Unique Geography Notes हिंदी में

Unique Geography Notes in Hindi (भूगोल नोट्स) वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के उन छात्रों और अध्ययन प्रेमियों को काफी मदद मिलेगी, जिन्हें भूगोल के बारे में जानकारी और ज्ञान इकट्ठा करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस वेबसाइट पर नियमित रूप से सभी प्रकार के नोट्स लगातार विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित करने का काम जारी है।

Environmental Geography (पर्यावरण भूगोल)

24. Natural hazards and disasters (प्राकृतिक खतरे और आपदाएँ)

Natural hazards and disasters

(प्राकृतिक खतरे और आपदाएँ)



       प्राकृतिक खतरों और आपदाओं में उन घटनाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनसे जन-धन की अपार हानि होती है और जिनसे प्रलय एवं विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उल्लेखनीय है कि मानव इन घटनाओं की उत्पत्ति को पूर्णतः नियंत्रित नहीं कर सका है।

    प्राकृतिक खतरों और आपदाओं के अन्तर्गत ज्वालामुखी उद्गार, भूकम्प, भूस्खलन, टारनेडो, हरीकेन, चक्रवात, बाढ़, सूखा, जंगल की आग और ब्लिजार्ड जैसी प्राकृतिक घटनाओं को सम्मिलित किया गया है। ध्यान रहे कि उपरोक्त उल्लेखित सभी घटनाएं उस समय पर्यावरणीय या प्राकृतिक आपदाओं का रूप लेती हैं जब इनसे मानव को भारी हानि होती है।

    स्पष्ट है कि पर्यावरणीय आपदाओं की तीव्रता का निर्धारण उनके द्वारा होने वाली जन-धन की हानि की मात्रा के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए, मानव रहित क्षेत्रों में भूकम्प एवं ज्वालामुखी उद्गार कभी भी आपदा के रूप में वर्णित नहीं किया जाता है, लेकिन जब कभी भूकम्प और ज्वालामुखी का उद्‌गार मानव आवासित क्षेत्रों में होता है तो ये प्राकृतिक घटनाएं आपदाओं के रूप में विवेचित की जाती हैं।       

    इसी प्रकार मानव जान-बूझकर भी इन प्राकृतिक घटनाओं से ग्रस्त क्षेत्रों को अपने आवास हेतु चुनता है। विश्व में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां मानव ने भूकम्पग्रस्त एवं बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों को अपने आवास-स्थल के रूप में पसन्द किया है। इस प्रकार के मानवीय निर्णय उसके अवबोध (Perception) से, कि वह किसी भी प्राकृतिक घटना का बोध कैसे करता है, प्रभावित होते हैं।

     ज्ञातव्य है कि मानवीय अवबोध समय और संस्कृति (culture) के साथ बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए, तिमोर सागर के समीपवर्ती क्षेत्रों में चक्रवातों से अपार जन-धन की हानि का भय सदैव बना रहता है।

   1974 के भयंकर चक्रवात से हुई जन-धन की अपार हानि के उपरान्त डार्विन और उत्तरी आस्ट्रेलिया के निवासियों ने इस घटना का बोध कर अपने आवास हेतु अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित स्थलों को चुना है।

    किसी भी प्राकृतिक घटना के बोध द्वारा ही इस बात का निर्धारण होता है कि या तो मानव उस आपदाग्रस्त क्षेत्र को छोड़ दे या फिर उस आपदा से होने वाली हानि को स्वीकार कर उस आपदाग्रस्त क्षेत्र में ही रहे या फिर उस आपदा को कम करने के उपाय करे।

    आपदा को कम करने के उपायों में व्यावहारिक भौतिक भूगोल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जो घटना की तीव्रता एवं आवृत्ति, इनकी उत्पत्ति के स्थल और उत्पत्ति के कारकों का ज्ञान करा मानव को इन घटनाओं को नियंत्रित करने के उपायों की ओर प्रवृत्त करती है।

1. बाढ़ (FLOODING)

    पर्यावरणीय अथवा प्राकृतिक आपदा के रूप में बाढ़ एक सामान्य घटना है जो मानव को प्रभावित करती है विशेषकर बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में। जल की उपलब्धता, समतल भूमि की उपलब्धता, कृषि कार्यों में सुविधा तथा बाढ़ को एक आपदा के रूप में स्वीकार न करने के मानवीय बोध के कारण विश्व जनसंख्या का एक बड़ा भाग बाढ़ के मैदानों में रह रहा है।

    उल्लेखनीय है कि मानव वायुमण्डलीय प्रक्रमों को नियंत्रित नहीं कर सकता है अर्थात् वह हरीकेन और चक्रवातों को तो आने से नहीं रोक सकता है, लेकिन जलवायवीय, भू-आकृतिक, जलीय और जैविक प्रक्रमों के सैद्धान्तिक ज्ञान का उपयोग कर बाढ़ जैसी आपदा को अवश्य नियंत्रित कर सकता है। एक अपवाह बेसिन में ढालों पर क्रियाशील प्रक्रमों और नदियों द्वारा उन प्रक्रमों के प्रति अनुक्रिया के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यही घनिष्ठ सम्बन्ध नदी में बाढ़ को नियंत्रित करने हेतु सैद्धान्तिक आधार प्रदान करता है।

    बाढ़ जैसी आपदा को नियंत्रित करने के लिए वस्तुतः दो प्रकार के उपागमों को व्यवहार में लाया जाता है।

     पहले उपागम (Approach) में बाढ़ को रोकने के सभी उपाय नदियों के उद्गम स्थल तथा ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में क्रियान्वित किए जाते हैं, जैसे:

(i) ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में ढालों को रूपान्तरित (Modified) करना,

(ii) नदी के उद्गम स्थल एवं ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में वृहत् पैमाने पर वृक्षारोपण करना ताकि वर्षा जल का भूमि में अन्तः स्पन्दन (Infilteration) अधिक हो सके, फलतः वाही जल की मात्रा में कमी हो सके और वह विलम्ब से नदियों में पहुंचे।

    वृक्षारोपण द्वारा मृदा अपरदन में कमी होने पर नदियों का अवसाद-भार तो कम होता ही है साथ ही नदियों की जलधारण क्षमता में कमी नहीं आने के कारण बाढ़ की आवृत्ति में भी कमी आती है और बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र का भी विस्तार नहीं हो पाता है।

     दूसरे उपागम (Approach) के अन्तर्गत नदियों के मार्ग में ही बाढ़ को नियंत्रित करने के उपाय किए जाते हैं, जैसे :

(i) नदी के प्रवाह मार्ग में बाढ़ को नियन्त्रित करने हेतु भण्डारण जलाशयों अर्थात् बांधों का निर्माण करना।

(ii) नदियों के विसर्पाकार (Meandering) मार्ग को अभियांत्रिकी की सहायता से सीधा करना।

(iii) बाढ़ के समय अतिरिक्त जल के प्रवाह को निम्न भूमि (Low Land) या कृत्रिम रूप से निर्मित जलवाहिकाओं (Channels) में मोड़ देना।

(iv) जहां आवश्यक हो, वहां अभियांत्रिकी उपायों द्वारा नदियों के किनारों पर कृत्रिम तटबन्धों, डाइक (दीवार जैसी संरचना) और बाढ़-दीवाल (Flood wall) का निर्माण करना।

    उपरोक्त उपायों के द्वारा नदियों में बाढ़ के समय जल के आयतन, उसकी ऊंचाई तथा परिमाण में कमी की जा सकती है। यद्यपि ये उपाय नदी की गति और उसके अपरदन तथा निक्षेपण कार्यों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं।

     उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वस्तु को बाढ़-प्रूफ (Flood-Proof) बनाने की बजाय समय पर बाढ़ की भविष्यवाणी और चेतावनी देकर मानव एवं पशुधन को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना अधिक सुविधाजनक एवं सस्ता होता है।

2. ज्वालामुखी (Volcano)

     ज्ञातव्य है कि परिप्रशान्त मेखला तथा मध्य महाद्वीपीय मेखला के अन्तर्गत विश्व के 80 प्रतिशत ज्वालामुखी आते हैं और वस्तुतः विश्व के 80 प्रतिशत सक्रिय (Active) ज्वालामुखी विनाशकारी (Destructive) अभिसारी (Convergent) प्लेट किनारों के सहारे पाए जाते हैं।

    यह सत्य है कि ज्वालामुखी के उद्‌गार को रोका तो नहीं जा सकता है, लेकिन उसके भावी उद्गार की भविष्यवाणी करके उसके द्वारा होने वाली जल-धन की हानि को अवश्य कम किया जा सकता है। इस हेतु निम्नांकित उपाय व्यवहार में लाए जा सकते हैं :

(i) सम्भावित ज्वालामुखी उद्‌गार वाले क्षेत्रों में भूकम्प लेखी यंत्र द्वारा भकम्पीय घटनाओं के नियमित मापन से प्राप्त संकेतों के आधार पर भावी ज्वालामुखी उद्गार की भविष्यवाणी की जा सकती है।

(ii) मेग्मा तथा गैसों के भूगर्भ में नीचे से उपर की ओर उठने से धरातलीय सतह में उभार तथा झुकाव के रूप में विरूपण होने लगता है। विरूपण की यह मात्रा ज्वालामुखी उद्गार के पहले बढ़ती जाती है अतः सम्भावित क्षेत्रों में टिल्टमीटर की सहायता से धरातलीय सतह में झुकाव के नियमित मापन से भावी ज्वालामुखी उद्‌गार के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है।

(iii) सम्भावित ज्वालामुखी उद्गार के पहले तापमान में वृद्धि होने लगती है। इस आधार पर क्रेटर झीलों, गर्म जल स्रोतों, गेसर एवं धुंआरों के जल के तापमान के नियमित मापन से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर भावी ज्वालामुखी उद्गार की भविष्यवाणी की जा सकती है।

(iv) स्थानीय गुरुत्व तथा चुम्बकीय क्षेत्र के मापन से प्राप्त परिणामों से सम्भावित ज्वालामुखी के उद्‌गार की भविष्यवाणी में सहायता मिलती है। स्मरणीय है कि उपरोक्त उपायों को व्यवहार में लाते हुए 1980 में संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन राज्य में हुए सेण्ट हेलेन्स ज्वालामुखी के उद्गार की भविष्यवाणी पहले की जा चुकी थी। इस भविष्यवाणी के आधार पर व्यवहार में लाए गए सुरक्षात्मक उपायों के कारण ही इस ज्वालामुखी उद्गार से जन-धन की हानि अपेक्षाकृत कम हुई।

3. भूकम्प

   भूकम्प प्राकृतिक भू-आकृतिक आपदा है। ज्ञातव्य है कि रचनात्मक प्लेट सीमाओं के सहारे मध्यम परिमाण वाले भूकम्प आते हैं जबकि उच्च परिमाण वाले भूकम्प विनाशी प्लेट सीमाओं के सहारे आते हैं, जहां पर दो अभिसारी प्लेट आपस में टकराते हैं तथा अपेक्षाकृत भारी प्लेट का हल्के प्लेट के नीचे क्षेपण (Subduction) होता है।

    इस दृष्टि से विश्व में परिप्रशान्त मेखला क्षेत्र, अल्पाइन-हिमालय पर्वत श्रृंखला के सहारे स्थित क्षेत्र तथा उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी सीमान्त क्षेत्र भूकम्प की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील हैं।

    यद्यपि प्लेट के किनारों पर स्थित क्षेत्रों में भूकम्पीय घटनाएं सर्वाधिक होती हैं तथापि प्लेट के मध्यवर्ती भागों में भी कभी-कभी भूकम्प आते हैं। ज्वालामुखी उद्‌गार की भांति ही भूकम्प को भी आने से रोका नहीं जा सकता है, किन्तु भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील भागों में मानव बसाव को हतोत्साहित करके भूकम्प द्वारा होने वाली जन-धन की हानि को अवश्य कम किया जा सकता है। साथ ही धरातलीय स्थिरता की दृष्टि से अस्थिर एवं कमजोर क्षेत्रों का निर्धारण करके उन क्षेत्रों में मानव बसाव को रोका जा सकता है।

   स्पष्ट है कि प्राकृतिक भू-आकृतिक प्रकोपों के सम्भावित खतरों एवं प्रभावों के निर्धारण, भविष्यवाणी तथा आकलन एवं प्रबन्धन में भू-आकृति विज्ञान से पर्याप्त सहायता मिलती है।

I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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