाहरण के लिए सेंधा नमक (Rock Salt) एवं जिप्सम वर्षा के जल में आसानी से घुल जाते हैं।
(ii) ऑक्सीकरण (Oxidation):-
ऑक्सीकरण की क्रिया विशेष रूप से लौह युक्त चट्टानों पर होती है। आर्द्रता बढ़ने पर लौह खनिज ऑक्सीजन से मिलकर ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसके कारण चट्टान अथवा खनिज कमजोर हो जाते हैं एवं उनका विखंडन होने लगता है। वर्षा ऋतु में लोहे में जंग लगना ऑक्सीकरण का ही परिणाम है।
(iii) जलयोजन (Hydration):-
जलयोजन की प्रक्रिया में चट्टानों में उपस्थित खनिज जल को सोख लेता है। इसके कारण उनमें रासायनिक परिवर्तन होने लगता है एवं नये खनिजों का निर्माण होता है। इन नये खनिजों में जल का कुछ अंश रह जाता है। ये नये खनिज पुराने खनिजों की अपेक्षा मुलायम होते हैं। उदाहरण के लिए जलयोजन के फलस्वरूप ग्रेनाइट चट्टानों का फेल्डस्पार खनिज कायोलिन (Kaolin) मिट्टी में परिवर्तित हो जाता है।
(iv) कार्बोनेटीकरण (Carbonation):-
जल एवं कार्बन डाई ऑक्साइड मिलकर हल्का कार्बोनिक अम्ल बनाते हैं। इस अम्ल का प्रभाव विशेष रूप से उन चट्टानों पर पड़ता है, जिनमें कैल्सियम, मैग्नेशियम, सोडियम, पोटेशियम एवं लोहे जैसे तत्त्व पाये जाते हैं। ये तत्त्व कार्बोनिक अम्ल में घुल जाते हैं, फलस्वरूप इन खनिजों से निर्मित चट्टानें कमजोर हो जाती हैं एवं उनका विखंडन होने लगता है।
बलुआ पत्थरों (Sand Stone) में सामान्यतः कैल्सियम कार्बोनेट (Lime) ही संयोजक पदार्थ (Cementing Material) का कार्य करता है, जो कार्बोनिक अम्ल में शीघ्रता से घुल जाता है, फलस्वरूप बलुआ पत्थर का विखंडन होने लगता है।
⇒ कभी-कभी जलयोजन के कारण चट्टानों की ऊपरी सतह फूलकर निचली सतह से अलग हो जाती है। इसे गोलाभ अपक्षय (Spheroidal Weathering) कहा जाता है। इस प्रकार रासायनिक अपक्षयण की यह क्रिया अपदलन से काफी मिलती-जुलती है।
5. Describe the characteristics of Divergent/Constructive Plate Margins.
अपसारी / रचनात्मक प्लेट किनारे की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- जहाँ दो प्लेटें एक-दूसरे के विपरीत गतिशील होती हैं, अर्थात एक-दूसरे से दूर हटती हैं, वहाँ नीचे से मैग्मा ऊपर उठकर नयी प्लेट का निर्माण करता है। नयी प्लेट के निर्माण के कारण इसे रचनात्मक किनारा भी कहते हैं। इन किनारों पर पाए जाने वाले सबसे प्रमुख स्थलरूप मध्य महासागरीय कटक हैं।
⇒ जब यह किनारा किसी महाद्वीप पर स्थित होता है तो रिफ्ट घाटियों (Rift Valleys) का निर्माण होता है।
6. Give the definition of Earthquake.
भूकम्प की परिभाषा दीजिए।
उत्तर- भूकम्प दो शब्दों के मिलने से बना है-भू + कम्प
भू=भूपटल
कम्प=कम्पन
इस प्रकार भूपटल में उत्पन्न होने वाला किसी भी प्रकार के कम्पन को भूकम्प कहते है।
★ समुद्र के अंदर उत्पन्न होने वाले भूकंप को सूनामी (Tsunami) कहते है।
★ सूनामी जापानी शब्द है जिसका अर्थ समुद्री तरंग होता है।
★ विज्ञान की वह शाखा जिसमें भूकम्प का अध्ययन किया जाता है उसे सिस्मोलोजी (Seismology) कहते है।
★ भूपटल के जिस बिंदु से भूकम्प प्रारंभ होती है। उसे भूकम्प केंद्र (Focus) कहते है।
प्रघात (Shocks)- अधिकेंद्र पर भूकम्पीय तरंग के द्वारा अनुभव किया गया पहला भूकम्पीय झटका को प्रघात कहते है । जब भूकंप समाप्त हो जाता है तो कई दिनों तक हल्के भूकम्प के झटके महसूस किए जाते है उसे After Shock कहा जाता है।
7. Explain the effects of volcano on human activities.
ज्वालामुखी के मानवीय क्रियाकलापों पर होने वाले प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखी का प्रभाव:
मानवीय क्रियाकलापों को ज्वालामुखी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित करता है।
1. मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखी का सकारात्मक प्रभाव:
मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखियों के सकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं:-
⇒ ज्वालामुखी से बहुत सारे नए भू-आकृतियों का निर्माण होता है। जैसे- क्रेटर और काल्डेरा झीलें, लावा मैदान, गेसर, ज्वालामुखीय पठार और ज्वालामुखी पर्वत।
⇒ यह दुर्बलमंडल (Asthenosphere) से सतह पर सोना, लोहा, निकेल और मैग्नीशियम जैसे मूल्यवान तत्व को पृथ्वी के सतह पर लाता है। उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में जोहान्सबर्ग का सोना और कनाडा में सडबरी का निकेल निक्षेप ज्वालामुखी निक्षेपण के उदाहरण हैं।
⇒ आग्नेय शैल लावा के ठंडा होने के बाद बनता है, जिसका उपयोग निर्माण जैसी विभिन्न गतिविधियों के लिए किया जाता है।
⇒ ज्वालामुखी हमें उपजाऊ भूमि प्रदान करते हैं। ज्वालामुखी की धूल और राख का जमाव भूमि को उपजाऊ बनाता है। उदाहरण के लिए, दक्कन ट्रैप की काली मिट्टी और जावा द्वीपों की उपजाऊ भूमि ज्वालामुखी द्वारा बनाई गई है।
⇒ यह सुंदर दृश्य भी बनाता है और जिससे यह पर्यटकों को आकर्षित करता है।
⇒ यह पृथ्वी के आंतरिक भाग के बारे में भी बहुत सारी जानकारी प्रदान करता है।
⇒ यह टेक्टोनिक प्लेट सीमाओं और प्लेटों की गति की स्थिति के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
⇒ यह भूतापीय ऊर्जा का एक संभावित स्रोत भी है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, इटली और जापान जैसे कई देश भूतापीय ऊर्जा का उत्पादन कर रहे हैं।
2. मानवीय क्रियाकलापों पर ज्वालामुखी का नकारात्मक प्रभाव:
मनुष्य पर ज्वालामुखी के नकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं:-
⇒ ज्वालामुखी की धूल और गैसें वातावरण को अपारदर्शी बना देती हैं जिससे वायु परिवहन मुश्किल हो जाता है, श्वसन रोग बढ़ जाता है और सूर्यातप को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से भी रोकता है अर्थात यह पृथ्वी को ठंण्डा करता है।
⇒ ज्वालामुखी विस्फोट के बाद क्षेत्र में लावा का जमाव होने से वहाँ की जमीन को सरंध्र बनाती है जिससे क्षेत्र में पानी की कमी हो जाती है।
⇒ ज्वालामुखियों के अचानक फटने से मानव बस्ती, मानव जीवन और उसकी संपत्ति को काफी नुकसान होता है। उदाहरण के लिए, माउंट वेसुवियस (जो एक ज्वालामुखी विस्फोट से बना है) ने 78 ई० में इटली में पोम्पेई शहर को नष्ट कर दिया।
⇒ जब समुद्र में ज्वालामुखियों का विस्फोट होता है तो यह आसपास के जल को गर्म कर देता है जिससे की वहाँ के जलीय जीवों पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
Group-C / समूह-स
(Long Answer Type Questions)
(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any three questions. Each question carries 10 marks. [3× 10 = 30]
किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 5 अंक का है।
8. Discuss the internal structure of Earth with suitable diagram.
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने हेतु अप्रत्यक्ष साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के सम्बंध में अधिकतर ज्ञान अनुमान पर आधारित है। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने में भूकम्पीय विज्ञान (Seismology) या भूकम्पीय तरंग को सबसे सटीक वैज्ञानिक साधन माना जाता है। पृथ्वी के आंतरिक संरचना के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है। पृथ्वी के धरातल से केंद्र की ओर जाने पर घनत्व में लगातार बढ़ोतरी होते जाती है क्योंकि ऊपर से नीचे जाने पर चट्टान के दबाव एवम भार में बढ़ोतरी होते जाती है।
⇒ सामान्य नियम के अनुसार दाब बढ़ने से तापमान में बढ़ोतरी होती है। अतः प्रत्येक 32 मी० की गहराई पर 1℃ तापमान में बढ़ोतरी होती है।
स्वेस महोदय ने पहली बार पृथ्वी की रासायनिक संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि रासायनिक संरचना के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक भागों को तीन परतों में बाँटा जा सकता है।
(1) सियाल (SIAL)
पृथ्वी का सबसे ऊपरी परत सिलिकन & अलुमिनियम से निर्मित है।
(2) सिमा (SIMA)
स्वेस ने मध्यवर्ती परत को सिमा से संबोधित किया है और उन्होंने बताया कि सिमा सिलिकन & मैग्नेशियम से बना है।
(3) निफे (NIFE)
पृथ्वी के सबसे आंतरिक भाग को निफे से संबोधित किया है और बताया कि यह निकेल & लोहा से बना है।
भूकम्पीय साक्ष्यों के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना का सबसे अधिक वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। जिसके अनुसार पृथ्वी को तीन परतों में बाँटा गया है –
1. भूपर्पटी (Crust)
2. भूप्रावर (Mantle)
3. क्रोड (Core)
(1) भूपर्पटी (Crust):-
यह पृथ्वी का सबसे ऊपरी एवं पतली परत है। पृथ्वी के कुल आयतन का 0.5% और कुल द्रव्यमान का 0.2% Crust में शामिल है। इसकी औसत मोटाई 33 किमी० है। महाद्वीपों पर इसकी अधिकतम मोटाई 70 किमी० तक और महासागरीय क्षेत्र में औसत मोटाई 5 किमी० है। इसमें परतदार चट्टानों की प्रधानता होती है। लेकिन महाद्वीपीय भागों में परतदार चट्टानों के नीचे ग्रेनाइट चट्टान की परत मिलती है जबकि महासागरीय भूपटल पर बैसाल्ट चट्टाने मिलती है।
★ भूपर्पटी की रासायनिक संरचना से स्पष्ट होता है कि इसमें सर्वाधिक ऑक्सीजन (46.80%), सिलिकन (27.72%) अल्युमीनियम (8.13%) पायी जाती है। यह पृथ्वी का वह मण्डल है जिसमें प्राथमिक तरंग, द्वितीयक तरंग, सतही तरंग, P*, S*, Pg & Sg जैसे भूकम्पीय तरंग चला करते है।
भूपर्पटी भी दो भागों में विभक्त है:-
1. महासागरीय भूपटल
2. महाद्वीपीय भूपटल
महाद्वीपीय भूपटल का घनत्व कम (2.75) है जबकि महासागरीय भूपटल का घनत्व अधिक (3.75) है। यही कारण है कि महाद्वीपीय भूपटल फुला/खुला हुआ है जबकि महासागरीय भूपटल धँसा हुआ है। महाद्वीपीय भूपटल में भी अलग-अलग घनत्व की चट्टाने पायी जाती है। जैसे:- पर्वतीय चट्टानों के घनत्व सबसे कम होता है। इससे अधिक घनत्व पठारों का और पठारों से ज्यादा घनत्व मैदानी चट्टानों में होता है।
(2) भुप्रावार (Mantle):-
भूप्रावार की मोटाई मोहो असम्बद्धता से 2900 KM तक है। पृथ्वी के कुल आयतन का 83% और कुल द्रव्यमान का 68% भाग भूप्रावार में शामिल है। यह अधिक तापमान के कारण पिघली हुई अवस्था (द्रव) के समान है। भूप्रावार पृथ्वी का वह मण्डल है जिसमें प्राथमिक तरंग तो संचरित होती है लेकिन द्वितीयक तरंग विलुप्त हो जाती है। इसका निर्माण सिलिकन & मैग्नेशियम जैसे तत्वों से हुआ है। भूप्रावार का घनत्व 3 से 5.5 तक मानी जाती है ।
★ भूपर्पटी और भूप्रावार के बीच एक संक्रमण पेटी पायी जाती है जिसे मोहोअसम्बद्धता (Moho Discontinuty) कहते है।
★ क्रस्ट और मेंटल के ऊपरी भाग को मिलाकर स्थलमण्डल/लिथोस्फेयर कहा जाता है।
★ स्थलमण्डल के नीचे वाले मण्डल को दुर्बलमण्डल (Aestheno Sphere) कहते है। होम्स ने बताया कि दुर्बलमण्डल में ही संवहन तरंगे चलती है। ये तरंगे इतनी शक्तिशाली होती है जो स्थलमण्डल को तोड़ने एवं मोड़ने की क्षमता रखती है।
(3) क्रोड(Core)/अंतरतम:-
यह पृथ्वी का केंद्रीय भाग है। इसका घनत्व -10 से 13.6 g/cm3 है। पृथ्वी के कुल आयतन का 16% एवं द्रव्यमान का 32% भाग क्रोड में शामिल है। क्रोड पृथ्वी का वह मण्डल है जसमें केवल प्राथमिक तरंगे गुजरती है। यह मण्डल निकेल & लोहा से निर्मित है। इसी कारण से पृथ्वी में चुम्बकीय गुण है। क्रोड अत्याधिक दबाव के कारण ठोस भाग के रूप में परिणत हो चुका है। क्रोड की औसत मोटाई 3471 KM है। Mantle और Core के बीच में एक संक्रमण पेटी पायी जाती है जिसे गुटेनबर्ग असम्बद्धता कहते हैं। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को नीचे के चित्रों में भी देखा जा सकता है।
निष्कर्ष:-
इस तरह उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में भूकम्पीय तरंग सबसे अधिक वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
9. Describe the solar system and any one theory regarding its origin
सौर मण्डल एवं उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिये गये किसी एक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
इस ब्रह्माण्ड में हमारा सौरमंडल सबसे अलग है। इसका आकार एक तश्तरी की तरह है। सौर मंडल का निर्माण लगभग 5 बिलियन वर्ष पहले हुई थी, जब एक नए तारे का जन्म हुआ था जिसे हम सूर्य के नाम से जानते हैं। सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोल पिण्डों को ग्रह कहते हैं। सौरमंडल के उत्पति के संदर्भ में कई सिद्धान्त दिए गए है। पहला सिद्धान्त ‘कास्ते-द-बफन’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया था।
⇒ उन्होंने 1749 ई० में ‘पुच्छल तारा परिकल्पना’ (Comet Hyppothesis) प्रस्तुत किया।
⇒ इनके सिद्धान्त के बाद कई विद्वानों ने अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
⇒ इन सिद्धांतों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि कुछ विद्वानों का मानना है कि हमारी पृथ्वी / सौरमंडल के निर्माण में केवल एक ही तारा का योगदान है जबकि कुछ लोगों के मतानुसार हमारे पृथ्वी के निर्माण में एक से अधिक तारों का योगदान है।
⇒ तारों की संख्या के आधार पर सभी सिद्धान्तों को दो भागों में बाँटते है।
(A) अद्वैतवादी संकल्पना (Monistic Concept):-
⇒ इसमें एक ही तारे से सम्पूर्ण ग्रहों की उत्पत्ति को स्वीकार किया गया है।
⇒ इसे (पैतृक संकल्पना) भी कहते है। इसके अनुसार सम्पूर्ण ग्रहों की उत्पत्ति में एक ही पिता तारे की भूमिका रही है।
⇒ इस संकल्पना पर चार सिद्धान्त दिए गए है:-
1. पुच्छलतारा परिकल्पना (1749)- कास्ते-द-बफन
2. वायव्य राशि परिकल्पना (1755)- इमैनुएल कांट
3. निहारिका परिकल्पना (1796)- लाप्लास
4. उल्कापिंड परिकल्पना (1919)– लॉकियर
(B) द्वैतवादी संकल्पना (Dualistic Concept):-
⇒ इस संकल्पना में ग्रहों की उत्पति दो तारों से मानी गई है।
⇒ इस सिद्धांत के अनुसार ग्रहों की उत्पति को आकस्मिक घटना से जोड़ा जाता है।
⇒ द्वैतवादी संकल्पना पर आधारित प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है:
1. ग्रहाणु परिकल्पना (1905)- टी०सी० चैम्बरलिन
2.ज्वारीय परिकल्पना (1919)– जेम्स जीन्स एवं जेफरीज
3. द्वैतारक परिकल्पना- एच० एन० रसेल
4. विखण्डन का सिद्धान्त– रॉसजन
5. विधुत चुम्बकीय परिकल्पना– डॉ० आल्फवेन
6.निहारिका मेघ सिद्धान्त (1974)- डॉ० वॉन विजसैकर
7. नवतारा परिकल्पना- फ्रेड होयल एवं लिटिलटन
8. अन्तरतारक धूलकण परिकल्पना- ऑटो श्मिड
9. सिफीड संकल्पना- ए० सी० बनर्जी
10. घूर्णन एवं ज्वारीय परिकल्पना- रॉसजन
11. वृहस्पति- सूर्य द्वैतारक- ई० एम० ड्रोवीशेवस्की
जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना:-
सौर्य-मण्डल की उत्पत्ति से सम्बन्धित ”ज्वारीय परिकल्पना” का प्रतिपादन अंग्रेज विद्वान सर जेम्स जीन्स (Sir James Jeans) ने सन् 1919 में किया तथा जेफरीज (Jeffreys) नामक विद्वान ने उक्त परिकल्पना में सन् 1929 में कुछ संशोधन प्रस्तुत किया जिससे इस परिकल्पना का महत्व और अधिक बढ़ गया।
यह ज्वारीय परिकल्पना आधुनिक परिक्लपनाओं तथा सिद्धान्तों में से एक है, जिसे अन्य की अपेक्षा अधिक समर्थन प्राप्त है। अपनी संकल्पना की पुष्टि के लिए जीन्स कुछ तथ्यों को स्वयं मानकर चले हैं।
इस प्रकार ‘ज्वारीय परिकल्पना’ प्रतिपादक द्वारा कुछ निम्नलिखित कल्पित तथ्यों पर आधारित है।
1. सौर्य-मण्डल का निर्माण सूर्य तथा एक अन्य तारे के संयोग से हुआ।
2. प्रारम्भ में सूर्य गैस का एक बहुत बड़ा गोला था।
3. सूर्य के साथ ही साथ ब्रह्माण्ड में एक दूसरा विशालकाय तारा था।
4. सूर्य अपनी जगह पर स्थिर था तथा अपनी जगह पर ही घूम रहा था।
5. साथी तारा एक पथ के सहारे इस तरह घूम रहा था कि वह सूर्य के निकट आ रहा था।
6. साथी तारा आकार तथा आयतन में सूर्य से बहुत अधिक विशाल था।
7. पास आते हुए तारे द्वारा ज्वारीय शक्ति का प्रभाव सूर्य के वाह्य भाग पर पड़ा था।
इस प्रकार उपर्युक्त स्वयं-कल्पित तथ्यों के आधार पर जीन्स ने बताया है कि साथी तारा निरन्तर एक पथ के सहारे सूर्य की ओर अग्रसर हो रहा था, जिस कारण साथी तारे की आकर्षण शक्ति द्वारा वायव्य ज्वार का प्रभाव सूर्य के वाह्य भाग पर पड़ने लगा। फलस्वरूप सूर्य में ज्वार उत्पन्न होने लगा। यह ज्वारीय क्रिया सूर्य में उसी प्रकार सम्भव हो सकी, जिस प्रकार वर्तमान समय में पृथ्वी के निकट चन्द्रमा के आ जाने से पृथ्वी के महासागरों में ज्वार उत्पन्न हो जाता है। ज्यों-ज्यों विशालकाय तारा सूर्य के पास आता गया, त्यों-त्यों उसकी आकर्षण शक्ति बढ़ती गयी तथा ज्वार की तीव्रता बढ़ती गयी।
जब तारा सूर्य से निकटतम दूरी पर आया तो उसकी आकर्षण शक्ति सूर्य से अधिक हो गयी, जिस कारण हजारों किलोमीटर लम्बा सिगार के आकार का ज्वार सूर्य के वाह्य भाग में उठा। सिगार के आकार वाले इस भाग को फिलामेन्ट (Filament) कहा गया है। सूर्य के निकटतम दूरी पर पहुँचने के कारण तारे की अधिकतम आकर्षण शक्ति के प्रभाव से एक विशाल फिलामेन्ट सूर्य से हटकर तारे की तरफ अग्रसर हुआ। जीन्स के अनुसार पास आने वाला तारा सूर्य के मार्ग पर नहीं था, अत: यह सूर्य से आगे बढ़ने लगा।
इस प्रकार तारे के दूर निकल जाने के कारण फिलामेन्ट तारे के साथ न जा सका, वरन् वह सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करने लगा। यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि इस स्थिति में जब कि तारा अधिक दूर चला गया तो फिलामेन्ट सूर्य के पास पुन: वापस क्यों नहीं आ गया?
व्याख्या सरल है। जब फिलामेन्ट टूटकर तारे की तरफ अग्रसर हुआ, उस परिस्थिति में यह सूर्य की आकर्षण शक्ति के क्षेत्र से बाहर (Neutral point) हो गया था, अत: वह सूर्य का ही चक्कर लगाने लगा, वापस नहीं आ सका।
कुछ समय पश्चात् तारा सूर्य से इतना दूर चला गया कि पुन: कोई वायव्य भाग (फिलामेण्ट) सूर्य से अलग नहीं हो सका। आगे चलकर सूर्य से निकला हुआ ज्वारीय पदार्थ सिगार के आकार में अधिक लम्बा हो गया, जिसका मध्य भाग अधिक मोटा या चौड़ा तथा दोनों किनारे वाले भाग अत्यधिक पतले थे। किनारों के पतला होने का मुख्य कारण तारे तथा सूर्य की आकर्षण शक्ति का प्रभाव ही बताया जाता है। फिलामेंट में गति या परिभ्रमण का आविर्भाव दूर होते हुये (Receding) तारे की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के खिंचाव (Gravitational pull) के कारण हुआ था।
फिलामेन्ट से ग्रहों की उत्पत्ति:-
सूर्य से अलगाव के बाद फिलामेन्ट शीतल होने लगा, जिस कारण उसके आकार में संकुचन प्रारम्भ हो गया। इस संकुचन के कारण फिलामेन्ट कई टुकड़ों में टूट गया तथा प्रत्येक भाग घनीभूत होकर ग्रह (Planet) के रूप में बदल गया। इसी क्रिया से फिलामेन्ट से नौ ग्रहों की रचना सम्भव हुई। इसी प्रक्रिया के अनुसार सूर्य की आकर्षण शक्ति के प्रभाव से ग्रहों पर ज्वार उत्पन्न होने से उनके कुछ पदार्थ अलग हो गये, जो घनीभूत होकर उपग्रह बने।
अब यह प्रश्न उठता है कि ग्रह से उपग्रह बनने का क्रम कब तक चलता रहा? जब तक ग्रहों से निकले हुये ज्वारीय पदार्थ बड़े आकार वाले थे तथा उनकी केन्द्रीय आकर्षण शक्ति अधिक थी, तब तक उपग्रह बनते रहे। परन्तु जब उनका आकार इतना छोटा होने लगा कि उनकी केन्द्रीय आकर्षण-शक्ति उन्हें संगठित रखने में असमर्थ हो गयी, उपग्रहों की रचना समाप्त हो गयी। इस प्रकार ग्रहों के उपग्रहों की संख्या ग्रहों के आकार के अनुसार निश्चित हुई।
इस परिकल्पना द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही साथ सौर्य-मंडल की अनेक समस्याएँ भी सुलझी-सी प्रतीत होती हैं-
(1) ग्रहों का क्रम तथा आकार-
सूर्य से निस्सृत ज्वारीय फिलामेन्ट बीच में चौड़ा तथा किनारों की तरफ पतला था। इस प्रकार जब फिलामेन्ट के टूटने से ग्रहों का निर्माण हुआ तो बड़े ग्रह बीच में तथा छोटे ग्रह किनारे की ओर बने। ग्रहों का यह क्रम वर्तमान सौर्य मंडल के ग्रहों से पूर्णतया सामंजस्य रखता है।
सूर्य की ओर से प्रारम्भ करने पर बुध ग्रह सबसे पहले है। यह अधिक छोटा है। इसके बाद शुक्र, पृथ्वी, मंगल (यह पृथ्वी से छोटा है) आदि एक-दूसरे से बड़े होते जाते हैं तथा बीच में बृहस्पति सबसे बड़ा ग्रह है । इसके बाद पुनः ग्रहों का आकार घटता जाता है तथा अन्त में कुबेर अत्यन्त छोटा ग्रह है। यह तथ्य निम्न तालिका से पूरी तरह प्रमाणित हो जाता है।
जीन्स ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कुबेर ग्रह( Pluto) की खोज के पहले किया था। बाद में अत्यन्त लघु ग्रह कुबेर की खोज ने इस परिकल्पना का महत्व और अधिक बढ़ा दिया क्योंकि यह परिकल्पना सौर्य-मंडल के सदस्यों के क्रम को पूर्णतया सिद्ध करती है। केवल मंगल की स्थिति इसके अनुसार ठीक नहीं बैठती है।
(2) उपग्रहों का क्रम-
इस परिकल्पना के अनुसार ग्रहों के उपग्रहों का निर्माण ग्रहों से निकले हुए ज्वारीय पदार्थ से उसी प्रकार हुआ, जिस प्रकार सूर्य से निकले ज्वारीय पदार्थ से ग्रहों की रचना हुई। इस प्रकार ग्रहों के उपग्रहों का भी वही क्रम है जो कि ग्रहों का। अर्थात् एक ग्रह के यदि कई उपग्रह हैं तो सबसे बड़ा उपग्रह बीच में तथा छोटा उपग्रह किनारे की ओर पाया जाता है। यह तथ्य भी वर्तमान उपग्रहों की स्थिति तथा क्रम से पूर्णतया मेल खाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि ग्रहों तथा उपग्रहों की रचना एक ही प्रणाली द्वारा हुई होगी।
(3) उपग्रहों की संरचना तथा आकार-
इस ‘ज्वारीय परिकल्पना’ के अनुसार बड़े ग्रह ब्रह्माण्ड में अधिक समय तक गैस के रूप में रहे, क्योंकि आकार की विशालता के कारण उसके शीतल होने में अधिक समय लगा होगा। इस कारण बड़े ग्रहों के उपग्रह अधिक संख्या में बने, परन्तु अपेक्षाकृत ये छोटे आकार वाले थे। मध्यम आकार वाले (बड़े ग्रहों के समीपवर्ती ग्रह) ग्रहों से कम संख्या में उपग्रह (Satellites) बने, परन्तु इनका आकार बड़ा रहा। किनारे वाले ग्रह आकार में छोटे होने के कारण शीघ्र शीतल हो गये होंगे। परिणामस्वरूप उनसे उपग्रहों की रचना नहीं हो पायी होगी।
यह तथ्य वर्तमान सौर्य-मंडल के उपग्रहों के क्रम से पूर्णतया मेल खाता है। शनि तथा बृहस्पति जैसे सबसे बड़े ग्रहों के छोटे आकार वाले अनेक उपग्रह हैं, जबकि बुध तथा शुक्र के पास एक भी उपग्रह नहीं है।
(4) ग्रहों का परिभ्रमण कक्ष-
इस परिकल्पना के अनुसार ग्रहों के परिभ्रमण कक्ष (Orbit) अथवा ग्रह पथ को सूर्य के कक्ष (orbit) से मेल नहीं खाना चाहिये, बल्कि ग्रह-कक्ष को सूर्य कक्ष से एक निश्चित कोण पर झुका होना चाहिये, क्योंकि सूर्य की आकर्षण शक्ति से ग्रह झुक जाता है। यह तथ्य भी वर्तमान ग्रहों के कक्ष से पूर्णतया मेल खाता है, क्योंकि प्रत्येक ग्रह-कक्ष झुका हुआ है।
प्रत्येक ग्रह का कोणीय झुकाव
ग्रह | झुकाव |
बुध | 7° |
शुक्र | 3.5° |
पृथ्वी | 23.5° |
मंगल | 2° |
बृहस्पति | 1° |
शनि | 2.5° |
अरुण | 0° |
वरुण | 2° |
कुबेर | 17° |
(5) निस्सृत वायव्य पदार्थ का आकार-
पास आते हुये तारे की ज्वारीय शक्ति से सूर्य से जो फिलामेन्ट निकला वह सिगार के आकार का क्यों हो गया? इसका मुख्य कारण पास आते हुये तारे की आकर्षण शक्ति में विभिन्नता का होना ही बताया जाता है। अर्थात् तारा दूर था तो कम आकर्षण के कारण कम पदार्थ बाहर निकला तथा तारा ज्यों-ज्यों पास आता गया, बढ़ती आकर्षण शक्ति से पदार्थ की मात्रा बढ़ती गयी तथा तारे के सूर्य से निकटतम दूरी पर आने पर निस्सृत पदार्थ सबसे अधिक था।
पुन: तारे के दूर जाने से आकर्षण शक्ति में कमी के कारण निस्सृत पदार्थ की मात्रा घटती गयी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि निस्सृत पदार्थ (Ejected matter) तारे की आकर्षण शक्ति के अनुपात में थे।
परिकल्पना में संशोधन
जेफरीज ने ‘ज्वारीय परिकल्पना’ में, जिससे ग्रहों का निर्माण सूर्य तथा पास आते हुये तारे के संयोग से बताया गया है, संशोधन प्रस्तुत किया है। इनके अनुसार दो तारों (सूर्य तथा पास आता हुआ तारा) के अलावा एक और तारा था, जिसे उन्होंने सूर्य का साथी बताया है। पास आता हुआ तारा इस साथी तारे की ही सीध में बढ़ रहा था, जिस कारण दोनों में टक्कर हो गयी। फलस्वरूप कुछ भाग आकाश में बिखर गया। जेफरीज के इस संशोधन के मानने पर ग्रहों के परिभ्रमण (Rotation) सम्बन्धी अनेक कठिनाईयां सुलझ जाती हैं।
लघु ग्रह तथा उपग्रह घनीभवन की मन्द क्रिया (Slow condensation) के फलस्वरूप नहीं बने, वरन् आंशिक रूप में ठोस होने अथवा तरल होने के कारण शीघ्र निर्मित हो गये। गैसों के विस्तार के फलस्वरूप शीतल होने तथा ऊपरी सतह से विकिरण (Radiation) द्वारा इन लघु ग्रहों तथा उपग्रहों में शीघ्र ही तरल केन्द्र (liquid core) का निर्माण हो गया।
इस रूप में पृथ्वी तब तक शीतल होती गयी, जब तक कि वह पूर्ण रूप से तरल नहीं हो गयी। इसके बाद विकिरण द्वारा तापह्रास होने के कारण पृथ्वी के पदार्थ ठोस होने लगे तथा घनत्व के अनुसार उसमें विभिन्न मेखलाएं (zones) बन गयीं। ये सभी घटनाएं शीघ्रता से अल्प समय में घटित हुईं।
मूल्यांकन
जीन्स द्वारा प्रतिपादित तथा जेफरीज द्वारा संशोधित एवं परिवर्द्धित ‘ज्वारीय परिकल्पना’ को बहुत समय तक समर्थन प्राप्त होता रहा तथा लोगों में इसके प्रति अधिक विश्वास हो गया था क्योंकि जीन्स को यह विश्वास था कि ब्रह्माण्ड की ग्रह-प्रणाली का निर्माण एक अनुपम विधान है।
परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इस विचारधारा की कटु आलोचनाएँ की गयी हैं तथा वर्तमान वैज्ञानिकों को जीन्स की यह परिकल्पना मान्य नहीं है। यदि कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों के इस परिकल्पना में संशोधन मान लिये जाय तो सचमुच यह परिकल्पना बड़ी हद तक पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में सही ज्ञान दे सकती है।
आलोचनाएँ
इस परिकल्पना के निम्नलिखित आलोचनाएँ बतायी जा सकती हैं:-
⇒ एक तारे से दूसरे तारे इतना दूर है कि वो एक-दूसरे के समीप आ ही नहीं सकता।
⇒ रसेल का कहना है कि इस सिद्धांत के आधार पर इतना विशालकाय सौरमण्डल का निर्माण नहीं हो सकता।
⇒ सूर्य का आंतरिक भाग अत्यधिक गर्म है इसके कारण सूर्य के आंतरिक भाग से पदार्थ स्वंय ही निकलने की स्थिति में होती है। विशालकाय तारा सूर्य के पास से होकर गुजरा होगा तो तापमान में वृद्धि हुई होगी, ऐसी स्थिति में सूर्य से अलग हुए पदार्थ अंतरिक्ष में बिखर जाने की प्रवृति रखेंगें न कि ठंडा होकर ग्रह का निर्माण करेंगें।
⇒ यह सिद्धांत ग्रहों के कोणीय वेग की व्याख्या नहीं करता।
10. Explain the different types of rocks.
चट्टानों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- भू-पटल निर्माण करने वाले पदार्थों को चट्टान कहते है अर्थात भू-पटल का निर्माण चट्टानों से हुआ है। चट्टानें मुख्यतः खनिजों के संयोग से बनती हैं, अर्थात् चट्टानें खनिजों का समुच्चय हैं।
पृथ्वी पर लगभग 200 प्रकार के खनिज पाये जाते हैं। इनमें 24 ऐसे हैं, जो मुख्यतः भू-पृष्ठ की चट्टानों का निर्माण करते हैं। अत: इन्हें चट्टान निर्माणक खनिज कहा जाता है। ये खनिज मुख्यतः सिलिकेट, ऑक्साइड एवं कार्बोनेट के रूप में पाये जाते हैं। इन चट्टान निर्माणकारी खनिजों में सिलिकेट सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है एवं इसके बाद ऑक्साइड का स्थान आता है। जैव पदार्थों से निर्मित चट्टानों में खनिज नहीं मिलता है, जैसे- कोयला। चट्टानें पत्थर की तरह कड़ी एवं पंक की तरह मुलायम हो सकती हैं।
चट्टानों के प्रकार (Types of Rocks)
उत्पत्ति के आधार पर चट्टानों को तीन भागों में बांटा गया है-
1. आग्नेय (Igneous)
2. अवसादी (Sedimentary)
3. कायांतरित (Metamorphic)
1. आग्नेय चट्टानें (Igneous Rocks):-
आग्नेय चट्टानों का निर्माण मैग्मा के ठंडा होकर जमने एवं ठोस होने से होता है। चूंकि सर्वप्रथम इसी चट्टान का निर्माण हुआ, अतः इसे प्राथमिक चट्टान (Primary Rock) भी कहा जाता है। ये आधारभूत चट्टानें हैं, जिनसे परतदार एवं रूपांतरित चट्टानों का निर्माण होता है।
⇒ ये चट्टानें रवेदार (Crystalline) होती हैं। जब मैग्मा धरातल पर आकर ठंडा होता है, तब तीव्र गति से ठंडा होने के कारण चट्टानों के रवे बहुत बारीक होते हैं, जैसे- बेसाल्ट। इसके विपरीत जब मैग्मा धरातल के नीचे ठंडा होता है, तब धीरे-धीरे जमने के कारण रवे बड़े-बड़े होते हैं, जैसे- ग्रेनाइट।
⇒ ये चट्टानें तुलनात्मक रूप से कठोर होती हैं, इनमें जल काफी कठिनाई से जोड़ों के सहारे ही अंदर प्रविष्ट हो पाता है।
⇒ इनमें परत का अभाव होता है, परंतु जोड़ (Joints) पाये जाते हैं।
⇒ आग्नेय चट्टानों में जीवों के अवशेष (Fossils) का अभाव होता है।
⇒ ज्वालामुखी चट्टानों में रवों का विकास नहीं होने पर उनका गठन कांच की तरह (Glassy) होता है, जैसे ऑब्सीडियन।
⇒ आग्नेय चट्टानों के उदाहरण- ग्रेनाइट, रायोलाइट, बेसाल्ट, पेग्माटाइट (Pegmatite), साइनाइट (Syenite), डायोराइट (Diorite), एण्डेसाइट (Andesite), गैब्रो (Gabro), डोलेराइट (Dolerite), पेरिडोटाइट (Peridotite) आदि हैं।
आग्नेय चट्टान के प्रकार
स्थिति एवं संरचना के अनुसार आग्नेय चट्टानें दो प्रकार की होती हैं-
(i) बहिर्भेदी आग्नेय चट्टान (Extrusive Igneous Rocks)
(ii) अंतर्भेदी आग्नेय चट्टान (Intrusive Igeous Rocks)
(i) बहिर्भेदी आग्नेय चट्टान (Extrusive Igneous Rocks)-
वह आग्नेय चट्टानें जिनका निर्माण सतह के ऊपर लावा के ठंडा होने और जमने से होता है, बहिर्भेदी आग्नेय चट्टानें कहलाती हैं। इनमें क्रिस्टल बहुत छोटे होते हैं क्योंकि लावा तेजी से जम जाता है। बेसाल्ट एवं रायोलाइट इसका अच्छा उदाहरण है। इस चट्टान की क्षरण से ही काली मिट्टी का निर्माण होता है जिसे रेगुड़ (Regur) कहते हैं।
(ii) अंतर्भेदी आग्नेय चट्टान (Intrusive Igeous Rocks)-
वह आग्नेय चट्टानें जो सतह के नीचे लावा के ठंडे और ठोस होने से निर्मित होती है,अंतर्भेदी आग्नेय चट्टानें कहलाती है।
इसके दो पुन: उपवर्ग हैं-
(a) पातालिय चट्टान (Plutonic Rock)
इसका निर्माण पृथ्वी के अंदर काफी अधिक गहराई पर होता है। इसका नामकरण प्लूटो (यूनानी देवता) के नाम पर किया गया है। जो पाताल के देवता माने जाते हैं।अत्यधिक धीमी गति से ठंडा होने के कारण इसके क्रिस्टल बड़े बड़े होते हैं। ग्रेनाइट चट्टान इसका उदाहरण है।
(b) मध्यवर्ती चट्टान (Hypobyssal Rock)
ज्वालामुखी के उदगार के समय धरातलीय अवरोध के कारण लावा दरारों, छिद्रों एवं नली में ही जमकर ठोस रूप धारण कर लेता है, बाद में अपरदन की क्रिया के बाद यह चट्टाने धरातल पर नजर आने लगती है। डोलेराइट, मैग्नेटाइट इन चट्टानों के महत्वपूर्ण उदाहरण है।
मध्यवर्ती आग्नेय चट्टानों के विभिन्न रूप
जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर भूपटल के नीचे ही ठंडा होने की प्रवृति रखता है। तब आन्तरिक ज्वालामुखी स्थलाकृति का निर्माण होता है। जैसे–
⇒ जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर लम्बत ठोस होता है तो डाइक, क्षैतिज ठोस होता है तो सिल, जब उत्तल दर्पण के समान ठोस होता है तो लैकोलिथ, जब अवतल दर्पण के समान ठोस होता है तो लोपोलिथ, जब तरंग के समान ठोस होता है तो फैकोलिथ स्थलाकृति का निर्माण होता है। इसी तरह जब मैग्मा पदार्थ अपने स्रोत क्षेत्र से ऊपर उठकर एक गुम्बद के समान ठोस हो जाते है तो उससे बैथोलिथ का निर्माण होता है।
⇒ रासायनिक संरचना की दृष्टि से आग्नेय चट्टानों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-
(i) अम्लीय चट्टानें (Acid Rocks)-
इनमें सिलिका की मात्रा अधिक होती है। इनका रंग हल्का होता है। ये चट्टानें अपेक्षाकृत हल्की होती हैं, जैसे-ग्रेनाइट।
(ii) क्षारीय चट्टानें (Basic Rocks)-
इनमें सिलिका की मात्रा कम होती है। इनमें फेरो-मैग्नेशियम की प्रधानता होती है। लोहे की अधिकता के कारण इन चट्टानों का रंग गहरा होता है। इनका घनत्व भी अधिक होता है, जैसे-गैब्रो, बेसाल्ट, रायोलाइट आदि।
⇒ पूर्व की चट्टानों के ऊपर स्थित बेसाल्ट चट्टान टोपी (Caps) के समान दिखाई पड़ता है। इस प्रकार की स्थलाकृति को ‘मेसा’ (Mesa) कहा जाता है।
⇒ अपरदन के कारण मेसा का अधिकांश भाग कट जाता है एवं उसका आकार छोटा होने लगता है। अत्यंत छोटी आकार वाली ‘मेसा’ को ‘बुटी’ (Butte) कहा जाता है।
⇒ धरातल के नीचे परतदार चट्टानों के बीच स्थित लावा गुम्बद (जैसे लैकोलिथ) के ऊपर की मुलायम चट्टानें अपरदन द्वारा नष्ट होती जाती हैं। इस प्रकार लावा गुम्बद धरातल पर दिखने लगता है एवं यह अवरोधक (Resistant) चट्टान संकरी एवं लंबी कटक में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार की स्थलाकृति को “होगबैक’ (Hogback) कहा जाता है।
⇒ हौगबैक से मिलती-जुलती एक स्थलाकृति, जिसका ढाल एवं डिप (Dip) झुका हुआ हो ‘कवेस्टा’ (Questa) कहलाती है।
2. अवसादी/तलछटी/परतदार चट्टानें (Sedimentary or Stratified Rocks):-
ये वे चट्टानें हैं जिनका निर्माण विखण्डित ठोस पदार्थों, जीव-जन्तुओं एवं पेड़-पौधों के जमाव से होता है।
⇒ इन चट्टानों में अवसादों की विभिन्न परतें पायी जाती हैं।
⇒ इन चट्टानों में जीवावशेष (Fossils) पाये जाते हैं।
⇒ धरातल का 75% भाग अवसादी चट्टानों से ढका हुआ है एवं शेष 25% भाग आग्नेय एवं रूपांतरित चट्टानों से आवृत्त है।
⇒ यद्यपि अवसादी चट्टानें धरातल का अधिकांश भाग आवृत्त किये हुए हैं, फिर भी भूपटल के निर्माण में इनका योगदान 5% ही है, शेष 95% भाग आग्नेय एवं रूपांतरित चट्टानों से निर्मित है। इस प्रकार परतदार चट्टानों का महत्त्व क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से है, भू-पृष्ठ में गहराई की दृष्टि से नहीं।
⇒ ये चट्टानें रवेदार नहीं होती हैं।
⇒ ये चट्टानें क्षैतिज रूप में बहुत कम पाई जाती हैं। पार्श्ववर्ती दबाव के कारण परतों में मोड़ पड़ जाता है अतएव ये चट्टानें सामूहिक रूप से अपनति एवं अभिनति के रूप में पायी जाती हैं।
⇒ इन चट्टानों में जोड़ (Joints) पाये जाते हैं।
⇒ ये चट्टानें प्रायः मुलायम होती हैं (जैसे- चीका मिट्टी, पंक आदि), परन्तु ये कड़ी भी हो सकती हैं (जैसे- बलुआ पत्थर)।
⇒ ये शैलें अधिकांशतः प्रवेश्य (Porous) होती हैं, परंतु चीका मिट्टी जैसी परतदार चट्टानें अप्रवेश्य भी हो सकती हैं।
⇒ इनका निर्माण अधिकांशतः जल में होता है। परंतु लोएस जैसी परतदार चट्टानों का निर्माण पवन द्वारा जल के बाहर भी होता है। बोल्डर क्ले (Boulder Clay) या टिल (Till) हिमानी द्वारा निक्षेपित परतदार चट्टानों के उदाहरण हैं, जिसमें विभिन्न आकार के चट्टानी टुकड़े मौजूद रहते हैं।
3. रूपांतरित या कायांतरित चट्टानें (Metamorphic Rocks):-
जब ताप, दबाव, रासायनिक क्रियाओं आदि के प्रभाव से आग्नेय एवं परतदार चट्टानों का रूप परिवर्तित हो जाता है, तो रूपांतरित चट्टानों का निर्माण होता है। कभी-कभी रूपांतरित चट्टानों का भी रूपांतरण हो जाता है। इस क्रिया को पुनःरूपान्तरण कहा जाता है। रूपांतरण के फलस्वरूप चट्टानों की मूलभूत विशेषताएं जैसे- घनत्व, रंग, कठोरता, बनावट, खनिजों का संघटन आदि आंशिक या पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती हैं।
कायांतरित चट्टानों के उदाहरण
⇒ आग्नेय से कायांतरित चट्टान-
ग्रेनाइट- नीस,
बेसाल्ट- एम्फी बोलाइट
ग्रेबो- सर्पेन्टइन
⇒ अवसादी से कायांतरित चट्टानें-
बालुवा पत्थर- क्वार्टजाइट,
चूना पत्थर– संगमरमर,
शेल- स्लेट,
कोयला- ग्रेफाइट, हीरा,
⇒ रूपांतरित चट्टान से पुन: रूपांतरित चट्टान
स्लेट- शिष्ट
शिष्ट- फायलाइट
11. What is an Earthquake? Describe about the origin of Earthquake.
भूकम्प क्या है? भूकम्प की उत्पत्ति के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- भूकम्प दो शब्दों के मिलने से बना है- भू + कम्प
भू=भूपटल
कम्प=कम्पन
इस प्रकार भूपटल में उत्पन्न होने वाला किसी भी प्रकार के कम्पन को भूकम्प कहते है।
★समुद्र के अंदर उत्पन्न होने वाले भूकंप को सूनामी (Tsunami) कहते है।
★ सूनामी जापानी शब्द है जिसका अर्थ समुद्री तरंग होता है।
★विज्ञान की वह शाखा जिसमें भूकम्प का अध्ययन किया जाता है उसे सिस्मोलोजी (Seismology) कहते है।
★ भूपटल के जिस बिंदु से भूकम्प प्रारंभ होती है। उसे भूकम्प केंद्र (Focus) कहते है।
प्रघात (Shocks)–
अधिकेंद्र पर भूकम्पीय तरंग के द्वारा अनुभव किया गया पहला भूकम्पीय झटका को प्रघात कहते है। जब भूकंप समाप्त हो जाता है तो कई दिनों तक हल्के भूकम्प के झटके महसूस किए जाते है उसे After Shock कहा जाता है।
भूकम्प के प्रकार
भूकम्प का वर्गीकरण दो आधार पर किया जाता है:-
(A) गहराई के आधार पर
(B) समय के आधार पर
गहराई के आधार पर भूकम्प तीन प्रकार के होते है–
I. छिछला भूकम्प– फोकस 70 KM से ऊपर होता है।
II. मध्यम भूकम्प– फोकस 70-300 KM के बीच
III. गहरा भूकम्प– फोकस 300-700 KM के बीच
(C) समय के आधार पर
समय के आधार पर भूकम्प तीन प्रकार के होते है:-
I. धीमा भूकम्प
II. अचानक भूकम्प
धीमा भूकम्प की तीव्रता कम होती है लेकिन इसके झटके लम्बे समय तक अनुभव किये जाते है। ऐसे भूकम्प से ही वलित पर्वत तथा पठारों का निर्माण होता है।
अचानक भूकम्प की तीव्रता अधिक होती है। इसके झटके अति उच्च समय तक अनुभव किये जाते है। इसके चलते इससे ज्वालामुखी पर्वत तथा ब्लॉक पर्वतका निर्माण होता है।
★ विश्व में सर्वाधिक छिछले उदगम वाले भूकम्प होते हैं जिसका प्रभाव लम्बे समय तक होता है।
भूकम्प के कारण
भूकम्प क्यों आते है उन कारणों को दो भागों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है:-
(A) मानवीय कारण
(B) प्राकृतिक कारण
(A) मानवीय कारण :-
I. परमाणु विस्फोट
II. मानव के द्वारा किया जा रहा खनन कार्य
III. बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण
IV. पर्वतीय क्षेत्रों में किया जा रहा विकास कार्यक्रम जैसे- सड़क निर्माण, वन ह्रास इत्यादि।
(B) प्राकृतिक कारक:-
ज्वालामुखी उदगार, मोड़दार एवं ब्लॉक पर्वत का निर्माण जब कभी होता है। भूकम्प आने से संबंधित प्राकृतिक कारणों की व्याख्या होती है। भूकम्प आने से संबंधित प्राकृतिक कारणों की व्याख्या करने हेतु दो सिद्धान्त प्रस्तुत किये गए है:-
1) प्रत्यास्य पुनश्चलन का सिद्धान्त (Elastic Rebond Theory)
इस सिद्धांत को अमेरिकी वैज्ञानिक H.F. रीड ने दिया था। इनके अनुसार भुपटल प्रत्यास्य चट्टानों से निर्मित है। जब इन चट्टानों पर बाहरी दबाव बल कार्य करता है तो चट्टानें फैलती है और जब दबाव हटता है तो चट्टानें सिकुड़ने के क्रम में ही भूकम्प उत्पन्न होता है।
2) प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त (Plate Tectonic Theory)
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक हैरीहेस महोदय है। इन्होंने बताया कि पृथ्वी का भूपटल कई प्लेटों से निर्मित है। यही प्लेट जब क्षैतिज या उदग्र रूप से गति करते है तो भूकम्प उत्पन्न होते है। प्लेटों में सर्वाधिक भूकम्प प्लेट के किनारे अनुभव किये जाते है। भूकम्प के आधार पर प्लेट के किनारों को तीन भागों में बांटा गया है–
I. अपसरण सीमा
II. अभिसरण सीमा
III. संरक्षी सीमा
जैसे:-
I. चन्द्रमा एवं ब्रहाण्डीय पिण्डों का आकर्षण बल
II. एक प्लेट के सापेक्ष में दूसरे प्लेट का 45° कोण पर झुका हुआ होना
III. पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल
IV. दुर्बलमण्डल में उत्पन्न होने वाला संवहन तरंग
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त में उपरोक्त सभी कारणों को भूकम्प के लिए जिम्मेवार बताये गये है लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण संवहन तरंग है। जिन किनारों पर संवहन तरंग ऊपर की ओर उठकर फैलने की प्रवृति रखती है वहाँ पर अपसरण सीमा का निर्माण होता है और प्लेटों में उत्पन्न होने वाले गति को अपसरण गति कहते है।
जैसे- अटलांटिक कटक के सहारे
भूकम्प का वितरण
विश्व में मुख्यतः भूकम्प के तीन क्षेत्र है:-
(i) प्रशांत महासागर के चारों ओर– विश्व में सर्वाधिक भूकम्प प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में ही आती है। यहाँ अधिकांश गहरे केंद्र वाले भूकम्प आते है।
(ii) मध्य महाद्विपीय क्षेत्र– यह क्षेत्र यूरेनियम प्लेट और इसके दक्षिण में स्थित भारतीय प्लेट तथा अफ्रीकन प्लेट के मध्य स्थित है। यहाँ मध्यम एवं छिछले किस्म के भूकम्प आते है।
(iii) मध्य अटलांटिक कटक एवं पूर्वी अफ्रीका के भ्रंश घाटी क्षेत्र- अटलांटिक महासागर में अपसरण सीमा के सहारे भूकम्प आती है जिसका विस्तार आइसलैंड से अंटार्कटिका तक हुआ है।
भूकम्पीय तीव्रता एवं इसका मापन
भूकम्प के आगमन के दौरान बड़ी मात्रा में ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। इसी ऊर्जा का मापन भूकम्पीय तीव्रता कहलाता है। वैज्ञानिकों ने भूकम्पीय तीव्रता की मापन हेतु दो प्रकार के पैमाने का विकास किया है–
1. मार्सेली पैमाना
2. रिचर पैमाना
मार्सेली पैमाना
मार्सेली पैमाना का विकास फ्रांस के मार्सेली महोदय द्वारा किया गया था। इन्होंने इसे ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव एवं विनाशकारी प्रभाव पर विकसित किया। इस पैमाने से न्यूनतम 1 और अधिकतम 12 इकाई तक भूकम्पीय तीव्रता का मापन किया जाता है।
रिचर पैमाना
रिचर पैमाना का विकास 1835 ई० में सी.एफ. रिचर महोदय ने किया था। इसके अंतर्गत भूकम्पीय तीव्रता मापन 1 से 9 इकाई तक किया जाता है। रिचर पैमाना में भूकम्पीय तीव्रता का मापन 10 के घात के रूप में होता है।
रिचर पैमाना पर तीव्रता | प्रभाव |
1 | केवल यंत्रों द्वारा अनुभव किया जाता है। |
2 | केवल अधिकेन्द्र के पास हल्का कम्पन होता है। |
3 | चट्टानों में सामान्य कम्पन होती है। |
4 | केन्द्र से 32 किमी० की त्रिज्या में भूकम्प अनुभव की जाती है। |
5 | अधिकेन्द्र से 5 हजार किमी० की दूरी तक भूकम्प अनुभव किया जाता है और पेड़-पौधे हिलने लगते हैं। |
6 | विनाश प्रारंभ हो जाता है और दीवारों में दरारें पड़ने लगती हैं। |
7 | दीवारें ध्वस्त हो जाती है, वृहत भूकम्प की स्थिति उत्पन्न होती है। |
8 | इसका प्रभाव विश्वव्यापी होती है, नदियाँ अपना मार्ग बदल लेती है। |
9 | सम्पूर्ण सर्वनाश (नदी, नाला, मकान स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। |
भूकम्पीय तरंग एवं इसकी विशेषता
भूकम्प के दौरान कई प्रकार के प्रमुख एवं गौण तरंगों की उत्पति होती है:-
(A) प्रमुख तरंग
I. P तरंग
II. S तरंग
III. L तरंग
(B) गौण तरंग
I. P* & S*
II. Pg & Sg
P तरंग
P तरंग को कई नामों से जानते है। जैसे: प्राथमिक तरंग, Pull & Push तरंग या अनुधैर्य तरंग। इसे ध्वनि तरंग से तुलना की जा सकती है क्योंकि यह ठोस, द्रव्य और गैस तीनों प्रकार के माध्यम से संचारित हो सकती है। इसकी गति 7.8 Km/Sec होती है। P तरंग भूकम्प रिकॉर्डिंग स्टेशन पर सबसे पहले पहुँचती है या अनुभव किया जाता है। इसकी उत्पत्ति भूकम्पीय केंद्र/फोकस से होती है।
S तरंग
S तरंग को द्वितीयक तरंग या अनुप्रस्थ तरंग कहते है। इसकी तुलना प्रकाश तरंग से की जा सकती है। यह तरंग तरल भाग में विलुप्त हो जाती है। भूकम्प रिकॉर्डिंग स्टेशन पर P तरंग की तुलना में S तरंग देरी से पहुंचती है। S तरंग की भी उत्पति भूकम्पीय केंद्र/फोकस से होती है।
★ P तरंग अपने संचरण अक्ष के क्षैतिज जबकि S तरंग अपने संचरण मार्ग के लम्बवत गमन करती है। S तरंग की औसत गति 4.5 Km/Sec होता है।
L तरंग
L तरंग को सतही तरंग भी कहा जाता है। L तरंग की उत्पति अधिकेंद्र (Epicentre) से होती है। L तरंग रिकॉर्डिंग स्टेशन पर सबसे देर से पहुँचती है। इसी तरंग के कारण सर्वाधिक क्षति होती है। L तरंग की गति काफी अनियमित होती है।
पृथ्वी का भुपटल मुख्यत: दो प्रकार के चट्टानों से निर्मित है:- (1) ग्रेनाइट & (2) बैसाल्ट चट्टान
P* & S* ऐसा तरंग है जो केवल बैसाल्टिक चट्टानों से होकर गुजरती है।
P* की गति=6-7 Km/Sec
S* की गति=3-4 Km/Sec
ये तरंग समुद्री भूपटल और महाद्वीपों के आंतरिक भागों में चलती है। इस तरंगों की खोज 1923 ई० में कोनार्ड महोदय के द्वारा किया गया था। इस तरंगों की खोज कोनार्ड ने टायर्न में आये भूकम्प के दौरान किया गया था।
Pg & Sg तरंग
ये दोनों तरंगे ग्रेनाइट चट्टानों से होकर गुजरती है। इसका खोज जेफरीज महोदय ने 1909 ई० में क्रोएशिया (Croatia) के कुपा घाटी में आये भूकम्प के दौरान किया था।
Pg तरंग की औसत गति =5.4 Km/Sec
Sg तरंग की औसत गति =3.3 Km/Sec
Pg & Sg एक ऐसी तरंग है जो केवल महाद्वीपीय भागों से होकर गुजरती है।
निष्कर्ष:-
इस तरह उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भूकम्प के दौरान अलग-अलग प्रकार के तरंगों की उत्पत्ति होती है जिनकी अपनी विषिष्टता होती है। इन्हीं विशिष्टताओं के आधार पर पृथ्वी के आंतरिक भागों के अध्ययन वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है।
12. Describe the landforms made by volcanic activity with diagram.
ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर- ज्वालामुखी क्रिया:- ज्वालामुखी क्रिया दो शब्दों सेे मिलकर बना है। प्रथम ज्वालामुखी, द्वितीय क्रिया। पुनः ज्वालामुखी शब्द को भी दो भागों में बांटा जा सकता है:- प्रथम ज्वाला द्वितीय मुखी।
क्रिया का तात्पर्य विभिन्न प्रकार के प्रक्रियाओं से है। ज्वालामुखी उदगार में निकलने वाला पदार्थ भुपटल के ऊपर निकलने का प्रयास करता है या निकल जाता है पुनः निकलकर अनेक प्रकार के स्थलाकृतियों को जन्म देता है। इस सम्पूर्ण परिघटना को ही ज्वालामुखी क्रिया (Volcanism) कहा जाता है।
ज्वालामुखी क्रिया शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वारसेस्टर महोदय ने किया था। उन्होनें ज्वालामुखी क्रिया को परिभाषित करते हुए कहा कि “ज्वालामुखी क्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है कि जिसमे गर्म पदार्थ की धरातल के तरफ या धरातल के ऊपर आने वाली सभी प्रक्रिया को शामिल किया जाता है।”
ज्वालामुखी द्वारा निम्नलिखित स्थलाकृति का निर्माण होता है–
1. केंद्रीय विस्फोटक द्वारा निर्मित स्थलाकृति, बाह्य स्थलाकृति
I. सिंडर शंकु:- ये प्रायः ज्वालामुखी धूल तथा राख से निर्मित होते है तथा कम ऊँचाई के होते है। जैसे– मेक्सिको का जोरल्लो, फिलीपाइन का कैमिग्विन इत्यादि।
IV. एसिड लावा शंकु:- अधिक सिलिकायुक्त गाढ़ा एवं चिपचिपा लावा के उदगार से यह शंकु निर्मित होता है। इसकी ढाल तीव्र होती है।
V. पैठिक लावा शंकु:- कम सिलिका युक्त पतले लावा से इस शंकु का निर्माण होता है। यह कम ऊँचा शंकु होता है।
VI. क्रैटर:- ज्वालामुखी के छिद्र के ऊपर स्थित किपाकार गर्त को क्रैटर कहते है। चारों तरफ इसकी ढाल तीव्र होती है।
VII. काल्डेरा:- एक बड़े क्रैटर को काल्डेरा कहते है।
2. दरारी उद्गार द्वारा निर्मित स्थलाकृति
I. लावा पठार:- दरारी उद्गार से निकले बेसाल्ट लावा के जमा होने से निर्मित पठार लावा पठार कहलाता है। जैसे- दक्कन पठार, कोलम्बिया पठार
II. लावा मैदान:- लावा के पतली थ के रूप में जमा होने से इसका निर्माण होता है। जो फ्रांस, न्यूजीलैंड, आइसलैंड आदि देशों में मिलते है।
अभ्यान्तरिक स्थलाकृति
ज्वालामुखी क्रिया द्वारा उत्पन्न स्थरूपों का प्रदर्शन
अभ्यान्तरिक स्थलाकृति के अंतर्गत बैथोलिथ, लैकोलिथ, फैकोलिथ, लोपोलिथ, सिल, डाइक, स्टॉक इत्यादि स्थरूपों का निर्माण भुपटल के सतह के नीचे होता है जो अपरदन द्वारा दृश्य हो पाते है।
अन्य स्थलाकृति
गेसर:- यह एक गर्म जल का स्रोत है जिससे समय-समय पर गर्मजल या वाष्प निकला करती है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि अंतर्जात बल द्वारा विभिन्न प्रकार के स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
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♣ 2023 में पाटलिपुत्र विश्विधालय द्वारा आयोजित सेमेस्टर-1 की वार्षिक परीक्षाओं का प्रश्न-पत्र यहाँ उपलब्ध है।
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3. Multidisciplinary Course (MDC-1) For Humanities